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शनिवार, 10 अगस्त 2019

परमेश्वर सदोम को नष्ट कर देते हैं

(उत्पत्ति 18:26) यहोवा ने कहा, "यदि मुझे सदोम में पचास धर्मी मिलें, तो उनके कारण उस सारे स्थान को छोड़ूँगा।"
(उत्पत्ति 18:29) फिर उसने उससे दोबारा यह कहा, कदाचित् वहाँ चालीस मिलें। और उसने कहा, मैं ऐसा न करूँगा।
(उत्पत्ति 18:30) फिर उसने उससे कहा, कदाचित् वहाँ तीस मिलें। और उसने कहा, मैं ऐसा न करूँगा।
(उत्पत्ति 18:31) और उसने कहा, कदाचित् वहाँ बीस मिलें। और उसने कहा, मैं उसका नाश न करूँगा।
(उत्पत्ति 18:32) और उसने कहा, कदाचित् वहाँ दस मिलें। और उसने कहा, मैं उसका नाश न करूँगा।
ये कुछ उद्धरण हैं जिन्हें मैंने बाइबल से चुना है। वे सम्पूर्ण, एवं मूल अनुवाद नहीं हैं। यदि तुम लोग उन्हें देखना चाहते हो, तो तुम लोग स्वयं ही उन्हें बाइबल में देख सकते हो; समय बचाने के लिए, मैंने मूल विषय-वस्तु के एक भाग को हटा दिया है। मैंने यहाँ पर केवल कुछ मुख्य अंशों और वाक्यों का चयन किया है, और कई वाक्यों को हटा दिया है जिनका आज हमारी सहभागिता से कोई सम्बन्ध नहीं है। सभी अंश एवं विषय-वस्तु जिन के विषय में हम सहभागिता करते हैं, हमारा ध्यान कहानियों के विवरणों के ऊपर से और इन कहानियों में मनुष्य के आचरण के ऊपर से हट जाता है; उसके बजाए, हम केवल परमेश्वर के विचारों एवं युक्तियों के विषय में बात करते हैं जो उस समय थे। परमेश्वर के विचारों एवं युक्तियों में, हम परमेश्वर के स्वभाव को देखेंगे, और सभी चीज़ों से जो परमेश्वर ने किया था, हम सच्चे स्वयं परमेश्वर को देखेंगे—और इस में हम अपने उद्देश्य को हासिल करेंगे।
परमेश्वर केवल ऐसे लोगों के विषय में ही चिंता करता है जो उसके वचनों को मानने और उसकी आज्ञाओं का पालन करने के योग्य हैं।

ऊपर दिए गए अंशों में कई मुख्य शब्द समाविष्ट हैं: संख्या। पहला, यहोवा ने कहा कि यदि उसे नगर में पचास धर्मी मिलें, तो वह उस सारे स्थान को छोड़ देगा, दूसरे शब्दों में, वह नगर का नाश नहीं करेगा। अतः क्या वहाँ सदोम के भीतर वास्तव में पचास धर्मी थे? वहाँ नहीं थे। इसके तुरन्त बाद, अब्राहम ने परमेश्वर से क्या कहा? उसने कहा, कदाचित् वहाँ चालीस मिलें। परमेश्वर ने कहा, मैं नाश नहीं करूंगा। इसके आगे, अब्राहम ने कहा, यदि वहाँ तीस मिलें? परमेश्वर ने कहा, मैं नाश नहीं करूंगा। यदि वहाँ बीस मिलें? मैं नाश नहीं करूंगा। दस? मैं नाश नहीं करूंगा। क्या वहाँ नगर के भीतर वास्तव में दस धर्मी थे? वहाँ पर दस नहीं थे—केवल एक ही था। और वह कौन था? वह लूत था। उस समय, सदोम में मात्र एक ही धर्मी व्यक्ति था, परन्तु क्या परमेश्वर बहुत कठोर था या बलपूर्वक मांग कर रहा था जब बात इस संख्या तक पहुंच गयी? नहीं, वह कठोर नहीं था। और इस प्रकार, जब मनुष्य लगातार पूछता रहा, "चालीस हों तो क्या?" "तीस हों तो क्या?" जब वह "दस हों तो क्या" तक नहीं पहुंच गया? परमेश्वर ने कहा, "यदि वहाँ पर मात्र दस भी होंगे तो मैं उस नगर को नाश नहीं करूंगा; मैं उसे बचा रखूंगा, और इन दस के कारण सभी को माफ कर दूंगा।" दस की संख्या काफी दयनीय होती, परन्तु ऐसा हुआ कि, सदोम में वास्तव में उतनी संख्या में भी धर्मी लोग नहीं थे। तो तू देख, कि परमेश्वर की नज़रों में, नगर के लोगों का पाप एवं दुष्टता ऐसी थी कि परमेश्वर के पास उसे नष्ट करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। परमेश्वर का क्या अभिप्राय था जब उसने कहा कि वह उस नगर को नष्ट नहीं करेगा यदि उस में पचास धर्मी मिलें? परमेश्वर के लिए ये संख्याएं महत्वपूर्ण नहीं थीं। जो महत्वपूर्ण था वह यह कि उस नगर में ऐसे धर्मी हैं या नहीं जिन्हें वह चाहता था। यदि उस नगर में मात्र एक धर्मी मनुष्य होता, तो परमेश्वर उस नगर के विनाश के कारण उनकी हानि की अनुमति नहीं देता। इसका अर्थ यह है कि, इसके बावजूद कि परमेश्वर उस नगर को नष्ट करने वाला था या नहीं, और इसके बावजूद कि उसके भीतर कितने धर्मी थे या नहीं, परमेश्वर के लिए यह पापी नगर श्रापित एवं घिनौना था, और इसे नष्ट किया जाना चाहिए, इसे परमेश्वर की दृष्टि से ओझल हो जाना चाहिए, जबकि धर्मी लोगों को बने रहना चाहिए। युग के बावजूद, मानवजाति के विकास की अवस्था के बावजूद, परमेश्वर की मनोवृत्ति नहीं बदलती है: वह बुराई से घृणा करता है, और अपनी नज़रों में धर्मी की परवाह करता है। परमेश्वर की यह स्पष्ट मनोवृत्ति ही परमेश्वर की हस्ती (मूल-तत्व) का सच्चा प्रकाशन है। क्योंकि वहाँ उस नगर के भीतर केवल एक ही धर्मी व्यक्ति था, इसलिए परमेश्वर और नहीं हिचकिचाया। अंत का परिणाम यह था कि सदोम को आवश्यक रूप से नष्ट किया जाएगा। इस में तुम लोग क्या देखते हो? उस युग में, परमेश्वर ने उस नगर को नष्ट नहीं किया होता यदि उसके भीतर पचास धर्मी होते, और तब भी नष्ट नहीं करता यदि दस धर्मी भी होते, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर ने मानवजाति को क्षमा करने और उसके प्रति सहनशील होने का निर्णय लिया होता, या कुछ लोगों के कारण मार्गदर्शन देने का कार्य किया होता जो उसका आदर करने और उसकी आराधना करने के योग्य होते। परमेश्वर मनुष्य की धार्मिकता में बड़ा विश्वास करता है, ऐसे लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसकी आराधना करने के योग्य हैं, और वह ऐसे लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसके सामने भले कार्यों को करने के योग्य हैं।
परमेश्वर उन लोगों के प्रति अत्यंत दयालु है जिनकी वह परवाह करता है, और उन लोगों के प्रति अत्याधिक क्रोधित है जिनसे वह घृणा करताएवं अस्वीकार करता है
बाइबल के लेखों में, क्या सदोम में परमेश्वर के दस सेवक थे? नहीं, वहाँ नहीं थे! क्या वह नगर परमेश्वर के द्वारा बचाए जाने के योग्य था? उस नगर में केवल एक व्यक्ति—लूत—ने परमेश्वर के संदेशवाहकों को ग्रहण किया था। इसका आशय यह है कि उस नगर में केवल एक ही परमेश्वर का दास था, और इस प्रकार परमेश्वर के पास लूत को बचाने और सदोम के नगर को नष्ट करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं था। हो सकता है कि अब्राहम और परमेश्वर के बीच का संवाद साधारण दिखाई दे, परन्तु वे कुछ ऐसी बात को प्रदर्शित करते हैं जो बहुत ही गम्भीर हैं: परमेश्वर के कार्यों के कुछ सिद्धान्त होते हैं, और किसी निर्णय को लेने से पहले वह अवलोकन एवं चिंतन करते हुए लम्बा समय बिताएगा; इससे पहले कि सही समय आए, वह निश्चित तौर पर कोई निर्णय नहीं लेगा या एकदम से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेगा। परमेश्वर एवं अब्राहम के बीच का संवाद हमें यह दिखाता है कि सदोम को नाश करने का परमेश्वर का निर्णय जरा सा भी ग़लत नहीं था, क्योंकि परमेश्वर पहले से ही जानता था कि उस नगर में चालीस धर्मी नहीं थे, न ही तीस धर्मी थे, या न ही बीस धर्मी थे। वहाँ पर तो दस धर्मी भी नहीं थे। उस नगर में एकमात्र धर्मी व्यक्ति लूत था। वह सब जो सदोम में हुआ था और उसकी परिस्थितियों का परमेश्वर के द्वारा अवलोकन किया गया था, और वे परमेश्वर के लिए उसके हाथ के समान ही चिरपरिचित थे। इस प्रकार, उसका निर्णय ग़लत नहीं हो सकता था। इसके विपरीत, परमेश्वर की सर्वसामर्थता की तुलना में, मनुष्य कितना सुन्न, कितना मूर्ख एवं अज्ञानी, और कितना निकट-दर्शी है। यह वही बात है जिसे हम परमेश्वर एवं अब्राहम के बीच संवादों में देखते हैं। परमेश्वर आरम्भ से लेकर आज के दिन तक अपने स्वभाव को प्रकट करता रहा है। उसी प्रकार यहाँ पर भी परमेश्वर का स्वभाव है जिसे हमें देखना चाहिए। संख्याएँ सरल हैं, और किसी भी चीज़ को प्रदर्शित नहीं करती हैं, परन्तु यहाँ पर परमेश्वर के स्वभाव का अति महत्वपूर्ण प्रकटीकरण है। परमेश्वर पचास धर्मियों के कारण नगर को नाश नहीं करेगा। क्या यह परमेश्वर की दया के कारण है? क्या यह उसके प्रेम एवं सहिष्णुता के कारण है? क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के स्वभाव के इस पहलू को देखाहै? भले ही वहाँ केवल दस धर्मी ही होते, फिर भी परमेश्वर इन दस धर्मियों के कारण उस नगर को नष्ट नहीं करता। यह परमेश्वर की सहनशीलता एवं प्रेम है या नहीं? उन धर्मी लोगों के प्रति परमेश्वर की दया, सहिष्णुता और चिंता के कारण, उसने उस नगर को नष्ट नहीं किया होता। यह परमेश्वर की सहनशीलता है। और अंत में, हम क्या परिणाम देखते हैं? जब अब्राहम ने कहा, "कदाचित् वहाँ दस मिलें," परमेश्वर ने कहा, "मैं उसका नाश न करूँगा।" इसके बाद, अब्राहम ने और कुछ नहीं कहा—क्योंकि सदोम के भीतर ऐसे दस धर्मी नहीं थे जिनकी ओर उसने संकेत किया था, और उसके पास कहने के लिए कुछ भी नहीं था, और उस समय उसने जाना कि परमेश्वर ने क्यों सदोम को नष्ट करने के लिए दृढ़ निश्चय किया था। इस में, तुम लोग परमेश्वर के किस स्वभाव को देखते हो? परमेश्वर ने किस प्रकार का दृढ़ निश्चय किया था? अर्थात्, यदि उस नगर में दस धर्मी नहीं होते, तो परमेश्वर उसके अस्तित्व की अनुमति नहीं देता, और वह अनिवार्य रूप से उसे नष्ट कर देता। क्या यह परमेश्वर का क्रोध नहीं है? क्या यह क्रोध परमेश्वर के स्वभाव को दर्शाता है? क्या यह स्वभाव परमेश्वर की पवित्र हस्ती (मूल-तत्व) का प्रकाशन है? क्या यह परमेश्वर के धर्मी सार का प्रकाशन है, जिसका अपमान मनुष्य को नहीं करना चाहिए? इस बात की पुष्टि के बाद कि सदोम में दस धर्मी भी नहीं थे, परमेश्वर निश्चित था कि नगर का नाश कर दे, और परमेश्वर उस नगर के भीतर के लोगों को कठोरता से दण्ड देगा, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर का विरोध किया था, और वे बहुत ही गन्दे एवं भ्रष्ट थे।
हमने क्यों इन अंशों का इस रीति से विश्लेषण किया है? क्योंकि ये कुछ साधारण वाक्य अत्यंत दया एवं अत्याधिक क्रोध के विषय में परमेश्वर के स्वभाव की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। ठीक उसी समय धर्मियों को सहेजकर रखते हुए, उन पर दया करते हुए, उनको सहते हुए, और उनकी देखभाल करते हुए, परमेश्वर के हृदय में सदोम के सभी लोगों के लिए अत्यंत घृणा थी जो भ्रष्ट हो चुके थे। क्या यह अत्यंत दया एवं अत्याधिक क्रोध था, या नहीं? परमेश्वर ने किस तरह से उस नगर को नष्ट किया था? आग से। और उसने आग का इस्तेमाल करके उसे क्यों नष्ट किया था? जब तू किसी चीज़ को आग के द्वारा जलते हुए देखता है, या जब तू किसी चीज़ को जलाने वाला होता है, तो उसके प्रति तेरी भावनाएं क्या होती हैं? तू इसे क्यों जलाना चाहता है? क्या तू महसूस करता है कि अब तुझे इसकी आवश्यकता नहीं है, यह कि तू इसे अब और नहीं देखना चाहता है? क्या तू इसका परित्याग करना चाहता है? परमेश्वर के द्वारा आग का इस्तेमाल करने का अर्थ है परित्याग, एवं घृणा, और यह कि वह सदोम को अब और देखना नहीं चाहता था। यह वह भावना थी जिसने परमेश्वर से आग द्वारा सदोम का सम्पूर्ण विनाश करवाया। आग का इस्तेमाल दर्शाता है कि परमेश्वर कितना क्रोधित था। परमेश्वर की दया एवं सहनशीलता वास्तव में मौजूद है, किन्तु जब वह अपने क्रोध को तीव्रता से प्रवाहित करता है तो परमेश्वर की पवित्रता एवं धार्मिकता मनुष्य को परमेश्वर का वह पहलु भी दिखाती है जो किसी गुनाह की अनुमति नहीं देता है। जब मनुष्य परमेश्वर की आज्ञाओं को पूरी तरह से मानने में समर्थ होता है और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करता है, तो परमेश्वर मनुष्य के प्रति अपनी दया से भरपूर होता है; जब मनुष्य भ्रष्टता, घृणा एवं उसके प्रति शत्रुता से भर जाता है, तो परमेश्वर बहुत अधिक क्रोधित होता है। और वह किस हद तक अत्यंत क्रोधित होता है? उसका क्रोध तब तक बना रहता है जब तक वह मनुष्य के प्रतिरोध एवं बुरे कार्यों को फिर कभी नहीं देखता है, जब तक वे उसकी नज़रों के सामने से दूर नहीं हो जाते हैं। केवल तभी परमेश्वर का क्रोध दूर होगा। दूसरे शब्दों में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह व्यक्ति कौन है, यदि उनका हृदय परमेश्वर से दूर हो गया है, और परमेश्वर से फिर गया है, कभी वापस नहीं लौटने के लिए, तो इसके बावजूद कि, सभी संभावनाओं या अपनी आत्मनिष्ठ इच्छाओं के अर्थ में वे किस प्रकार अपने शरीर में या अपनी सोच में परमेश्वर की आराधना करने, उसका अनुसरण करने और उसकी आज्ञा मानने की इच्छा करते हैं, जैसे ही उनका हृदय परमेश्वर से दूर हो जाता है, परमेश्वर के क्रोध को बिना रूके तीव्रता से प्रवाहित किया जाएगा। यह कुछ ऐसा होगा कि मनुष्य को पर्याप्त अवसर देने के बाद, जब परमेश्वर अपने क्रोध को प्रचंडता से प्रवाहित करता है, जब एक बार उसके क्रोध को तीव्रता से प्रवाहित किया जाता है तो उसके बाद इसे वापस लेने का कोई मार्ग नहीं होगा, और वह ऐसे मनुष्य के प्रति फिर कभी दयावान एवं सहनशील नहीं होगा। यह परमेश्वर के स्वभाव का ऐसा पहलु है जो किसी गुनाह को बर्दाश्त नहीं करता है। यहाँ, यह लोगों को सामान्य प्रतीत होता है कि परमेश्वर एक नगर को नष्ट करेगा, क्योंकि, परमेश्वर की दृष्टि में, वह नगर जो पाप से भरा हुआ था अस्तित्व में नहीं रह सकता था और निरन्तर बना नहीं रह सकता था, और यह न्यायसंगत था कि इसे परमेश्वर के द्वारा नष्ट किया जाना चाहिए। फिर भी उन बातों में जो परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश के पहले और उसके बाद घटित हुए थे, हम परमेश्वर के स्वभाव की सम्पूर्णता को देखते हैं। वह उन चीज़ों के प्रति सहनशील एवं दयालु है जो उदार, और खूबसूरत, और भली हैं; ऐसी चीज़ें जो बुरी, और पापमय, और दुष्ट हैं, वह उनके प्रति अत्याधिक क्रोधित होता है, कुछ इस तरह कि वह लगातार क्रोध करता है। ये परमेश्वर के स्वभाव के दो सिद्धान्त एवं अति महत्वपूर्ण पहलु हैं, और, इसके अतिरिक्त, उन्हें प्रारम्भ से लेकर अंत तक परमेश्वर के द्वारा प्रकट किया गया है: भरपूर दया एवं अत्यंत क्रोध। तुम लोगों में से अधिकतर लोगों ने परमेश्वर की दया का अनुभव किया है, किन्तु तुम में से बहुत कम लोगों ने परमेश्वर के क्रोध की सराहना की होगी। परमेश्वर की दया एवं करूणा को प्रत्येक व्यक्ति में देखा जा सकता है; अर्थात्, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के प्रति बहुत अधिक दयालु रहा है। फिर भी कभी कभार—या, ऐसा कहा जा सकता है, कभी नहीं—परमेश्वर ने किसी भी व्यक्ति के प्रति या आज तुम लोगों के बीच के किसी भी समूह के प्रति अत्याधिक क्रोध किया है। शान्त हो जाओ! जल्द ही या बाद में, प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा परमेश्वर के क्रोध को देखा और अनुभव किया जाएगा, किन्तु अभी वह समय नहीं आया है। और ऐसा क्यों है? क्योंकि जब परमेश्वर किसी के प्रति लगातार क्रोधित होता है, अर्थात्, जब वह अपने अत्यंत क्रोध को उन पर तीव्रता से प्रवाहित करता है, तो इसका अर्थ है कि उसने काफी समय से उससे घृणा की है और उसे अस्वीकार किया है, यह कि उसने उनके अस्तित्व को तुच्छ जाना है, और यह कि वह उनकी मौजूदगी को सहन नहीं कर सकता है; जैसे ही उसका क्रोध उनके ऊपर आएगा, वे लुप्त हो जाएंगे। आज, परमेश्वर का कार्य अभी तक उस मुकाम पर नहीं पहुंचा है। परमेश्वर के बहुत अधिक क्रोधित हो जाने पर तुम लोगों में से कोई भी उसके सामने खड़े होने के योग्य नहीं होगा। तो तुम लोग देखते हो कि इस समय परमेश्वर तुम सभी के प्रति अत्याधिक दयालु है, और तुम लोगों ने अभी तक उसका अत्यंत क्रोध नहीं देखा है। यदि ऐसे लोग हैं जो अविश्वास की दशा में बने रहते हैं, तो तुम लोग याचना कर सकते हो कि परमेश्वर का क्रोध तुम लोगों के ऊपर आ जाए, ताकि तुम लोग अनुभव कर सको कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का क्रोध और उसका अनुल्लंघनीय स्वभाव वास्तव में अस्तित्व में है या नहीं। क्या तुम लोग ऐसी हिम्मत कर सकते हो?
"वचन देह में प्रकट होता है" से

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

परमेश्वर आदम और हव्वा के वस्त्र बनाने के लिए जानवर की खालों का इस्तेमाल करता है

(उत्पत्ति 3:20-21) आदम ने अपनी पत्नी का नाम हव्वा रखा; क्योंकि जितने मनुष्य जीवित हैं उन सब की आदिमाता वही हुई। और यहोवा परमेश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिए चमड़े के अँगरखे बनाकर उनको पहिना दिए।
आओ हम इस तीसरे अंश पर एक नज़र डालें, जो बताता है कि उस नाम के पीछे एक अर्थ है जिसे आदम ने हव्वा को दिया था, ठीक है? यह दर्शाता है कि सृजे जाने के बाद, आदम के पास अपने स्वयं के विचार थे और वह बहुत सी चीज़ों को समझता था। लेकिन फिलहाल हम जो कुछ वह समझता था या कितना कुछ वह समझता था उसका अध्ययन या उसकी खोज करने नहीं जा रहे हैं क्योंकि यह वह मुख्य बिन्दु नहीं है जिस पर मैं तीसरे अंश में चर्चा करना चाहता हूँ। अतः तीसरे अंश का मुख्य बिन्दु क्या है। आइए हम इस पंक्ति पर एक नज़र डालें, "और यहोवा परमेश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिए चमड़े के अँगरखे बनाकर उनको पहिना दिए।" यदि आज हम पवित्र शास्त्र की इस पंक्ति के बारे में संगति नहीं करें, तो हो सकता है कि तुम लोग इन वचनों के पीछे निहित अर्थों का कभी एहसास न कर एँपाओ। सबसे पहले, मुझे कुछ सुराग देने दो। अपनी कल्पना को विस्तृत करो और अदन के बाग की तस्वीर देखिए, जिसमें आदम और हव्वा रहते हैं। परमेश्वर उनसे मिलने जाता है, लेकिन वे छिप जाते हैं क्योंकि वे नग्न हैं। परमेश्वर उन्हें देख नहीं सकता है, और जब वह उन्हें पुकारता है उसके बाद, वे कहते हैं, "हममें तुझे देखने की हिम्मत नहीं है क्योंकि हमारे शरीर नग्न हैं।" वे परमेश्वर को देखने की हिम्मत नहीं करते हैं क्योंकि वे नग्न हैं। तो यहोवा परमेश्वर उनके लिए क्या करता है? मूल पाठ कहता है: "और यहोवा परमेश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिए चमड़े के अँगरखे बनाकर उनको पहिना दिए।" अब क्या तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर ने उनके वस्त्रों को बनाने के लिए क्या उपयोग किया था? परमेश्वर ने उनके वस्त्रों को बनाने के लिए जानवर के चमड़े का उपयोग किया था। कहने का तात्पर्य है, जो वस्त्र परमेश्वर ने मनुष्य के लिए बनाया वह एक रोएँदार कोट था। यह वस्त्र का पहला टुकड़ा था जिसे परमेश्वर ने मनुष्य के लिए बनाया था। एक रोएँदार कोट आज की जीवनशैली के अनुसार ऊँचे बाज़ार का मद है, ऐसी चीज़ जिसे पहनने के लिए हर कोई खरीद नहीं सकता है। यदि तुमसे कोई पूछे: मानवजाति के पूर्वजों के द्वारा पहना गया वस्त्र का पहला टुकड़ा क्या था? तुम उत्तर दे सकते हो: यह एक रोएँदार कोट था। यह रोएँदार कोट किसने बनाया था? तुम आगे प्रत्युत्तर दे सकते हो: परमेश्वर ने इसे बनाया था! यही मुख्य बिन्दु है: इस वस्त्र को परमेश्वर के द्वारा बनाया गया था। क्या यह ऐसी चीज़ नहीं है जो ध्यान देने के योग्य है? फिलहाल मैंने अभी-अभी इसका वर्णन किया है, क्या तुम्हारे मनों में एक छवि उभर कर आई है? इसकी कम से कम एक अनुमानित रुपरेखा होनी चाहिए। आज तुम लोगों को बताने का बिन्दु यह नहीं है कि तुम लोग जानो कि मनुष्य के वस्त्र का पहला टुकड़ा क्या था। तो फिर बिन्दु क्या है? यह बिन्दु रोएँदार कोट नहीं है, परन्तु यह है कि परमेश्वर के द्वारा प्रकट किए गए स्वभाव एवं अस्तित्व एवं व्यावहारिक सम्पदाओं (गुणों) को कैसे जाने जब वह यह कार्य कर रहा था।
      "और यहोवा परमेश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिए चमड़े के अँगरखे बनाकर उनको पहिना दिए," इसकी छवि में परमेश्वर किस प्रकार की भूमिका निभाता है जब वह आदम और हव्वा के साथ है? मात्र दो मानव प्राणियों के साथ एक संसार में परमेश्वर किस प्रकार की भूमिका में प्रकट होता है? परमेश्वर की भूमिका के रूप में? हौंग कौंग के भाइयों एवं बहनों, कृपया उत्तर दीजिए। (एक पिता की भूमिका के रूप में।) दक्षिण कोरिया के भाइयों एवं बहनों, तुम लोग क्या सोचते हो कि परमेश्वर किस प्रकार की भूमिका में प्रकट होता है? (परिवार के मुखिया।) ताइवान के भाइयों एवं बहनों, तुम लोग क्या सोचते हो? (आदम और हव्वा के परिवार में किसी व्यक्ति की भूमिका, परिवार के एक सदस्य की भूमिका।) तुम लोगों में से कुछ सोचते हैं कि परमेश्वर आदम और हव्वा के परिवार के एक सदस्य के रूप में प्रकट होता है, जबकि कुछ कहते हैं कि परमेश्वर परिवार के एक मुखिया के रूप में प्रकट होता है और अन्य लोग कहते हैं एक पिता के रूप में। इनमें से सब बिलकुल उपयुक्त हैं। लेकिन वह क्या है जिस तक मैं पहुँच रहा हूँ? परमेश्वर ने इन दो लोगों की सृष्टि की और उनके साथ अपने सहयोगियों के समान व्यवहार किया था। उनके एकमात्र परिवार के समान, परमेश्वर ने उनके रहन-सहन का ख्याल रखा और और उनकी मूलभूत आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा। यहाँ, परमेश्वर आदम और हव्वा के माता-पिता के रूप में प्रकट होता है। जब परमेश्वर यह करता है, मनुष्य नहीं देखता कि परमेश्वर कितना ऊंचा है; वह परमेश्वर की सबसे ऊँची सर्वोच्चता, उसकी रहस्यमयता को नहीं देखता है, और ख़ासकर उसके क्रोध या प्रताप को नहीं देखता है। जो कुछ वह देखता है वह परमेश्वर की नम्रता, उसका स्नेह, मनुष्य के लिए उसकी चिंता और उसके प्रति उसकी ज़िम्मेदारी एवं देखभाल है। वह मनोवृत्ति एवं तरीका जिसके अंतर्गत परमेश्वर आदम और हव्वा के साथ व्यवहार करता है वह इसके समान है कि किस प्रकार मानवीय माता-पिता अपने बच्चों के लिए चिंता करते हैं। यह इसके समान भी है कि किस प्रकार मानवीय माता-पिता अपने पुत्र एवं पुत्रियों से प्रेम करते हैं, उन पर ध्यान देते हैं, और उनकी देखरेख करते हैं—वास्तविक, दृश्यमान, और स्पर्शगम्य। अपने आपको एक ऊँचे एवं सामर्थी पद पर रखने के बजाए, परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से मनुष्य के लिए पहरावा बनाने के लिए चमड़ों का उपयोग किया था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उनकी लज्जा को छुपाने के लिए या उन्हें ठण्ड से बचाने के लिए इस रोएँदार कोट का उपयोग किया गया था। संक्षेप में, यह पहरावा जो मनुष्य के शरीर को ढंका करता था उसे परमेश्वर के द्वारा उसके अपने हाथों से बनाया गया था। इसे सरलता से विचार के माध्यम से या चमत्कारीय तरीके से बनाने के बजाय जैसा लोग सोचते हैं, परमेश्वर ने वैधानिक तौर पर कुछ ऐसा किया जिसके विषय में मनुष्य सोचता है कि परमेश्वर नहीं कर सकता था और उसे नहीं करना चाहिए था। यह एक साधारण कार्य हो सकता है कि कुछ लोग यहाँ तक सोचें कि यह जिक्र करने के लायक भी नहीं है, परन्तु यह उन सब को अनुमति भी देता है जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं परन्तु उसके विषय में पहले अस्पष्ट विचारों से भरे हुए थे कि वे उसकी विशुद्धता एवं मनोहरता में अन्तःदृष्टि प्राप्त करें, और उसके विश्वासयोग्य एवं दीन स्वभाव को देखें। यह अत्यधिक अभिमानी लोगों को, जो सोचते हैं कि वे ऊँचे एवं शक्तिशाली हैं, परमेश्वर की विशुद्धता एवं विनम्रता के सामने लज्जा से अपने अहंकारी सिरों को झुकाने के लिए मजबूर करता है। यहाँ, परमेश्वर की विशुद्धता एवं विनम्रता लोगों को यह देखने के लिए और अधिक योग्य बनाती है कि परमेश्वर कितना प्यारा है। इसके विपरीत, "असीम" परमेश्वर, "प्यारा" परमेश्वर और "सर्वशक्तिमान" परमेश्वर लोगों के हृदय में कितना छोटा, एवं नीरस है, और एक प्रहार को भी सहने में असमर्थ है। जब तुम इस वचन को देखते हो और इस कहानी को सुनते हो, तो क्या तुम परमेश्वर को नीचा देखते हो क्योंकि उसने एक ऐसा कार्य किया था? शायद कुछ लोग सोचें, लेकिन दूसरों के लिए यह पूर्णत: विपरीत होगा। वे सोचेंगे कि परमेश्वर विशुद्ध एवं प्यारा है, यह बिलकुल परमेश्वर की विशुद्धता एवं विनम्रता है जो उन्हें द्रवित करती है। जितना अधिक वे परमेश्वर के वास्तविक पहलू को देखते हैं, उतना ही अधिक वे परमेश्वर के प्रेम के सच्चे अस्तित्व की, अपने हृदय में परमेश्वर के महत्व की, और वह किस प्रकार हर घड़ी उनके बगल में खड़ा होता है उसकी सराहना कर सकते हैं।

इस बिन्दु पर, हमें हमारी बातचीत को वर्तमान से जोड़ना चाहिए। यदि परमेश्वर मनुष्यों के लिए ये विभिन्न छोटी छोटी चीज़ें कर सकता था जिन्हें उसने बिलकुल शुरुआत में सृजा था, यहाँ तक कि ऐसी चीज़ें भी जिनके विषय में लोग कभी सोचने या अपेक्षा करने की हिम्मत भी नहीं करेंगे, तो क्या परमेश्वर आज के लोगों के लिए ऐसी चीज़ें करेगा? कुछ लोग कहते हैं, "हाँ!" ऐसा क्यों है? क्योंकि परमेश्वर का सार जाली नहीं है, उसकी मनोहरता जाली नहीं है। क्योंकि परमेश्वर का सार सचमुच में अस्तित्व में है और यह ऐसी चीज़ नहीं है जिसे दूसरों के द्वारा मिलाया गया है, और निश्चित रूप से ऐसी चीज़ नहीं है जो समय, स्थान एवं युगों में परिवर्तन के साथ बदलता जाता है। परमेश्वर की विशुद्धता एवं मनोहरता को कुछ ऐसा करने के द्वारा सामने लाया जा सकता है जिसे लोग सोचते हैं कि साधारण एवं मामूली है, ऐसी चीज़ जो बहुत छोटी है कि लोग सोचते भी नहीं हैं कि वह कभी करेगा। परमेश्वर अभिमानी नहीं है। उसके स्वभाव एवं सार में कोई अतिशयोक्ति, छद्मवेश, गर्व, या अहंकार नहीं है। वह कभी डींगें नहीं मारता है, बल्कि इसके बजाए प्रेम करता है, चिंता करता है, ध्यान देता है, और मानव प्राणियों की अगुवाई करता है जिन्हें उसने विश्वासयोग्यता एवं ईमानदारी से बनाया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि लोग इसमें से कितनी चीज़ों की सराहना, एवं एहसास कर सकते हैं, या देख सकते हैं, क्योंकि परमेश्वर निश्चय ही इन चीज़ों को कर रहा है। क्या यह जानना कि परमेश्वर के पास ऐसा सार है उसके लिए लोगों के प्रेम को प्रभावित करेगा? क्या यह परमेश्वर के विषय में उनके भय को प्रभावित करेगा? मैं आशा करता हूँ कि जब तुम परमेश्वर के वास्तविक पहलु को समझ जाते हो तो तुम उसके और भी करीब हो एँजाओगे और तुम मानवजाति के प्रति उसके प्रेम एवं देखभाल की सचमुच में और भी अधिक सराहना करने के योग्य होगे, जबकि ठीक उसी समय तुम अपना हृदय भी परमेश्वर को देते हो और आगे से तुम्हारे पास उसके प्रति कोई सन्देह या शंका नहीं होती है। परमेश्वर मनुष्य के लिए सबकुछ चुपचाप कर रहा है, वह यह सब अपनी ईमानदारी, विश्वासयोग्यता एवं प्रेम के जरिए खामोशी से कर रहा है। लेकिन उन सब के लिए जिसे वह करता है उसे कभी कोई शंका या खेद नहीं हुआ, न ही उसे कभी आवश्यकता हुई कि कोई उसे किसी रीति से बदले में कुछ दे या न ही उसके पास कभी मानवजाति से कोई चीज़ प्राप्त करने के इरादे हैं। वह सब कुछ जो उसने हमेशा किया है उसका एकमात्र उद्देश्य यह है ताकि वह मानवजाति के सच्चे विश्वास एवं प्रेम को प्राप्त कर सके।
"वचन देह में प्रकट होता है" सेऔर पढ़ें
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सोमवार, 27 मई 2019

परमेश्वर है मनुष्य का अनंत सहारा



  • I
  • फिर जी उठा यीशु मगर,
  • था इन्सान के साथ उसका काम और दिल।
  • अपने प्रकटन के ज़रिये उसने इन्सान को बताया
  • रूप चाहे हो जो भी, पर रहेगा वो उनके साथ ही।
  • वो चलेगा उनके साथ,
  • रहेगा साथ वो हर जगह, हर समय,
  • करेगा आपूर्ति और चरवाही, देगा उन्हें खुद को देखने और छूने,
  • ताकि न हों असहाय वे फिर कभी, वे फिर कभी।
  • अपने पुनरुत्थान के बाद यीशु ने दिखाई
  • इन्सान के लिए परमेश्वर की आशा और चिंता,
  • और दिखाया कि परमेश्वर करता इन्सान की परवाह और उसे है संजोता।
  • यह तो है पहले जैसा, और कभी नहीं है बदला।
  • II
  • यीशु चाहता था कि लोग जानें
  • कि नहीं हैं वे इस दुनिया में अकेले।
  • उनकी परवाह करता परमेश्वर, है वो उनके साथ में,
  • उस पर वे सदा आसरा रख सकते हैं।
  • अपने हर अनुयायी का वो परिवार है।
  • परमेश्वर के आसरे, इन्सान न कमज़ोर, न अकेला है।
  • जो उसे पाप-बलि के रूप में स्वीकार करते हैं।
  • वो पाप के बंधन में और न रहेंगे।
  • III
  • जी उठने के बाद इन्सान के वास्ते,
  • यीशु के काम देखने में लगते थे छोटे।
  • लेकिन परमेश्वर के लिए उनके अर्थ थे बड़े,
  • उनके मूल्य और महत्व भी थे बड़े।
  • परमेश्वर जो करता है आरम्भ, उसे खत्म भी वही करता है।
  • भिन्न चरण और योजनायें, दिखाते हैं उसकी बुद्धि,
  • वो दिखाते हैं उसके महान कर्म और सर्वसामर्थता उसकी,
  • और दिखाते हैं उसका प्रेम और दया भी।
  • IV
  • परमेश्वर के काम में सबसे मुख्य है
  • कि वो इन्सान की बहुत परवाह करता है,
  • और उसके लिए सच में है वो चिंता से भरा।
  • ये हैं भावनाएं ऐसी जिन्हें वो अनदेखा नहीं कर सकता, कर सकता।
  • अपने पुनरुत्थान के बाद यीशु ने दिखाई
  • इन्सान के लिए परमेश्वर की आशा और चिंता,
  • और दिखाया कि परमेश्वर करता इन्सान की परवाह और उसे है संजोता।
  • यह तो है पहले जैसा, और कभी नहीं है बदला,
  • नहीं है बदला, नहीं है बदला, नहीं है बदला।
  •  
  • "वचन देह में प्रकट होता है" से

      चमकती पूर्वी बिजली, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया का सृजन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रकट होने और उनका काम, परमेश्वर यीशु के दूसरे आगमन, अंतिम दिनों के मसीह की वजह से किया गया था। यह उन सभी लोगों से बना है जो अंतिम दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करते हैं और उसके वचनों के द्वारा जीते और बचाए जाते हैं। यह पूरी तरह से सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से स्थापित किया गया था और चरवाहे के रूप में उन्हीं के द्वारा नेतृत्व किया जाता है। इसे निश्चित रूप से किसी मानव द्वारा नहीं बनाया गया था। मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है। परमेश्वर की भेड़ परमेश्वर की आवाज़ सुनती है। जब तक आप सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, आप देखेंगे कि परमेश्वर प्रकट हो गए हैं।

रविवार, 5 मई 2019

तुम सच्चे मसीह और झूठे मसीहों के बीच अंतर को कैसे बता सकते हो?

अध्याय 6 विभेदन के कई रूप जिन्हें परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में तुम्हें धारण करना चाहिए

      3. तुम सच्चे मसीह और झूठे मसीहों के बीच अंतर को कैसे बता सकते हो?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

      परमेश्वर देहधारी हुआ और मसीह कहलाया, और इसलिए वह मसीह, जो लोगों को सत्य दे सकता है, परमेश्वर कहलाता है। इसके बारे में और कुछ भी अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह परमेश्वर के तत्व को स्वयं में धारण किए रहता है, और अपने कार्य में परमेश्वर के स्वभाव और बुद्धि को धारण करता है, और ये चीजें मनुष्य के लिये अप्राप्य हैं। जो अपने आप को मसीह कहते हैं, फिर भी परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकते, वे सभी धोखेबाज़ हैं। मसीह पृथ्वी पर केवल परमेश्वर की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि वह देह है जिसे धारण करके परमेश्वर लोगों के बीच रहकर कार्य पूर्ण करता है। यह वह देह नहीं है जो किसी भी मनुष्य के द्वारा प्रतिस्थापित कियाजा सके, बल्कि वह देह है, जो परमेश्वर के कार्य को पृथ्वी पर अच्छी तरह से करता है और परमेश्वर के स्वभाव को अभिव्यक्त करता है, और अच्छी प्रकार से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है, और मनुष्य को जीवन प्रदान करता है। कभी न कभी, उन धोखेबाज़ मसीह का पतन होगा, हालांकि वे मसीह होने का दावा करते हैं, किंतु उनमें किंचितमात्र भी मसीह का सार-तत्व नहीं होता। इसलिए मैं कहता हूं कि मसीह की प्रमाणिकता मनुष्य के द्वारा परिभाषित नहीं की जा सकती है, परन्तु स्वयं परमेश्वर के द्वारा उत्तर दिया और निर्णय लिया जा सकता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल अंतिम दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनन्त जीवन का मार्ग दे सकता है" से

      जो देहधारी परमेश्वर है, वह परमेश्वर का सार धारण करेगा, और जो देहधारी परमेश्वर है, वह परमेश्वर की अभिव्यक्ति धारण करेगा। चूँकि परमेश्वर देहधारी हुआ, वह उस कार्य को प्रकट करेगा जो उसे अवश्य करना चाहिए, और चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया, तो वह उसे अभिव्यक्त करेगा जो वह है, और मनुष्यों के लिए सत्य को लाने के समर्थ होगा, मनुष्यों को जीवन प्रदान करने, और मनुष्य को मार्ग दिखाने में सक्षम होगा। जिस शरीर में परमेश्वर का सार नहीं है, निश्चित रूप से वह देहधारी परमेश्वर नहीं है; इस बारे में कोई संदेह नहीं है। यह पता लगाने के लिए कि क्या यह देहधारी परमेश्वर है, मनुष्य को इसका निर्धारण उसके द्वारा अभिव्यक्त स्वभाव से और उसके द्वारा बोले वचनों से अवश्य करना चाहिए। कहने का अभिप्राय है, कि वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है या नहीं, और यह सही मार्ग है या नहीं, इसे परमेश्वर के सार से तय करना चाहिए। और इसलिए, यह निर्धारित करने[क] में कि यह देहधआरी परमेश्वर का शरीर है या नहीं, बाहरी रूप-रंग के बजाय, उसके सार (उसका कार्य, उसके वचन, उसका स्वभाव और बहुत सी अन्य बातें) पर ध्यान देना ही कुंजी है। यदि मनुष्य केवल उसके बाहरी रूप-रंग को ही देखता है, उसके तत्व की अनदेखी करता है, तो यह मनुष्य की अज्ञानता और उसके अनाड़ीपन को दर्शाता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "प्रस्तावना" से

      देहधारी परमेश्वर मसीह कहलाता है, तथा मसीह परमेश्वर के आत्मा के द्वारा धारण किया गया देह है। यह देह किसी भी मनुष्य की देह से भिन्न है। यह भिन्नता इसलिए है क्योंकि मसीह मांस तथा खून से बना हुआ नहीं है बल्कि आत्मा का देहधारण है। उसके पास सामान्य मानवता तथा पूर्ण परमेश्वरत्व दोनों हैं। उसकी दिव्यता किसी भी मनुष्य द्वारा धारण नहीं की जाती है। उसकी सामान्य मानवता देह में उसकी समस्त सामान्य गतिविधियों को बनाए रखती है, जबकि दिव्यता स्वयं परमेश्वर के कार्य करती है। चाहे यह उसकी मानवता हो या दिव्यता, दोनों स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति समर्पित हैं। मसीह का सार पवित्र आत्मा, अर्थात्, दिव्यता है। इसलिए, उसका सार स्वयं परमेश्वर का है; यह सार उसके स्वयं के कार्य में बाधा उत्पन्न नहीं करेगा, तथा वह संभवतः कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकता है जो उसके स्वयं के कार्य को नष्ट करता हो, ना वह ऐसे वचन कहेगा जो उसकी स्वयं की इच्छा के विरूद्ध जाते हों।



       यद्यपि मसीह देह में परमेश्वर स्वयं का प्रतिनिधित्व करता है तथा व्यक्तिगत रूप में वह कार्य करता है जिसे परमेश्वर स्वयं को करना चाहिए, किन्तु वह स्वर्ग में परमेश्वर के अस्तित्व को नहीं नकारता है, ना ही वह उत्तेजनापूर्वक अपने स्वयं के कर्मों की घोषणा करता है। बल्कि, वह विनम्रतापूर्वक अपनी देह के भीतर छिपा रहता है। मसीह के अलावा, जो मसीह होने का झूठा दावा करते हैं उनके पास उसकी विशेषताएँ नहीं होती हैं। अभिमानी तथा आत्म-प्रशंसा करने के स्वभाव वाले झूठे मसीहों से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार की देह में वास्तव में मसीह है। जितने अधिक वे झूठे होते हैं, उतना ही अधिक इस प्रकार के झूठे मसीहे स्वयं का दिखावा करते हैं, तथा लोगों को धोखा देने के लिये वे और अधिक संकेतों और चमत्कारों को करने में समर्थ होते हैं। झूठे मसीहों के पास परमेश्वर के गुण नहीं होते हैं; मसीह पर झूठे मसीहों से संबंधित किसी भी तत्व का दाग नही लगता है। परमेश्वर केवल देह का कार्य पूर्ण करने के लिये देहधारी होता है, मात्र सब मनुष्यों को उसे देखने देने की अनुमति देने के लिए नहीं। बल्कि, वह अपने कार्य से अपनी पहचान की पुष्टि होने देता है, तथा जो वह प्रकट करता है उसे अपने सार को प्रमाणित करने की अनुमति देता है। उसका सार निराधार नहीं है; उसकी पहचान उसके हाथ द्वारा जब्त नहीं की गई है; यह उसके कार्य तथा उसके सार द्वारा निर्धारित की जाती है।

      मसीह का कार्य तथा अभिव्यक्ति उसके सार को निर्धारित करते हैं। वह अपने सच्चे हृदय से उस कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है जो उसे सौंपा गया है। वह सच्चे हृदय से स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है, तथा सच्चे हृदय से परमपिता परमेश्वर की इच्छा खोजने में सक्षम है। यह सब उसके सार द्वारा निर्धारित किया जाता है। और इसी प्रकार से उसका प्राकृतिक प्रकाशन भी उसके सार द्वारा निर्धारित किया जाता है; उसके स्वाभाविक प्रकाशन का ऐसा कहलाना इस वजह से है कि उसकी अभिव्यक्ति कोई नकल नहीं है, या मनुष्य द्वारा शिक्षा का परिणाम, या मनुष्य द्वारा अनेक वर्षों संवर्धन का परिणाम नहीं है। उसने इसे सीखा या इससे स्वयं को सँवारा नहीं; बल्कि, यह उसके अन्दर अंतर्निहित है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का वास्तविक सार है" से

      यदि, वर्तमान समय में, कोई व्यक्ति उभर कर आता है जो चिह्नों और चमत्कारों को प्रदर्शित करने, पिशाचों को निकालने, और चंगाई करने में और कई चमत्कारों को करने में समर्थ है, और यदि यह व्यक्ति दावा करता है कि यह यीशु का आगमन है, तो यह दुष्टात्माओं की जालसाजी और उसका यीशु की नकल करना होगा। इस बात को स्मरण रखें! परमेश्वर एक ही कार्य को दोहराता नहीं है। यीशु के कार्य का चरण पहले ही पूर्ण हो चुका है, और परमेश्वर फिर से उस चरण के कार्य को पुनः नहीं दोहराएगा। परमेश्वर का कार्य मनुष्य की सभी अवधारणाओं के असंगत है; उदाहरण के लिए, पुराने नियम में मसीहा के आगमन के बारे में पहले से ही बताया गया है, परन्तु यह पाया गया कि यीशु आया, इसलिए एक अन्य मसीहा का फिर से आना गलत होगा। यीशु एक बार आ चुका है, और इस समय यदि यीशु को फिर से आना होता तो यह गलत होता। प्रत्येक युग के लिए एक नाम है और प्रत्येक नाम युग के द्वारा चिन्हित किया जाता है। मनुष्य की अवधारणाओं में, परमेश्वर को अवश्य हमेशा चिह्न और चमत्कार दिखाने चाहिए, हमेशा चंगा करना और पिशाचों को निकालना चाहिए, और हमेशा यीशु के ही समान अवश्य होना चाहिए, फिर भी इस समय परमेश्वर इन सब के समान बिल्कुल भी नहीं है। यदि अंत के दिनों के दौरान, परमेश्वर अभी भी चिह्नों और चमत्कारों को प्रदर्शित करता है और अभी भी दुष्टात्माओं को निकालता और चंगा करता है—यदि वह यीशु के ही समान करता है—तो परमेश्वर एक ही कार्य को दोहरा रहा होगा, और यीशु के कार्य का कोई महत्व या मूल्य नहीं होगा। इस प्रकार, प्रत्येक युग में परमेश्वर कार्य के एक ही चरण को करता है। एक बार जब उसके कार्य का प्रत्येक चरण पूरा हो जाता है, तो शीघ्र ही इसकी दुष्टात्माओं के द्वारा नकल की जाती है, और शैतान द्वारा परमेश्वर का करीब से पीछा करने के बाद, परमेश्वर एक दूसरे तरीके में बदल देता है; एक बार परमेश्वर अपने कार्य का एक चरण पूर्ण कर लेता है, तो इसकी दुष्टात्माओं द्वारा नकल कर ली जाती है। तुम लोगों को इन बातों के बारे में अवश्य स्पष्ट हो जाना चाहिए।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "आज परमेश्वर के कार्य को जानना" से

      कुछ ऐसे लोग हैं जो दुष्टात्माओं के द्वारा ग्रसित हैं और लगातार चिल्लाते रहते हैं, "मैं ईश्वर हूँ!" फिर भी अंत में, वे खड़े नहीं रह सकते हैं, क्योंकि वे गलत प्राणी की ओर से काम करते हैं। वे शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं और पवित्र आत्मा उन पर कोई ध्यान नहीं देता है। तुम अपने आपको कितना भी बड़ा ठहराओ या तुम कितनी भी ताकत से चिल्लाओ, तुम अभी भी एक सृजित प्राणी ही हो और एक ऐसे प्राणी हो जो शैतान से सम्बन्धित है। मैं कभी नहीं चिल्लाता हूँ, कि मैं ईश्वर हूँ, मैं परमेश्वर का प्रिय पुत्र हूँ! परन्तु जो कार्य मैं करता हूँ वह परमेश्वर का कार्य है। क्या मुझे चिल्लाने की आवश्यकता है? बड़ा ठहराने की कोई आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर अपना काम स्वयं करता है और उसे मनुष्य से कोई आवश्यकता नहीं है कि वह उसे हैसियत या सम्मानसूचक पदवी प्रदान करें, और उसकी पहचान और हैसियत को दर्शाने के लिए उसका काम ही पर्याप्त है। उसके बपतिस्मा से पहले, क्या यीशु स्वयं परमेश्वर नहीं था? क्या वह परमेश्वर का देहधारी देह नहीं था? निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि केवल उसके लिए गवाही दिए जाने के पश्चात् ही वह परमेश्वर का इकलौता पुत्र बना गया? क्या उसके द्वारा काम आरम्भ करने से बहुत पहले ही यीशु नाम का कोई व्यक्ति नहीं था? तुम नए मार्ग नहीं ला सकते हो या पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हो। तुम पवित्र आत्मा के कार्य को या उन वचनों को व्यक्त नहीं कर सकते हो जिन्हें वह कहता है। तुम परमेश्वर स्वयं के या पवित्रात्मा के कार्य को नहीं कर सकते हो। तुम परमेश्वर की बुद्धि, अद्भुत काम, और अगाधता को, या उस सम्पूर्ण स्वभाव को व्यक्त नहीं कर सकते हो जिसके द्वारा परमेश्वर मनुष्य को ताड़ना देता है। अतः परमेश्वर होने के तुम्हारे बार-बार के दावों से कोई फर्क नहीं पड़ता है; तुम्हारे पास सिर्फ़ नाम है और सार में से कुछ भी नहीं है। परमेश्वर स्वयं आ गया है, किन्तु कोई भी उसे नहीं पहचाता है, फिर भी वह अपना काम जारी रखता है और पवित्र आत्मा के प्रतिनिधित्व में ऐसा ही करता है। चाहे तुम उसे मनुष्य कहो या परमेश्वर, प्रभु कहो या मसीह, या उसे बहन कहो, सब सही है। परन्तु जिस कार्य को वह करता है वह पवित्रात्मा का है और स्वयं परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। वह उस नाम के बारे में परवाह नहीं करता है जिसके द्वारा मनुष्य उसे पुकारते है। क्या वह नाम उसके काम का निर्धारण कर सकता है? इस बात की परवाह किए बिना कि तुम उसे क्या कहते हो, परमेश्वर के दृष्टिकोण से, वह परमेश्वर के आत्मा का देहधारी देह है; वह पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व करता है और उसके द्वारा अनुमोदित है। तुम एक नए युग के लिए मार्ग नहीं बना सकते हो, और तुम पुराने युग का समापन नहीं कर सकते हो और एक नए युग का सूत्रपात या नया कार्य नहीं कर सकते हो। इसलिए, तुम्हें परमेश्वर नहीं कहा जा सकता है!

       "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (1)" से

      यदि कोई मनुष्य अपने आप को परमेश्वर कहता हो मगर अपनी दिव्यता को व्यक्त करने में, परमेश्वर स्वयं का कार्य करने में, या परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ हो, तो वह निसंदेह ही परमेश्वर नहीं है, क्योंकि उसमें परमेश्वर का सार नहीं है, और परमेश्वर जो अंतर्निहित रूप से प्राप्त कर सकता है वह उसके भीतर विद्यमान नहीं है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर" से

      उन झूठे मसीहाओं, झूठे भविष्यवक्ताओं और धोखेबाजों के मध्य, क्या ऐसे लोग भी नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर कहा जाता है? और क्यों वे परमेश्वर नहीं हैं? क्योंकि वे परमेश्वर का कार्य करने में असमर्थ हैं। मूल में वे मनुष्य ही हैं, लोगों को धोखा देने वाले हैं, न कि परमेश्वर; और इस प्रकार उनके पास परमेश्वर की पहचान नहीं है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "पद नामों एवं पहचान के सम्बन्ध में" से

मनुष्य की सहभागिता:

      हम सब ने जिन्होंने अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है एक तथ्य को स्पष्ट रूप से देखा हैः प्रत्येक बार जब परमेश्वर कार्य के नए चरण को करता है, शैतान और उसकी विभिन्न दुष्ट आत्माएँ, लोगों को बहकाने के लिए उसके कार्य का अनुकरण करते हुए और उसे झूठा ठहराते हुए, उसके कदमों के निशानों का अनुसरण करती हैं। यीशु ने चंगा किया, और दुष्ट आत्माओं को निकाला, और इसलिए, शैतान और दुष्ट आत्माएँ भी चंगा करती हैं और दुष्ट आत्माओं को निकालती हैं; पवित्र आत्मा ने मनुष्य को भाषाओं का वरदान दिया, और इसलिए, दुष्ट आत्माएँ भी लोगों से "भाषाएँ" बुलवाती हैं जिसे कोई नहीं समझता है। और फिर भी, यद्यपि दुष्ट आत्माएँ विभिन्न चीज़ों को करती हैं जो मनुष्य की जरूरतों में बढ़ावा देती हैं, और उसे ठगने के लिए कुछ अलौकिक क्रियाएँ करती हैं, क्योंकि न तो शैतान के पास और न ही दुष्ट आत्माओं के पास थोड़ा सा भी सत्य है, इसलिए वे कभी भी मनुष्य को सत्य देने में समर्थ नहीं होंगी। केवल इस बिन्दु से ही सच्चे मसीह और झूठे मसीहों के बीच अंतर करना संभव है।

      ...देह में साकार हो कर, परमेश्वर का आत्मा विनम्रता से और गुप्त रूप से कार्य करता है, और जरा सी भी शिकायत के बिना मनुष्य की सारी पीड़ा का अनुभव करता है। मसीह के रूप में, परमेश्वर ने अपने आप में कभी इतराहट नहीं दिखाई है, या शेखी नहीं बघारी है, और उसने अपने पद का घमंड तो बिल्कुल भी नहीं किया है, या आत्मतुष्ट नहीं हुआ है, जो परमेश्वर की आदरणीयता और पवित्रता को पूरी तरह से जगमगाता है। यह परमेश्वर के जीवन के सर्वोच्च आदरणीय सार को प्रदर्शित करता है, और यह दर्शाता है कि वह प्रेम का मूर्त रूप है। झूठे मसीहों एवं दुष्ट आत्माओं का कार्य मसीह के कार्य के बिल्कुल विपरीत हैः किसी भी अन्य चीज़ से पहले, दुष्ट आत्माएँ हमेशा चिल्लाती हैं कि वे मसीह हैं, और वे कहती हैं कि यदि तुम उनकी बातों को नहीं सुनते हो तो तुम राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते हो। लोग उन से मुलाकात करें इसके लिए वे वह सब कुछ करती हैं जो वे कर सकती हैं, वे शेखी बघारती हैं, स्वयं में इतराती हैं, और डींग मारती हैं, या फिर लोगों को ठगने के लिए कुछ चिन्हों अद्भुत कामों को करती हैं—और जब इन लोगों को ठग दिया जाता है तथा ये लोग उनका काम स्वीकार कर लेते हैं, तो उसके बाद वे बिना कानाफूसी किए एकाएक ढह जाते हैं क्योंकि उन्हें सत्य प्रदान किए हुए काफी समय बीत चुका है। इसके अनेकानेक उदाहरण हैं। क्योंकि झूठे मसीह सत्य, मार्ग और जीवन नहीं हैं, इसलिए उनके पास कोई मार्ग नहीं है, और जो उनका अनुसरण करते हैं वे आज नहीं तो कल अपमानित किए जाएँगे — किन्तु तब तक वापस जाने के लिए बहुत देर हो जाएगी। और इसलिए, यह एहसास करना सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि केवल मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है। झूठे मसीह एवं दुष्ट आत्माएँ निश्चित रूप से सत्य से विहीन हैं; इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे कितना कहते हैं, या वे कितनी पुस्तकें लिखते हैं, उन में से किसी में भी थोड़ा सा भी सत्य नहीं है। यह परम सिद्धांत है। केवल मसीह ही सत्य को व्यक्त करने में समर्थ है, और यह सच्चे मसीह एवं झूठे मसीहों के बीच अंतर करने की कुंजी है। इतना ही नहीं, मसीह ने कभी भी लोगों को उसे अभिस्वीकृत करने या पहचानने के लिए बाध्य नहीं किया। क्योंकि जो उस पर विश्वास करते हैं, उनके लिए सत्य और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है, और जिस मार्ग पर वे चलते हैं वह और भी अधिक प्रकाशमान हो जाता है, जिससे यह साबित होता है कि केवल मसीह ही लोगों को बचाने में समर्थ है, क्योंकि मसीह ही सत्य है। झूठे मसीह केवल कुछ वचनों की ही नक़ल कर सकते हैं, या ऐसी बातें कह सकते हैं जो काले को सफेद में मरोड़ती हैं। वे सत्य से रहित हैं, और वे लोगों के लिए केवल अंधकार, विनाश एवं दुष्ट आत्माओं के कार्य ला सकती हैं।

      "झूठे मसीह एवं मसीह विरोधियों के द्वारा बहकाने के मामलों के सूक्ष्म परीक्षण की प्रस्तावना" से

      झूठे मसीहों को कैसे पहचाना जा सकता है? यह बहुत सरल है। तुम उन से कहो: "जारी रहो, बात करो। तुम्हें क्या चीज मसीह बनाती है? कुछ कहो कि परमेश्वर का स्वरूप कैसा है, और यदि तुम इसे नहीं कह सकते हो, तो लिख कर बताना भी ठीक है? दिव्यता द्वारा व्यक्त किए गए कुछ वचनों को बताओ—जारी रहो, मेरे लिए कुछ लिखो। तुम्हें मानवता के कुछ वचनों की नक़ल करने में कोई समस्या नहीं है। कुछ और कहो, तीन घण्टे तक बोलो और देखो कि क्या तुम ऐसा कर सकते हो। मेरे साथ तीन घण्टे तक सत्य की संगति करो, परमेश्वर क्या है उसके बारे में, और उसके कार्य के इस चरण के बारे में बात करो, मेरे लिए स्पष्ट रूप से बोलो, इसकी कोशिश करो और देखो। और यदि तुम नहीं बोल सकते हो, तो तुम नकली हो, और एक दुष्ट आत्मा हो। सच्चा मसीह कई दिनों तक बिना किसी समस्या के बोल सकता है, और सच्चे मसीह ने लाखों से भी अधिक वचनों को व्यक्त किया है—और उसने अभी तक समाप्त नहीं किया है। वह कितना बोल सकता है इसकी कोई सीमा नहीं है, वह किसी भी समय या किसी भी स्थान पर बोल सकता है, और संपूर्ण संसार में उसके वचनों को किसी भी मनुष्य के द्वारा लिखा नहीं जा सका है। क्या उन्हें किसी ऐसे के द्वारा लिखा जा सकता है जो दिव्य नहीं है? क्या ऐसा व्यक्ति इन वचनों को बोल सकता है? तुम जो झूठे मसीह हो दिव्यता से रहित हो, और तुम्हारे भीतर परमेश्वर का पवित्र आत्मा नहीं है। तुम परमेश्वर के वचनों को बोलने में कैसे समर्थ हो सकते हो? तुम परमेश्वर के कुछ वचनों की नक़ल कर सकते हो, किन्तु तुम इसके लिए कितनी दूर तक जा सकते हो? कोई भी व्यक्ति जिसके पास दिमाग है वह कुछ वचनों को स्मरण कर सकता है, इसलिए एक घण्टे तक बोलो, दो घण्टे तक सत्य की संगति करो—इसकी कोशिश करो और देखो|" यदि तुम उनके साथ इस प्रकार से डटे रहते हो, तो वे सभी को बेनकाब हो जाएँगे, वे सभी भौंचक्के हो जाएँगे, और वे भाग जाएँगे। क्या ऐसा मामला नहीं है? तुम लोग क्या कहते हो, क्या यह ऐसा ही नहीं है? उन से यह कहो: मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है, अतः मेरे सुनने, या पढ़ने के लिए मसीह की सच्चाईयों को व्यक्त करो। यदि तुम व्यक्त कर सकते हो, तो तुम मसीह हो, और यदि तुम व्यक्त नहीं कर सकते हो, तो तुम दुष्ट आत्मा हो! सच्चे मसीह और झूठे मसीहों के बीच अंतर बताना आसान है। झूठे मसीह और मसीह विरोधी सत्य से रहित होते हैं; जो कोई भी सत्य से सम्पन्न है वह मसीह है, और जिस किसी में भी सत्य का अभाव है वह मसीह नहीं है। क्या ऐसा मामला नहीं है। उनसे कहो: "यदि तुम व्यक्त नहीं कर सकते हो कि मसीह क्या है, या परमेश्वर क्या है, और तुम कहते हो कि तुम मसीह हो, तो तुम झूठ बोल रहे हो। मसीह ही सत्य है—आओ देखें कि सत्य के कितने वचन तुम व्यक्त कर सकते हो। यदि तुम कुछ ही वचनों की नक़ल करते हो, तो तुम उन्हें जारी नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम मात्र उनकी नक़ल कर रहे हो। तुमने उन्हें चुराया है, वे एक नक़ल हैं|" अब तुम यही चाहते थे—झूठे मसीह को पहचानने के लिए बस इतना ही लगता है। ... आओ हम एक तथ्य के बारे में बात करें: जब परमेश्वर प्रकट हुआ तो वह कैसे प्रकट हुआ। जब परमेश्वर ने कार्य करना प्रारम्भ किया, तब उसने यह नहीं कहा कि वह परमेश्वर है, उसने ऐसा नहीं कहा। परमेश्वर ने कई वचन व्यक्त किए, और जब उसने लाखों वचन व्यक्त किए, तब भी उसने नहीं कहा कि वह परमेश्वर है। लाखों वचन—यह एक सम्पूर्ण पुस्तक है, तीन या चार सौ पन्ने—और तब भी उसने नहीं कहा कि वह परमेश्वर है। पवित्र आत्मा के द्वारा प्रबुद्ध एवं रोशन किए जाने के बाद, कुछ लोगों ने कहाः "आहा, ये परमेश्वर के वचन हैं, यह पवित्र आत्मा की आवाज़ है!" शुरूआत में, उनका मानना था कि यह पवित्र आत्मा की आवाज़ है; बाद में, उन्होंने कहा कि यह सात पवित्रात्माओं की, सात गुना तीव्र पवित्रात्मा की आवाज़ है। उन्होंने इसे "सात पवित्रात्माओं की आवाज़", या "पवित्र आत्मा के कथन" कहा था। यही उन्होंने प्रारम्भ में विश्वास किया था। केवल बाद में ही, जब परमेश्वर ने बहुत से वचन, लाखों वचन कहे, उसके बाद ही, उसने गवाही देनी आरंभ की कि देहधारण क्या है, और वचन का देह में प्रकट होना क्या है—और केवल तभी लोगों ने, यह कहते हुए, जानना आरम्भ किया: "आहा! परमेश्वर देह बन गया है। यह उस परमेश्वर का देहधारण है जो हम से बात करता है!" देखो परमेश्वर का कार्य कितना अदृष्ट और विनम्र है। अंततः, जब परमेश्वर ने अपने सभी वचनों को व्यक्त करना समाप्त कर दिया जो उसे अवश्य व्यक्त करने चाहिए थे, उसके बाद, जब उसने कार्य किया और उपदेश दिए, तब भी उसने नहीं कहा था कि वह परमेश्वर है, तब भी उसने कभी नहीं कहा कि, "मैं परमेश्वर हूँ! तुम लोगों को मुझे अवश्य सुनना चाहिए।" उसने कभी भी ऐसा नहीं बोला। फिर भी झूठे मसीह थोड़े से वचनों को कहने से पहले ही कहते हैं कि वे मसीह हैं। क्या वे नकली नहीं हैं? सच्चा परमेश्वर अदृष्ट एवं विनम्र है, और कभी भी अपने आप पर इतराता नहीं है; दूसरी ओर, शैतान और दुष्ट आत्माएँ, अपने आप पर इतराते हैं, जो कि उनको पहचानने का एक अन्य तरीका है।

      जीवन में प्रवेश के विषय में संगति एवं प्रवचन (I) में "प्रश्नों के उत्तर" से

      अब, यदि लोग तुम लोगों को ठगने की कोशिश करें, तो देखो कि वे परमेश्वर की आवाज़ हो व्यक्त करने में समर्थ हैं या नहीं। इससे इस बात की पुष्टि हो जाएगी कि वे दिव्य सार से संपन्न हैं या नहीं। यदि वे परमेश्वर के स्वरूप के बारे में बोलने में असमर्थ हैं, और परमेश्वर की चीज़ों एवं उसकी आवाज़ को व्यक्त करने में असमर्थ हैं, तो वे निश्चित रूप से परमेश्वर के सार से रहित हैं, और इसलिए वे नक़ली हैं। ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं: हमने कुछ लोगों को ऐसे वचन बोलते हुए सुना है जिसे कोई नहीं कह सकता है। वे भविष्यवाणी बोल सकते हैं, और बिना किसी घबराहट के चीज़ों के बारे में बोल सकते हैं जिन्हें कोई जान या देख नहीं सकता है—इसलिए क्या वे परमेश्वर हैं? जब ऐसे लोगों की बात आती है तो तुम लोग अंतर को कैसे बता सकते हो? जैसा कि अभी-अभी कहा गया है, यदि वे परमेश्वर हैं, तो उन्हें परमेश्वर के स्वरूप के बारे में बोलने में समर्थ अवश्य होना चाहिए, और परमेश्वर के राज्य के रहस्यों के बारे में बोलने में समर्थ अवश्य होना चाहिए; केवल ऐसे किसी को ही परमेश्वर का देहधारण होना कहा जा सकता है। यदि ऐसे लोग हैं जो ऐसी चीज़ों को बोलने में समर्थ हैं जिन्हें अन्य लोग नहीं जानते हैं, तो कौन उन्हें उनके भविष्य के बारे में बता सकता है, और कह सकता है कि उनके देशों का क्या होगा, ये आवश्यक रूप से परमेश्वर के वचन नहीं हैं; दुष्ट आत्माएँ भी ऐसी चीज़ों को करने में सक्षम होती हैं। उदाहरण के लिए, यदि आज तुम उन से कहो: "भविष्य में मेरे साथ क्या होगा?" तो वे तुम्हें बताएँगी कि किस प्रकार की आपदा तुम्हारे ऊपर आएगी, या वे तुम्हें बताएँगी कि तुम कब मरोगे, या अन्यथा वे तुम्हें बताएँगी कि तुम्हारे परिवार के साथ क्या होगा। बहुत से उदाहरणों में, ये चीज़ें सच में हो जाती हैं। किन्तु इस प्रकार की चीज़ों को बोलने में समर्थ होना वह होना नहीं है जो परमेश्वर है, न ही परमेश्वर के कार्य का एक भाग होना है। तुम्हें इस बिन्दु के विषय में स्पष्ट अवश्य हो जाना चाहिए। ये तुच्छ मामले हैं जिनमें दुष्ट आत्माओं को महारत हासिल है; परमेश्वर ऐसी चीज़ों में शामिल नहीं होता है। देखो कि हर बार जब भी परमेश्वर ने देहधारण किया है तो उसने क्या कार्य किया है। परमेश्वर मानवजाति को बचाने का कार्य करता है, वह यह भविष्यवाणी नहीं करता है कि लोगो के साथ क्या होगा, वे कितने समय तक जीवित रहेंगे, उनके कितने बच्चे होंगे, या कब उन पर विपत्ति आएगी। क्या परमेश्वर ने कभी ऐसी चीज़ों की भविष्यवाणी की है? उसने नहीं की है। अब, तुम लोग क्या कहते हो, क्या परमेश्वर ऐसी चीज़ों को जानता है? निस्संदेह वह जानता है, क्योंकि उसने आकाश और पृथ्वी और सभी चीज़ों को बनाया है। केवल परमेश्वर ही उन्हें भली-भाँति जानता है, जबकि जो कुछ दुष्ट आत्माएँ जानती हैं उसकी एक सीमा है। दुष्ट आत्माएँ क्या जानने में सक्षम हैं? दुष्ट आत्माएँ किसी व्यक्ति, या एक देश, या एक जाति की नियति को जानती हैं। किन्तु वे परमेश्वर के प्रबन्धन के बारे में कुछ नहीं जानती हैं, वे नहीं जानते हैं कि मानवजाति का अंत क्या है, या मानवजाति की सच्ची मंज़िल कहाँ है, और वे यह तो बिल्कुल भी नहीं जानती हैं कि कब संसार का अंत होगा और परमेश्वर के राज्य का आगमन होगा, या राज्य के सुन्दर दृश्य किस के समान होंगे। वे इस बारे में कुछ भी नहीं जानती हैं, उन में कोई भी नहीं जानता है। केवल परमेश्वर ही ऐसे मामलों को जानता है, और इसलिए परमेश्वर सर्वज्ञ है, जबकि जो दुष्ट आत्माएँ जानती हैं वह बहुत ही सीमित हैं। हम जानते हैं कि संसार के सबसे बड़े भविष्यद्वक्ताओं ने कहा था कि अंत के दिनों में क्या होगा, और आज उनके वचन पूरे हो गए हैं—किन्तु वे नहीं जानते थे कि अंत के दिनों के दौरान परमेश्वर कौन सा काम करता है, और इस बारे में तो वे बिल्कुल भी नहीं जानते थे कि परमेश्वर क्या प्राप्त करने आया है, या सहस्राब्दि राज्य किस प्रकार आएगा, या कौन परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करेगा और जीवित रहेगा। इसके अतिरिक्त, न ही वे इस बारे में कुछ जानते थे कि बाद में परमेश्वर के राज्य में क्या होगा। कोई दुष्ट आत्मा ऐसे मामलों को नहीं जानती है; केवल परमेश्वर स्वयं ही जानता है, और इसलिए दुष्ट आत्माएँ ऐसा कुछ भी जानने में पूरी तरह से अक्षम हैं जो परमेश्वर की प्रबन्धन योजना से संबंधित है। यदि तुम उन से कहो कि, "मेरी नियति क्या है? मेरे परिवार के साथ क्या होगा?" तो कुछ दुष्ट आत्माएँ तुम्हें स्पष्ट उत्तर देने में समर्थ होंगी। किन्तु यदि तुम उन से कहो कि, "भविष्य में, क्या परमेश्वर पर विश्वास में मुझे कोई मंज़िल मिलेगी? क्या मैं जीवित बचा रहूँगा?" तो उन्हें पता नहीं होगा। दुष्ट आत्माएँ जो कुछ जानती हैं उसमें वे बहुत ही सीमित होती हैं। यदि कोई दुष्ट आत्मा केवल कुछ सीमित चीज़ों को ही बोल सकती है, तो क्या वह परमेश्वर हो सकती है? वह नहीं हो सकती है—वह एक दुष्ट आत्मा है। जब कोई दुष्ट आत्मा लोगों से ऐसी चीज़ें कह सकती है जिन्हें वे नहीं जानते हैं, उनके भविष्य के बारे में उन्हें बता सकती है, और यहाँ तक कि यह भी बता सकती है कि वे किसके समान हुआ करते थे और उन चीज़ों के बारे में बता सकती है जो उन्होंने की हैं, यदि ऐसे लोग हैं जो यह सोचते हैं कि यह वास्तव में दिव्य है, तो क्या ऐसे लोग हास्यास्पद नहीं हैं? इस से यह साबित होता है कि तुम परमेश्वर के बारे में पूरी तरह से अनजान हो। तुम दुष्ट आत्माओं के छोटे-मोटे कौशलों को अत्यंत दिव्य के रूप में देखते हो, और उनके साथ परमेश्वर के जैसे बर्ताव करते हो। क्या तुम परमेश्वर की सर्वशक्ति को जानते हो? इसलिए, यदि आज हमारे पास परमेश्वर की सर्वशक्ति और उसके कार्य का ज्ञान है, तो कोई भी दुष्ट आत्मा, इस बात की परवाह किए बिना कि वह कौन से चिन्हों एवं अद्भुत कामों को करती है, हमें ठग नहीं सकती है, क्योंकि हम न्यूनतम इस बारे में निश्चित हो सकते हैं कि: दुष्ट आत्माएँ सत्य नहीं हैं, वे परमेश्वर के कार्य को करने में समर्थ नहीं हैं, वे सृष्टिकर्त्ता नहीं हैं, वे मनुष्य को बचाने में अक्षम हैं, और वे मानवजाति को केवल भ्रष्ट कर सकती हैं।

      जीवन में प्रवेश के विषय में संगति एवं प्रवचन (II) में "परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य के बीच अंतर" से


रोत


सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कथन | तुम सच्चे मसीह और झूठे मसीहों के बीच अंतर को कैसे बता सकते हो?

शुक्रवार, 3 मई 2019

तुम्हें परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में कैसे विभेद करना चाहिए?

अध्याय 6 विभेदन के कई रूप जिन्हें परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में तुम्हें धारण करना चाहिए

1.तुम्हें परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में कैसे विभेद करना चाहिए?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

      अनुग्रह के युग में, यीशु ने भी काफ़ी बातचीत की और काफ़ी कार्य किया। वह यशायाह से किस प्रकार भिन्न था? वह दानिय्येल से किस प्रकार भिन्न था? क्या वह कोई भविष्यद्वक्ता था? ऐसा क्यों कहा जाता है कि वह मसीहा है? उनके मध्य क्या भिन्न्ताएँ हैं? वे सभी मनुष्य थे जिन्होंने वचन बोले थे, और मनुष्य को उनके वचन लगभग एक से प्रतीत होते थे। उन सभी ने बातें की और कार्य किए। पुराने विधान के भविष्यवद्क्ताओं ने भविष्यवाणियाँ की, और उसी तरह से, यीशु भी वैसा ही कर सका। ऐसा क्यों है? यहाँ कार्य की प्रकृति के आधार पर भिन्नता है। इस मामले को समझने के लिए, तुम देह की प्रकृति पर विचार नहीं कर सकते हो और तुम्हें किसी व्यक्ति के वचनों की गहराई या सतहीपन पर विचार नहीं करना चाहिए। तुम्हें अवश्य हमेशा सबसे पहले उसके कार्य पर और उन प्रभावों पर विचार करना चाहिए जिसे उसका कार्य मनुष्य में प्राप्त करता है। उस समय यशायाह के द्वारा कही गई भविष्यवाणियों ने मनुष्य का जीवन प्रदान नहीं किया, और दानिय्येल जैसे लोगों द्वारा प्राप्त किए गए संदेश मात्र भविष्यवाणियाँ थीं न कि जीवन का मार्ग थीं। यदि यहोवा की ओर से प्रत्यक्ष प्रकाशन नहीं होता, तो कोई भी इस कार्य को नहीं कर सकता था, क्योंकि यह नश्वरों के लिए सम्भव नहीं है। यीशु, ने भी, बहुत बातें की, परन्तु वे वचन जीवन का मार्ग थे जिसमें से मनुष्य अभ्यास का मार्ग प्राप्त कर सकता था। कहने का अर्थ है, कि सबसे पहले, वह लोगों में जीवन प्रदान कर सकता था, क्योंकि यीशु जीवन है; दूसरा, वह मनुष्यों के विचलनों को पलट सकता था; तीसरा, युग को आगे बढ़ाने के लिए उसका कार्य यहोवा के कार्य का उत्तरवर्ती हो सकता था; चौथा, वह मनुष्य के भीतर की आवश्यकता को समझ सकता था और समझ सकता था कि मनुष्य में किस चीज का अभाव है; पाँचवाँ, वह नए युग का सूत्रपात कर सकता था और पुराने का समापन कर सकता था। यही कारण है कि उसे परमेश्वर और मसीहा कहा जाता है; वह न सिर्फ़ यशायाह से भिन्न है परन्तु अन्य भविष्यवद्क्ताओं से भी भिन्न है। भविष्यवद्क्ताओं के कार्य के लिए तुलना के रूप में यशायाह को लें। सबसे पहले, वह मानव का जीवन प्रदान नहीं कर सकता था; दूसरा, वह नए युग का सूत्रपात नहीं कर सकता था। वह यहोवा की अगुआई के अधीन और न कि नए युग का सूत्रपात करने के लिए कार्य कर रहा था। तीसरा, उसने जिसके बारे में स्वयं बोला वह उसकी ही समझ से परे था। वह परमेश्वर के आत्मा से प्रत्यक्षतः प्रकाशनों को प्राप्त कर रहा था, और दूसरे उन्हें सुन कर भी, उसे नहीं समझे होंगे। ये कुछ ही बातें अकेले यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि उसके वचन भविष्यवाणियों की अपेक्षा अधिक नहीं थे, यहोवा के बदले किए गए कार्य के एक पहलू की अपेक्षा अधिक नहीं थे। हालाँकि, वह यहोवा का प्रतिनिधित्व पूरी तरह से नहीं कर सकता था। वह यहोवा का नौकर था, यहोवा के काम में एक उपकरण था। वह केवल व्यवस्था के युग के भीतर और यहोवा के कार्य के क्षेत्र के भीतर ही कार्य कर रहा था; उसने व्यवस्था के युग से परे कार्य नहीं किया। इसके विपरीत, यीशु का कार्य भिन्न था। उसने यहोवा के कार्य क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य किया; उसने देहधारी परमेश्वर के रूप में कार्य किया और सम्पूर्ण मानवजाति का उद्धार करने के लिए सलीब पर चढ़ गया। अर्थात्, उसने यहोवा के द्वारा किए गए कार्य से परे नया कार्य किया। यह नए युग का सूत्रपात करना था। दूसरी स्थिति यह है कि वह उस बारे में बोलने में समर्थ था जिसे मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता था। उसका कार्य परमेश्वर के प्रबंधन के भीतर कार्य था और सम्पूर्ण मानवजाति को समाविष्ट करता था। उसने मात्र कुछ ही मनुष्यों में कार्य नहीं किया, न ही उसका कार्य कुछ सीमित संख्या के लोगों की अगुआई करना था। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि कैसे परमेश्वर मनुष्य बनने के लिए देहधारी हुआ था, कैसे उस समय पवित्र आत्मा ने प्रकाशनों को दिया, और कैसे पवित्रात्मा ने कार्य करने के लिए मनुष्य पर अवरोहण किया, ये ऐसी बातें हो जिन्हें मनुष्य देख नहीं सकता है या स्पर्श नहीं कर सकता है। इन सत्यों के लिए इस बात के साक्ष्य के रूप में कार्य करना सर्वथा असंभव है कि वही देहधारी परमेश्वर है। वैसे तो, परमेश्वर के केवल उन वचनों और कार्य पर ही अंतर किया जा सकता है, जो मनुष्य के लिए स्पर्शगोचर हो। केवल यही वास्तविक है। यह इसलिए है क्योंकि पवित्र आत्मा के मामले तुम्हारे लिए दृष्टिगोचर नहीं हैं और केवल परमेश्वर स्वयं को ही स्पष्ट रूप से ज्ञात हैं, और यहाँ तक कि परमेश्वर का देहधारी देह भी सब बातों को नहीं जानता है; तुम सिर्फ़ उसके द्वारा किए गए कार्य से इस बात की पुष्टि कर सकते हो कि वह परमेश्वर है[क]। उसके कार्यों से, यह देखा जा सकता है, सबसे पहले, वह एक नए युग का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ है; दूसरा, वह मनुष्य का जीवन प्रदान करने और अनुसरण करने का मार्ग मनुष्य को दिखाने में समर्थ है। यह इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि वह परमेश्वर स्वयं है। कम से कम, जो कार्य वह करता है वह पूरी तरह से परमेश्वर का आत्मा का प्रतिनिधित्व कर सकता है, और ऐसे कार्य से यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर का आत्मा उस के भीतर है। चूँकि देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य मुख्य रूप से नए युग का सूत्रपात करना, नए कार्य की अगुआई करना और नई परिस्थितियों को पैदा करना था, इसलिए ये कुछ स्थितियाँ अकेले ही यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि वह परमेश्वर स्वयं है। इस प्रकार यह उसे यशायाह, दानिय्येल और अन्य महान भविष्यद्वक्ताओं से भिन्नता प्रदान करता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर" से

      देहधारी परमेश्वर का कार्य एक नये विशेष युग (काल) को प्रारम्भ करता है, और ऐसे लोग जो उसके कार्य को निरन्तर जारी रखते हैं वे ऐसे मनुष्य हैं जिन्हें उसके द्वारा उपयोग किया जाता है। मनुष्य के द्वारा किया गया समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर की सेवकाई के अन्तर्गत होता है, और इस दायरे के परे जाने में असमर्थ होता है। यदि देहधारी परमेश्वर अपने कार्य को करने के लिए नहीं आता, तो मनुष्य पुराने युग को समापन की ओर लाने में समर्थ नहीं होता, और नए विशेष युग की शुरुआत करने के समर्थ नहीं होता। मनुष्य के द्वारा किया गया कार्य महज उसके कर्तव्य के दायरे के भीतर होता है जो मानवीय रूप से संभव है, और परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। केवल देहधारी परमेश्वर ही आ सकता है और उस कार्य को पूरा कर सकता है जो उसे करना चाहिए, और उसके अलावा, कोई भी उसके स्थान पर इस कार्य को नहीं कर सकता है। निश्चित रूप से, जो कुछ मैं कहता हूँ वह देधारण के कार्य के सम्बन्ध में है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से

      कुछ लोग आश्चर्य कर सकते हैं, युग का सूत्रपात स्वयं परमेश्वर के द्वारा क्यों किया जाना चाहिए? क्या उसके स्थान पर कोई सृजित प्राणी नहीं खड़ा हो सकता है? तुम लोग अच्छी तरह से अवगत हो कि एक नए युग का सूत्रपात करने के उद्देश्य से स्पष्ट रूप से परमेश्वर देह बनता है, और, वास्तव में, जब वह नए युग का सूत्रपात करता है, तो वह उसके साथ-साथ ही पूर्व युग का समापन करता है। परमेश्वर आदि और अंत है; यही वह स्वयं है जो अपने कार्य को चलाता है और इसलिए यह अवश्य वह स्वयं होना चाहिए जो पहले के युग का समापन करता है। यही वह प्रमाण है कि वह शैतान को पराजित करता है और संसार को जीत लेता है। प्रत्येक बार जब वह स्वयं मनुष्य के बीच कार्य करता है, तो यह एक नए युद्ध की शुरुआत होती है। नए कार्य की शुरुआत के बिना, प्राकृतिक रूप से पुराने का कोई समापन नहीं होगा। और पुराने का समापन न होना इस बात का प्रमाण है कि शैतान के साथ युद्ध अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। यदि स्वयं परमेश्वर मनुष्यों के बीच में आता है और एक नया कार्य करता है केवल तभी मनुष्य शैतान के अधिकार क्षेत्र को तोड़कर पूरी तरह से स्वतन्त्र हो सकता है और एक नया जीवन एवं नई शुरुआत प्राप्त कर सकता है। अन्यथा, मनुष्य सदैव ही पुराने युग में जीएगा और हमेशा शैतान के पुराने प्रभाव के अधीन रहेगा। परमेश्वर के द्वारा अगुवाई किए गए प्रत्येक युग के साथ, मनुष्य के एक भाग को स्वतन्त्र किया जाता है, और इस प्रकार परमेश्वर के कार्य के साथ-साथ मनुष्य एक नए युग की ओर आगे बढ़ता है। परमेश्वर की विजय उन सबकी विजय है जो उसका अनुसरण करते हैं। यदि सृष्टि की मानवजाति को युग के समापन का कार्यभार दिया जाता, तब चाहे यह मनुष्य के दृष्टिकोण से हो या शैतान के, यह एक ऐसे कार्य से बढ़कर नहीं है जो परमेश्वर का विरोध या परमेश्वर के साथ विश्वासघात करता है, न कि परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का एक कार्य है, और इस प्रकार मनुष्य का कार्य शैतान को अवसर देगा। मनुष्य केवल परमेश्वर के द्वारा सूत्रपात किए गए एक युग में परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन और अनुसरण करता है केवल तभी शैतान पूरी तरह से आश्वस्त होगा, क्योंकि यह सृजित प्राणी का कर्तव्य है। और इसलिए मैं कहता हूँ कि तुम लोगों को केवल अनुसरण और आज्ञापालन कंरने की आवश्यकता है, और इससे अधिक तुम लोगों से नहीं कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा अपने कर्तव्य का पालन करने और अपने कार्य को क्रियान्वित करने का अर्थ यही है। परमेश्वर स्वयं अपना काम करता है और उसे मनुष्य की कोई आवश्यकता नहीं है कि उसके स्थान पर काम करे, और न ही वह सृजित प्राणियों के काम में अपने आपको शामिल करता है। मनुष्य अपना स्वयं का कर्तव्य करता है और परमेश्वर के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है, और यही सच्ची आज्ञाकारिता है और सबूत है कि शैतान पराजित है। जब परमेश्वर स्वयं ने नए युग का आरम्भ कर दिया उसके पश्चात्, वह मानवों के बीच अब और कार्य नहीं करता है। यह तभी है कि एक सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य अपने कर्तव्य को करने और अपने ध्येय को सम्पन्न करने के लिए आधिकारिक रूप से नए युग में कदम रखता है। कार्य करने के सिद्धान्त ऐसे ही हैं जिनका उल्लंघन किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता है। केवल इस तरह से कार्य करना ही विवेकपूर्ण और तर्कसंगत है। परमेश्वर का कार्य परमेश्वर स्वयं के द्वारा किया जाता है। यह वही है जो अपने कार्य को चलाता है, और साथ ही वही उसका समापन करता है। यह वही है जो कार्य की योजना बनाता है, और साथ ही वही है जो उसका प्रबंधन करता है, और उससे भी बढ़कर, यह वही है जो उस कार्य को सफल करता है। यह ऐसा ही है जैसा बाइबल में कहा गया है "मैं ही आदि और अंत हूँ; मैं ही बोनेवाला और काटनेवाला हूँ।" सब कुछ जो उसके प्रबंधन के कार्य से संबंधित है स्वयं उसी के द्वारा किया जाता है। वह छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना का शासक है; कोई भी उसके स्थान पर उसका काम नहीं कर सकता है या उसके कार्य का समापन नहीं कर सकता है, क्योंकि यह वही है जो सबको नियन्त्रण में रखता है। चूँकि उसने संसार का सृजन किया है, वह संपूर्ण संसार की अगुवाई करेगा ताकि सब उसके प्रकाश में जीवन जीएँ, और वह अपनी सम्पूर्ण योजना को सफल करने के लिए संपूर्ण युग का समापन करेगा!

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (1)" से

      कई प्रकार के लोगों और अनेक विभिन्न परिस्थितियों के माध्यम से पवित्र आत्मा के कार्य को सम्पन्न एवं पूरा किया जाता है। हालाँकि देहधारी परमेश्वर का कार्य एक समूचे युग के कार्य का प्रतिनिधित्व कर सकता है, और एक समूचे युग में लोगों के प्रवेश का प्रतिनिधित्व कर सकता है, फिर भी मनुष्यों के विस्तृत प्रवेश के कार्य को अभी भी पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों के द्वारा किए जाने की आवश्यकता है और इसे देहधारी परमेश्वर के द्वारा किए जाने की आवश्यकता नहीं है। अतः, परमेश्वर का कार्य, या परमेश्वर के स्वयं की सेवकाई, परमेश्वर के देहधारी शरीर का कार्य है और इसे उसके स्थान पर मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। पवित्र आत्मा के कार्य को विभिन्न प्रकार के मनुष्यों के द्वारा पूरा किया गया है और इसे केवल एक ही व्यक्ति विशेष के द्वारा पूर्ण नहीं किया जा सकता है या एक ही व्यक्ति विशेष के द्वारा पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। ऐसे लोग जो कलीसियाओं की अगुवाई करते हैं वे भी पूरी तरह से पवित्र आत्मा के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं; वे सिर्फ अगुवाई का कुछ कार्य ही कर सकते हैं। इस रीति से, पवित्र आत्मा के कार्य को तीन भागों में बांटा जा सकता हैः परमेश्वर का स्वयं का कार्य, उपयोग में लाए गए मनुष्यों का कार्य, और उन सभी लोगों पर किया गया कार्य जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में हैं। इन तीनों में, परमेश्वर का स्वयं का कार्य सम्पूर्ण युग की अगुवाई करने के लिए है; जिन्हें उपयोग किया जाता है उन मनुष्यों का काम परमेश्वर के स्वयं के कार्य के पश्चात् भेजे जाने या महान आदेशों को प्राप्त करने के द्वारा सभी अनुयायियों की अगुवाई करने के लिए है, और ये मनुष्य ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करते हैं; वह कार्य जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा उन लोगों पर किया जाता है जो इस मुख्य धारा में हैं वह उसके स्वयं के कार्य को बनाए रखने के लिए है, अर्थात्, सम्पूर्ण प्रबंधन को बनाए रखने के लिए है और अपनी गवाही को बनाए रखने के लिए है, जबकि ठीक उसी समय उन लोगों को सिद्ध किया जाता है जिन्हें सिद्ध किया जा सकता है। ये तीनों भाग पवित्र आत्मा के सम्पूर्ण कार्य हैं, किन्तु स्वयं परमेश्वर के कार्य के बिना, सम्पूर्ण प्रबंधकीय कार्य रूक जाएगा। स्वयं परमेश्वर के कार्य में सम्पूर्ण मानवजाति का कार्य सम्मिलित है, और यह सम्पूर्ण युग के कार्य का भी प्रतिनिधित्व करता है। कहने का तात्पर्य है, परमेश्वर का स्वयं का कार्य पवित्र आत्मा के सभी कार्य की गति एवं प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि प्रेरितों का कार्य परमेश्वर के स्वयं के कार्य का अनुसरण करता है और युग की अगुवाई नहीं करता है, न ही यह सम्पूर्ण युग में पवित्र आत्मा के कार्य करने की प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है। वे केवल वही कार्य करते हैं जिसे मनुष्य को अवश्य करना चाहिए, जो प्रबंधकीय कार्य को बिलकुल भी शामिल नहीं करता है। परमेश्वर का स्वयं का कार्य प्रबंधकीय कार्य के भीतर एक परियोजना है। मनुष्य का कार्य केवल उन मनुष्यों का कर्तव्य है जिन्हें उपयोग किया जाता है और इसका प्रबंधकीय कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। कार्य के विभिन्न पहचान एवं विभिन्न प्रतिनिधित्व के कारण, तथा इस तथ्य के बावजूद कि वे दोनों ही पवित्र आत्मा के कार्य हैं, परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के काम के मध्य स्पष्ट एवं ठोस अन्तर हैं। इसके अतिरिक्त, विभिन्न पहचानों के साथ पवित्र आत्मा के द्वारा कार्य के विषयों पर किए गए कार्य का विस्तार भिन्न होता है। ये पवित्र आत्मा के कार्य के सिद्धान्त एवं दायरे हैं।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से

      परमेश्वर के द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले व्यक्ति के द्वारा किए जाने वाले कार्य का इस्तेमाल परमेश्वर, मसीह और पवित्र आत्मा के कार्य के साथ सहयोग करने के लिए करता है। यह मनुष्य परमेश्वर के द्वारा मनुष्य के बीच में खड़ा किया गया है, वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों का नेतृत्व करने के लिए है, और परमेश्वर ने उसे मानवीय सहयोग का कार्य करने के लिए भी खड़ा किया है। इस तरह का व्यक्ति, जो मानवीय सहयोग का कार्य करने में सक्षम है, मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं और जो कार्य पवित्र आत्मा के द्वारा किया जाना चाहिए, वह उसके माध्यम से पूरा किया जाता है। इसे दूसरे शब्दों में कहने का तरीका यह है: इस मनुष्य को इस्तेमाल करने में परमेश्वर का उद्देश्य यह है कि वे सब जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं परमेश्वर की इच्छा को और अच्छी तरह समझ सकें, और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर सकें। क्योंकि लोग परमेश्वर के वचन को या परमेश्वर की इच्छा को स्वयं समझने में असमर्थ हैं, इसलिए परमेश्वर ने किसी एक को खड़ा किया है जो इस तरह का कार्य करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह व्यक्ति जो परमेश्वर के द्वारा इस्तेमाल किया गया है, इसकी व्याख्या एक माध्यम के रूप में की जा सकती है जिसके द्वारा परमेश्वर लोगों का मार्गदर्शन करता है, जैसे "अनुवादक" जो परमेश्वर और लोगों के बीच में संप्रेषण बनाए रखता है। इस प्रकार, यह व्यक्ति उनकी तरह नहीं है जो परमेश्वर के घराने में काम करते हैं या जो उसके प्रेरित हैं। यह कहा जा सकता है कि वह उनकी तरह परमेश्वर की सेवा करता है, फिर भी परमेश्वर के द्वारा उसकी पृष्ठभूमि के उपयोग में और उसके कार्य के विषय में वह दूसरे कार्यकर्ताओं और प्रेरितों से बिलकुल अलग है। जो व्यक्ति उसके कार्य और उसकी पृष्ठभूमि के उपयोग के विषय में परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किया जाता है, वह उसी के द्वारा खड़ा किया जाता है, वह परमेश्वर के कार्य के लिए परमेश्वर के द्वारा तैयार किया जाता है, और वह परमेश्वर के कार्य में सहयोग करता है। कोई भी व्यक्ति उसके कार्य के लिए कभी खड़ा नहीं हो सकता, यह मनुष्य का सहयोग है जो दैवीय कार्य का अभिन्न अंग है। इस दौरान, दूसरे कार्यकर्ताओं या प्रेरितों द्वारा किया गया कार्य कुछ और नहीं बल्कि हर अवधि के दौरान कलीसियाओं के लिए व्यवस्थाओं के कई पहलुओं को लाना और उन्हें पूरा करना है, या फिर कलीसियाई जीवन को बनाए रखने के लिए जीवन की मूलभूत चीजों की उपलब्धता के लिए कार्य करना है। ये कार्यकर्ता और प्रेरित परमेश्वर द्वारा नियुक्त नहीं किए जाते हैं, न ही यह कहा जा सकता है कि वे पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए जाते हैं। वे कलीसिया में से चुने गए और, कुछ समय की अच्छी शिक्षा और प्रशिक्षण के बाद, जो उपयुक्त होतेहैं उन्हें रखा जाता, जबकि जो उपयुक्त नहीं होते उन्हें वहीं वापस भेज दिया जाता है जहाँ से वे आए थे। क्योंकि ये लोग कलीसिया में से चुने जाते हैं, कुछ अपना असली रंग अगुवा बनने के बाद दिखाते हैं, और कुछ तो बहुत बुरे काम करते हैं और अंत में निकाल दिए जाते हैं। दूसरी ओर, जो परमेश्वर के द्वारा इस्तेमाल किया जाता है वह परमेश्वर के द्वारा तैयार किया जाता है, और जिसके भीतर कुछ योग्यता और मानवता होती है। उसेपहले से पवित्र आत्मा द्वारा तैयार औरसिद्ध कर दिया जाता हैऔर पूर्णरूप से पवित्र आत्मा द्वारा चलाया जाता है, और विशेषकर तब जब उसके कार्य की बारी आती है, उसे पवित्र आत्मा द्वारा निर्देश और आदेश दिए जाते हैं – परिणामस्वरुप परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुवाई के मार्ग में कोई परिवर्तन नही आता, क्योंकि परमेश्वर निश्चित रूप से अपने कार्य का उत्तरदायित्व लेता है, और परमेश्वर हर समय अपना कार्य करता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा मनुष्य को इस्तेमाल करने के विषय में" से

      भविष्यद्वक्ताओं के और जिन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया गया है उनके वचन और कार्य सभी मनुष्य का कर्तव्य कर रहे थे, एक सृजन किए गए प्राणी के रूप में अपना कार्य कर रहे थे और वह कर रहे थे जो मनुष्य को करना चाहिए। हालाँकि, देहधारी परमेश्वर के वचन और कार्य उसकी सेवकाई को करने के लिए थे। यद्यपि उसका बाहरी स्वरूप एक सृजन किए गए प्राणी का था, किन्तु उसका कार्य अपने प्रकार्य को नहीं बल्कि अपनी सेवकाई को पूरा करना था। "कर्तव्य" शब्द सृजन किए गए प्राणियों के सम्बन्ध में उपयोग किया जाता है, जबकि "सेवकाई" देहधारी परमेश्वर की देह के संबंध में है। इन दोनों के बीच एक महत्वपूर्ण अन्तर है, और ये दोनों परस्पर विनिमय करने योग्य नहीं हैं। मनुष्य का कार्य केवल अपना कर्तव्य करना है, जबकि परमेश्वर का कार्य अपनी सेवकाई का प्रबंधन करना, और उसे पूरा करना है। इसलिए, यद्यपि पवित्र आत्मा के द्वारा कई प्रेरितों का उपयोग किया गया और उसके साथ कई भविष्यद्वक्ता भरे गए थे, किन्तु उनका कार्य और उनके वचन केवल सृजन किए गए प्राणी के रूप में केवल अपना कर्तव्य करने के लिए थे। यद्यपि उनकी भविष्यवाणियाँ देहधारी परमेश्वर के द्वारा कहे गए जीवन के मार्ग की अपेक्षा बढ़कर हो सकती थीं, और उनकी मानवता देहधारी परमेश्वर की अपेक्षा अधिक उत्युत्तम थी, किन्तु वे अभी भी अपना कर्तव्य निभा रहे थे, और अपनी सेवकाई को पूर्ण नहीं कर रहे थे। मनुष्य का कर्तव्य उसके प्रकार्य को संदर्भित करता है, और कुछ ऐसा है जो मनुष्य के लिए प्राप्य है। हालाँकि, देहधारी परमेश्वर के द्वारा की जाने वाली सेवकाई उसके प्रबंधन से संबंधित है, और यह मनुष्य के द्वारा अप्राप्य है। चाहे देहधारी परमेश्वर बोले, कार्य करे, या चमत्कार प्रकट करे, वह अपने प्रबंधन के अंतर्गत महान कार्य कर रहा है, और इस प्रकार का कार्य उसके बदले मनुष्य नहीं कर सकता है। मनुष्य का कार्य केवल सृजन किए गए प्राणी के रूप में परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य के किसी दिए गए चरण में सिर्फ़ अपना कर्तव्य करना है। इस प्रकार के प्रबंधन के बिना, अर्थात्‌, यदि देहधारी परमेश्वर की सेवकाई खो जाती है, तो यह भी सृजन किए गए प्राणी का ही कर्तव्य है। अपनी सेवकाई को करने में परमेश्वर का कार्य मनुष्य का प्रबंधन करना है, जबकि मनुष्य का कर्तव्य करना सृष्टा की माँगों को पूरा करने के लिए अपने स्वयं के दायित्वों का प्रदर्शन है और किसी भी तरह से किसी की सेवकाई करना नहीं माना जा सकता है। परमेश्वर, अर्थात्‌, पवित्र आत्मा के अंतर्निहित सार के लिए, परमेश्वर का कार्य उसका प्रबंधन है, किन्तु एक सृजन किए गए प्राणी का बाह्य स्वरूप पहने हुए देहधारी परमेश्वर के लिए, उसका कार्य अपनी सेवकाई को पूरा करना है। वह जो कुछ भी कार्य करता है वह अपनी सेवकाई को करने के लिए करता है, और मनुष्य केवल उसके प्रबंधन के क्षेत्र के भीतर और उसकी अगुआई के अधीन ही अपना सर्वोत्तम कर सकता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर" से

      यहाँ तक कि कोई मनुष्य जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया जाता है वह भी परमेश्वर स्वयं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। और न केवल यह व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है, बल्कि उसका काम भी सीधे तौर पर परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। करने का अर्थ है, कि मनुष्य के अनुभव को सीधे तौर पर परमेश्वर के प्रबंधन के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है, और यह परमेश्वर के प्रबंधन का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। वह समस्त कार्य जिसे परमेश्वर स्वयं करता है वह ऐसा कार्य है जिसे वह अपनी स्वयं की प्रबंधन योजना में करने का इरादा करता है और बड़े प्रबंधन से संबंधित है। मनुष्य (पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया गया मनुष्य) के द्वारा किया गया कार्य उसके व्यक्तिगत अनुभव की आपूर्ति करता है। वह उस मार्ग से अनुभव का एक नया मार्ग पाता है जिस पर उससे पहले के लोग चले थे और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के अधीन अपने भाईयों और बहनों की अगुवाई करता है। जो कुछ ये लोग प्रदान करते हैं वह उनका व्यक्तिगत अनुभव या आध्यात्मिक मनुष्यों की आध्यात्मिक रचनाएँ हैं। यद्यपि पवित्र आत्मा के द्वारा उनका उपयोग किया जाता है, फिर भी ऐसे मनुष्यों का कार्य छ:-हज़ार-वर्षों की योजना के बड़े प्रबंधन कार्य से असम्बद्ध है। उन्हें सिर्फ तब तक पवित्र आत्मा की मुख्यधारा में लोगों की अगुवाई करने के लिए विभिन्न अवधियों में पवित्र आत्मा के द्वारा उभारा गया है जब तक कि वे अपने कार्य को पूरा न कर लें या उनकी ज़िन्दगियों का अंत न हो जाए। जिस कार्य को वे करते हैं वह केवल परमेश्वर स्वयं के लिए एक उचित मार्ग तैयार करने के लिए है या पृथ्वी पर परमेश्वर स्वयं की प्रबंधन योजना में एक अंश को निरन्तर जारी रखने के लिए है। ऐसे मनुष्य उसके प्रबंधन में बड़े-बड़े कार्य करने में असमर्थ होते हैं, और वे नए मार्गों की शुरुआत नहीं कर सकते हैं, और वे पूर्व युग के परमेश्वर के सभी कार्यों का समापन तो बिलकुल भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए, जिस कार्य को वे करते हैं वह केवल एक सृजित प्राणी का प्रतिनिधित्व करता है जो अपने कार्यों को क्रियान्वित कर रहा है और स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है जो अपनी सेवकाई को कार्यान्वित कर रहा हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिस कार्य को वे करते हैं वह परमेश्वर स्वयं के द्वारा किए जाने वाले कार्य के असदृश है। एक नए युग के सूत्रपात का कार्य परमेश्वर के स्थान पर मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। इसे परमेश्वर स्वयं के अलावा किसी अन्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। मनुष्य के द्वारा किया गया समस्त कार्य सृजित प्राणी के रूप में उसके कर्तव्य का निर्वहन है और तब किया जाता है जब पवित्र आत्मा के द्वारा प्रेरित या प्रबुद्ध किया जाता है। ऐसे मनुष्य द्वारा प्रदान किया जाने वाला मार्गदर्शन यह होता है कि मनुष्य के दैनिक जीवन में किस प्रकार अभ्यास किया जाए और मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर की इच्छा के साथ समरसता में कार्य करना चाहिए। मनुष्य का कार्य न तो परमेश्वर की प्रबंधन योजना को सम्मिलित करता है और न ही पवित्रात्मा के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। एक उदाहरण के रूप में, गवाह ली और वॉचमैन नी का कार्य मार्ग की अगुआई करना था। चाहे मार्ग नया हो या पुराना, कार्य बाइबल के सिद्धांतों से अधिक नहीं के आधार पर किया गया था। चाहे स्थानीय कलीसियाओं को पुनर्स्थापित किया गया था अथवा बनाया गया था, उनका कार्य कलीसियाओं की स्थापना करना था। जो कार्य उन्होंने किया उसने उस कार्य को आगे बढ़ाया जिसे यीशु और उसके प्रेरितों ने समाप्त नहीं किया था या अनुग्रह के युग में आगे विकसित नहीं किया था। उन्होंने अपने कार्य में जो कुछ किया, वह उसे बहाल करना था जिसे यीशु ने अपने कार्य में अपने बाद की पीढ़ियों से कहा था, जैसे कि अपने सिरों को ढक कर रखना, बपतिस्मा, रोटी साझा करना या वाइन पीना। यह कहा जा सकता है कि उनका कार्य केवल बाइबल को बनाए रखना था और केवल बाइबल के भीतर से मार्ग तलाशना था। उन्होंने कोई भी नई प्रगति बिल्कुल नहीं की। इसलिए, कोई उनके कार्य में केवल बाइबल के भीतर ही नए मार्गों की खोज सकता है, और साथ ही बेहतर और अधिक यथार्थवादी अभ्यासों को देख सकता है। किन्तु कोई उनके कार्य में परमेश्वर की वर्तमान इच्छा को नहीं खोज सकता है, उस कार्य को तो बिल्कुल नहीं खोज सकता है जिसे परमेश्वर अंत के दिनों में करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिस मार्ग पर वे चलते थे वह तब भी पुराना था; उसमें कोई प्रगति नहीं थी और कुछ नया नहीं था। उन्होंने "यीशु को सलीब पर चढ़ाना" की वास्तविकता को, "लोगों को पश्चाताप करने और अपने पापों को स्वीकार करने के लिए कहने", और इस उक्ति "जो अन्त तक सहन करता है बचा लिया जाएगा" और इस उक्ति "पुरुष स्त्री का सिर है" और "स्त्री को अपने पति का आज्ञापालन करना चाहिए" के अभ्यास को जारी रखा। इसके अलावा, उन्होंने परंपरागत धारणा को बनाए रखा कि "बहनें उपदेश नहीं दे सकती हैं, और वे केवल आज्ञापालन कर सकती हैं।" यदि इस तरह की अगुआई जारी रही होती, तो पवित्र आत्मा कभी भी नए कार्य को करने, पुरुषों को सिद्धांत से मुक्त करने, या पुरुषों को स्वतंत्रता और सुंदरता के क्षेत्र में ले जाने में समर्थ नहीं होता। इसलिए, युगों के परिवर्तन के लिए कार्य का यह चरण स्वयं परमेश्वर के द्वारा किया और बोला जाना चाहिए, अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसके स्थान पर ऐसा नहीं कर सकता है। अभी तक, इस धारा के बाहर पवित्र आत्मा का समस्त कार्य एकदम रुक गया है, और जिन्हें पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया गया था वे दिग्भ्रमित हो गए हैं। इसलिए, चूँकि पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों का कार्य परमेश्वर स्वयं के द्वारा किए गए कार्य के असदृश है, इसलिए उनकी पहचान और वे जिनकी ओर से कार्य करते हैं वे भी उसी तरह से भिन्न हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि पवित्र आत्मा जिस कार्य को करने का इरादा करता है वह भिन्न है, फलस्वरूप कार्य करने वाले सभी को अलग-अलग पहचानें और हैसियतें प्रदान की जाती है। पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए लोग भी कुछ कार्य कर सकते हैं जो नया हो और वे पूर्व युग में किये गए कुछ कार्य को हटा भी सकते हैं, किन्तु उनका कार्य नए युग में परमेश्वर के स्वभाव और इच्छा को व्यक्त नहीं कर सकता है। वे केवल पूर्व युग के कार्य को हटाने के लिए कार्य करते हैं, और सीधे तौर पर परमेश्वर स्वयं के स्वभाव का प्रतिनिधित्व करने के लिए कोई नया कार्य नहीं करते हैं। इस प्रकार, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे पुरानी पड़ चुके कितने अभ्यासों का उन्मूलन करते हैं या वे नए अभ्यासों को आरंभ करते हैं, वे तब भी मनुष्य और सृजित प्राणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। फिर भी, जब परमेश्वर स्वयं कार्य को करता है, तो भी, वह प्राचीन युग के अभ्यासों के उन्मूलन की खुलकर घोषणा नहीं करता है या सीधे तौर पर नए युग की शुरुआत की घोषणा नहीं करता है। वह अपने कार्य में प्रत्यक्ष और स्पष्ट है। वह उस कार्य को करने में निष्कपट है जिसका उसने इरादा किया है; अर्थात्, वह उस कार्य को सीधे तौर पर व्यक्त करता है जिसे उसने घटित किया है, वह सीधे तौर पर अपना कार्य करता है जैसा उसने मूलतः इरादा किया था, और अपने अस्तित्व एवं स्वभाव को व्यक्त करता है। जैसा मनुष्य इसे देखता है, उसका स्वभाव और उसी प्रकार उसका कार्य भी बीते युगों के लोगों के असदृश है। हालाँकि, परमेश्वर स्वयं के दृष्टिकोण से, यह मात्र उसके कार्य की निरन्तरता और आगे का विकास है। जब परमेश्वर स्वयं कार्य करता है, तो वह अपने वचन को व्यक्त करता है और सीधे तौर पर नया कार्य लाता है। इसके विपरीत, जब मनुष्य काम करता है, तो यह विचार-विमर्श एवं अध्ययन के माध्यम से होता है, या यह दूसरों के कार्य की बुनियाद पर निर्मित ज्ञान का विकास और अभ्यास का व्यवस्थापन है। कहने का अर्थ है, कि मनुष्य के द्वारा किए गए कार्य का सार प्रथा को बनाए रखना और "नए जूतों में पुराने मार्ग पर चलना" है। इसका अर्थ है कि यहाँ तक कि पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों द्वारा चला गया मार्ग भी उस पर बनाया गया है जिसे स्वयं परमेश्वर के द्वारा खोला गया था। अतः मनुष्य आख़िरकर मनुष्य है, और परमेश्वर परमेश्वर है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (1)" से

      आप सभी को जानना होगा कि परमेश्वर के कार्य से मनुष्य के काम को कैसे अलग किया जाता है। आप मनुष्य के काम से क्या देख सकते हैं? मनुष्य के काम में मनुष्य के अनुभव के बहुत सारे तत्व होते हैं; मनुष्य जैसा अभिव्यक्त करता है वह वैसा ही होता है। परमेश्वर का स्वयं का कार्य भी उसे ही अभिव्यक्त करता है, परन्तु जो वह है वह मनुष्य से अलग है। मनुष्य जो कुछ है वह मनुष्य के अनुभव एवं जीवन का प्रतिनिधि है (जो कुछ मनुष्य अपने जीवन में अनुभव एवं सामना करता है, या जो उसके जीवन-दर्शन हैं), और विभिन्न वातावरणों में रहने वाले लोग विभिन्न प्राणियों को व्यक्त करते हैं। आपके पास सामाजिक अनुभव हैं या नहीं और आप वास्तव में किस प्रकार अपने परिवार में रहते एवं अनुभव करते हैं उसे जो कुछ आप अभिव्यक्त करते हैं उसमें देखा जा सकता है, जबकि आप देहधारी परमेश्वर के कार्य से यह नहीं देख सकते हैं कि उसके पास सामाजिक अनुभव हैं या नहीं। वह मनुष्य के सार-तत्व से अच्छी तरह से परिचित है, वह सभी प्रकार के अभ्यास को प्रगट कर सकता है जो सब प्रकार के लोगों से सम्बन्धित होते हैं। वह मानव के भ्रष्ट स्वभाव एवं विद्रोही आचरण को भी बेहतर ढंग से प्रगट कर सकता है। वह सांसारिक लोगों के मध्य नहीं रहता है, परन्तु वह नश्वर मनुष्यों के स्वभाव और सांसारिक लोगों की समस्त भ्रष्टता से भली भांति अवगत है। वह ऐसा ही है। हालाँकि वह संसार के साथ व्यवहार नहीं करता है, फिर भी वह संसार के साथ व्यवहार करने के नियमों को जानता है, क्योंकि वह मानवीय स्वभाव को पूरी तरह से समझता है। वह वर्तमान एवं अतीत दोनों के आत्मा के कार्य के विषय में जानता है जिसे मनुष्य की आंखें नहीं देख सकती हैं जिसे मनुष्य के कान नहीं सुन सकते हैं। इसमें बुद्धि शामिल है जो जीवन का दर्शनशास्त्र एवं आश्चर्य नहीं है जिसकी गहराई नापना मनुष्य को कठिन जान पड़ता है। वह ऐसा ही है, लोगों के लिए खुला और साथ ही लोगों से छिपा हुआ भी है। जो कुछ वह अभिव्यक्त करता है वह ऐसा नहीं है जैसा एक असाधारण मनुष्य होता है, परन्तु अंतर्निहित गुण एवं आत्मा का अस्तित्व है। वह संसार भर में यात्रा नहीं करता है परन्तु उसके विषय में हर एक चीज़ को जानता है। वह "वन-मानुषों" के साथ सम्पर्क करता है जिनके पास कोई ज्ञान या अंतर्दृष्टि नहीं है, परन्तु वह ऐसे शब्दों को व्यक्त करता है जो ज्ञान से ऊँचे और महान मनुष्यों से ऊपर हैं। वह कम समझ एवं सुन्न लोगों के समूह के मध्य रहता है जिनके पास मानवता नहीं है और जो मानवीय परम्पराओं एवं जीवनों को नहीं समझते हैं, परन्तु वह मानवजाति से सामान्य मानवता को जीने के लिए कह सकता है, ठीक उसी समय वह मानवजाति के नीच एवं घटिया मनुष्यत्व को प्रगट करता है। यह सब कुछ वही है जो वह है, वह किसी भी मांस और लहू के व्यक्ति की अपेक्षा अधिक ऊँचा है। उसके लिए, यह जरुरी नहीं है कि वह उस काम को करने के लिए जिसे उसे करने की आवश्यक है जटिल, बोझिल एवं पतित सामाजिक जीवन का अनुभव करे और भ्रष्ट मानवजाति के सार-तत्व को पूरी तरह से प्रगट करे। ऐसा पतित सामाजिक जीवन उसकी देह को उन्नत नहीं करता है। उसके कार्य एवं वचन मनुष्य केआज्ञालंघन को ही प्रगट करते हैं और संसार के साथ निपटने के लिए मनुष्य को अनुभव एवं शिक्षाएं प्रदान नहीं करते हैं। जब वह मनुष्य को जीवन की आपूर्ति करता है तो उसे समाज या मनुष्य के परिवार की जांच पड़ताल करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। मनुष्य का खुलासा एवं न्याय करना उसकी देह के अनुभवों की अभिव्यक्ति नहीं है; यह लम्बे समय तक मनुष्य के आज्ञालंघन को जानने के बाद उसकी अधार्मिकता को प्रगट करने और मानवता के भ्रष्ट स्वभाव से घृणा करने के लिए है। वह कार्य जिसे परमेश्वर करता है वह मनुष्य पर अपने स्वभाव को पूरी तरह से प्रगट करने और अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त करने के लिए है। केवल वही इस कार्य को कर सकता है, यह ऐसी चीज़ नहीं है जिसे मांस और लहू का व्यक्ति हासिल कर सकता है। परमेश्वर के कार्य के लिहाज से, मनुष्य यह नहीं बता सकता कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है। मनुष्य परमेश्वर के कार्य के आधार पर भी उसे एक सृजे गए व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत करने में असमर्थ है। जो वह है उससे भी उसे एक सृजे गए प्राणी के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। मनुष्य उसे केवल एक ग़ैर-मानव मान सकता है, किन्तु वह यह नहीं जानता है कि उसे किस श्रेणी में रखा जाए, अतः मनुष्य उसे परमेश्वर की श्रेणी में सूचीबद्ध रखने के लिए मजबूर है। मनुष्य के लिए ऐसा करना असंगत नहीं है, क्योंकि परमेश्वर ने लोगों के मध्य बहुत सारा कार्य किया है जिसे मनुष्य करने में असमर्थ है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से

      वह कार्य जिसे परमेश्वर करता है वह उसकी देह के अनुभव का प्रतिनिधित्व नहीं करता है; वह कार्य जिसे मनुष्य करता है वह मनुष्य के अनुभव का प्रतिनिधित्व करता है। हर कोई अपने व्यक्तिगत अनुभव के विषय में बातचीत करता है। परमेश्वर सीधे तौर पर सत्य को अभिव्यक्त कर सकता है, जबकि मनुष्य केवल सत्य का अनुभव करने के पश्चात् ही उससे सम्बन्धित अनुभव को अभिव्यक्त कर सकता है। परमेश्वर के कार्य में कोई नियम नहीं होते हैं और यह समय या भौगोलिक अवरोधों के अधीन नहीं होता है। वह जो है उसे वह किसी भी समय, कहीं पर भी प्रगट कर सकता है। जो वह है उसे वह किसी भी समय एवं किसी भी स्थान पर व्यक्त कर सकता है। जैसा उसे अच्छा लगता है वह वैसा कार्य करता है। मनुष्य के काम में परिस्थितियां एवं सन्दर्भ होते हैं; अन्यथा, वह काम करने में असमर्थ होता है और वह परमेश्वर के विषय में अपने ज्ञान को व्यक्त करने या सत्य के विषय में अपने अनुभव को व्यक्त करने में असमर्थ होता है। आपको बस यह बताने के लिए उनके बीच के अन्तर की तुलना करनी है कि यह परमेश्वर का अपना कार्य है या मनुष्य का काम है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से

      केवल युग की अगुवाई करने और एक नए कार्य को गतिमान करने के लिए परमेश्वर देह बनता है। तुम लोगों को इस बिन्दु को समझना होगा। यह मनुष्य के प्रकार्य से बहुत अलग है, और दोनों को लगभग एक साथ नहीं कहा जा सकता है। इससे पहले कि कार्य करने के लिए मनुष्य का उपयोग किया जाए, मनुष्य को विकसित होने एवं पूर्णता की एक लम्बी समयावधि की आवश्यकता है और एक विशेष रूप में बड़ी मानवता की आवश्यकता है। न केवल मनुष्य को अपनी सामान्य मानवीय समझ को बनाए रखने के योग्य अवश्य होना चाहिए, बल्कि मनुष्य को दूसरों के सामने व्यवहार के अनेक सिद्धान्तों और नियमों को अवश्य और भी अधिक समझना चाहिए, और इसके अतिरिक्त उसे अवश्य मनुष्य की बुद्धि और नैतिकता को और अधिक सीखना चाहिए। यह वह है जिससे मनुष्य को सुसज्जित अवश्य होना होगा। हालाँकि, परमेश्वर देह बनता है के लिए ऐसा नहीं है, क्योंकि उसका कार्य न तो मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता है और न ही मनुष्यों का है; इसके बजाए, यह उसके अस्तित्व की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है और उस कार्य का प्रत्यक्ष कार्यान्वयन है जो उसे अवश्य करना चाहिए। (प्राकृतिक रूप से, उसका कार्य तब किया जाता है जब उसे किया जाना चाहिए, और इच्छानुसार यादृच्छिक रूप से नहीं किया जाता है। बल्कि, उसका कार्य तब शुरू होता है जब उसकी सेवकाई को पूरा करने का समय होता है।) वह मनुष्य के जीवन में या मनुष्य के कार्य में भाग नहीं लेता है, अर्थात्, उसकी मानवता इन में से किसी भी चीज़ से सुसज्जित नहीं है (परन्तु इससे उसका कार्य प्रभावित नहीं होता है)। वह केवल अपनी सेवकाई को पूरा करता है जब उसके लिए ऐसा करने का समय होता है; उसकी हैसियत कुछ भी हो, वह बस उस कार्य के साथ आगे बढ़ता है जो उसे अवश्य करना चाहिए। मनुष्य उसके बारे में जो कुछ भी जानता है या उसके बारे में उसकी जो कुछ भी राय हों, इससे उसके कार्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (3)" से

      मसीह का कार्य तथा अभिव्यक्ति उसके सार को निर्धारित करते हैं। वह अपने सच्चे हृदय से उस कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है जो उसे सौंपा गया है। वह सच्चे हृदय से स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है, तथा सच्चे हृदय से परमपिता परमेश्वर की इच्छा खोजने में सक्षम है। यह सब उसके सार द्वारा निर्धारित किया जाता है। और इसी प्रकार से उसका प्राकृतिक प्रकाशन भी उसके सार द्वारा निर्धारित किया जाता है; उसके स्वाभाविक प्रकाशन का ऐसा कहलाना इस वजह से है कि उसकी अभिव्यक्ति कोई नकल नहीं है, या मनुष्य द्वारा शिक्षा का परिणाम, या मनुष्य द्वारा अनेक वर्षों संवर्धन का परिणाम नहीं है। उसने इसे सीखा या इससे स्वयं को सँवारा नहीं; बल्कि, यह उसके अन्दर अंतर्निहित है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का वास्तविक सार है" से

      अगर मनुष्य को यह कार्य करना पड़ता, तो यह बहुत ही सीमित हो जाता; यह मनुष्य को एक निश्चित बिन्दु तक ले जा सकता था, परन्तु यह मनुष्य को अनंत मंज़िल पर ले जाने में सक्षम नहीं होता। मनुष्य की नियति को निर्धारित करने के लिए मनुष्य समर्थ नहीं है, इसके अतिरिक्त, न ही वह मनुष्य के भविष्य की संभावनाओं एवं भविष्य की मंज़िल को सुनिश्चित करने में सक्षम है। फिर भी, परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य भिन्न होता है। चूँकि उसने मनुष्य को सृजा था, इसलिए वह मनुष्य की अगुवाई करता है; चूँकि वह मनुष्य को बचाता है, इसलिए वह उसे पूरी तरह से बचाएगा, और उसे पूरी तरह प्राप्त करेगा; चूँकि वह मनुष्य की अगुवाई करता है, इसलिए वह उसे उस उपयुक्त मंज़िल पर पहुंचाएगा, और चूँकि उसने मनुष्य को सृजा था और उसका प्रबंध करता है, इसलिए उसे मनुष्य की नियति एवं उसकी भविष्य की संभावनाओं की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। यही वह कार्य है जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा किया गया है। हालाँकि विजय के कार्य को भविष्य की संभावनाओं से मनुष्य को शुद्ध करने के द्वारा हासिल किया जाता है, फिर भी अन्ततः मनुष्य को उस उपयुक्त मंज़िल पर पहुंचाया जाना चाहिए जिसे परमेश्वर के द्वारा उसके लिए तैयार किया गया है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "मनुष्य के सामान्य जीवन को पुनःस्थापित करना और उसे एक बेहतरीन मंज़िल पर लेचलना" से

      मनुष्य के काम में एक दायरा एवं सीमाएं होती हैं। कोई व्यक्ति केवल एक ही निश्चित अवस्था के कार्य को करने के लिए योग्य होता है और सम्पूर्ण युग के कार्य को नहीं कर सकता हैं - अन्यथा, वह लोगों को नियमों के भीतर ले जाएगा। मनुष्य के काम को केवल एक विशेष समय या अवस्था पर ही लागू किया जा सकता है। यह इसलिए है क्योंकि मनुष्य के अनुभव में एक दायरा होता है। कोई व्यक्ति परमेश्वर के कार्य के साथ मनुष्य के काम की तुलना नहीं कर सकता है। मनुष्य के अभ्यास करने के तरीके और सत्य के विषय में उसके समस्त ज्ञान को एक विशेष दायरे में लागू किया जाता है। आप नहीं कह सकते हैं कि वह मार्ग जिस पर कोई मनुष्य चलता है वह पूरी तरह से पवित्र आत्मा की इच्छा है, क्योंकि मनुष्य को केवल पवित्र आत्मा के द्वारा ही प्रकाशित किया जा सकता है और उसे पवित्र आत्मा से पूरी तरह से भरा नहीं जा सकता है। ऐसी चीज़ें जिन्हें मनुष्य अनुभव कर सकता है वे सभी सामान्य मानवता के दायरे के भीतर हैं और वे सामान्य मानवीय मस्तिष्क में विचारों की सीमाओं से आगे नहीं बढ़ सकती हैं। वे सभी जिनके पास व्यावहारिक अभिव्यक्ति है वे इस सीमा के अंतर्गत अनुभव करते हैं। जब वे सत्य का अनुभव करते हैं, तो यह हमेशा ही पवित्र आत्मा के अद्भुत प्रकाशन के अधीन सामान्य मानवीय जीवन का एक अनुभव है, और यह ऐसी रीति से अनुभव करना नहीं है जो सामान्य मानवीय जीवन से दूर हट जाता है। अपने मानवीय जीवन को जीने के आधार पर वे उस सच्चाई का अनुभव करते हैं जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा प्रकाशित किया जाता है। इसके अतिरिक्त, यह सत्य एक व्यक्ति से लेकर दूसरे व्यक्ति तक भिन्न होता है, और इसकी गहराई उस व्यक्ति की दशा से सम्बन्धित होती है। कोई व्यक्ति केवल यह कह सकता है कि वह मार्ग जिस पर वे चलते हैं वह किसी मनुष्य का सामान्य जीवन है जो सत्य का अनुसरण कर रहा है, और यह कि यह वह मार्ग जिस पर किसी साधारण व्यक्ति के द्वारा चला गया है जिसके पास पवित्र आत्मा का अद्भुत प्रकाशन है। आप नहीं कह सकते हैं कि वह मार्ग जिस पर वे चलते हैं वह ऐसा मार्ग है जिसे पवित्र आत्मा द्वारा लिया गया है। सामान्य मानवीय अनुभव में, क्योंकि ऐसे लोग जो अनुसरण करते हैं वे एक समान नहीं होते हैं, इसलिए पवित्र आत्मा का कार्य भी एक समान नहीं होता है। इसके साथ ही, क्योंकि ऐसे वातावरण जिनका वे अनुभव करते हैं और उनके अनुभव की सीमाएं एक समान नहीं होती हैं, उनके मस्तिष्क एवं विचारों के मिश्रण के कारण, उनके अनुभव विभिन्न मात्राओं तक मिश्रित हो जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार ही किसी सच्चाई को समझ पाता है। सत्य के वास्तविक अर्थ के विषय में उनकी समझ पूर्ण नहीं है और यह इसका केवल एक या कुछ ही पहलु है। वह दायरा जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के द्वारा उस सच्चाई का अनुभव किया जाता है वह हमेशा ही व्यक्तित्वों की विभिन्न परिस्थितियों पर आधारित होता है और इसलिए यह एक समान नहीं होता है। इस रीति से, वह ज्ञान जिसे विभिन्न लोगों के द्वारा उसी सच्चाई से अभिव्यक्त किया जाता है वह एक समान नहीं है। कहने का तात्पर्य है, मनुष्य के अनुभव में हमेशा सीमाएं होती हैं और यह पवित्र आत्मा की इच्छा को पूरी तरह से दर्शा नहीं सकता है, और मनुष्य के काम को परमेश्वर के कार्य के समान महसूस नहीं किया जा सकता है, भले ही जो कुछ मनुष्य के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है वह परमेश्वर की इच्छा से नज़दीकी से सम्बन्ध रखता हो, भले ही मनुष्य का अनुभव सिद्ध करनेवाले कार्य के बेहद करीब हो जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा किया जाना है। मनुष्य केवल परमेश्वर का सेवक हो सकता है, और उस कार्य को कर सकता है जिसे परमेश्वर ने उसे सौंपा है। मनुष्य केवल पवित्र आत्मा के अद्भुत प्रकाशन के अधीन उस ज्ञान को और उन सच्चाईयों को व्यक्त कर सकता है जिन्हें उसने अपने व्यक्तिगत अनुभवों से अर्जित किया है। मनुष्य अयोग्य है और उसके पास ऐसी स्थितियां नहीं हैं कि वह पवित्र आत्मा की अभिव्यक्ति का साधन बने। वह यह कहने का हकदार नहीं है कि मनुष्य का काम परमेश्वर का कार्य है। मनुष्य के पास मनुष्य के कार्य करने के सिद्धान्त होते हैं, और सभी मनुष्यों के पास विभिन्न अनुभव होते हैं और उनके पास अलग अलग स्थितियां होती हैं। मनुष्य का काम पवित्र आत्मा के अद्भुत प्रकाशन के अधीन उसके सभी अनुभवों को सम्मिलित करता है। ये अनुभव केवल मनुष्य के अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हैं और परमेश्वर के अस्तित्व या पवित्र आत्मा की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। इसलिए, वह मार्ग जिस पर मनुष्य के द्वारा चला जाता है उसे ऐसा मार्ग नहीं कहा जा सकता है जिस पर पवित्र आत्मा के द्वारा चला गया है क्योंकि मनुष्य का काम परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता और मनुष्य का काम एवं मनुष्य का अनुभव पवित्र आत्मा की सम्पूर्ण इच्छा नहीं है। मनुष्य के काम का झुकाव नियम के अंतर्गत आने के लिए होता है, और उसके कार्य करने के तरीके को आसानी से एक सीमित दायरे में सीमित किया जा सकता है और यह स्वतन्त्र रूप से लोगों की अगुवाई करने में असमर्थ है। अधिकांश अनुयायी एक सीमित दायरे में जीवन बिताते हैं, और उनके अनुभव करने का मार्ग भी इसके दायरे तक ही सीमित होता है। मनुष्य का अनुभव हमेशा सीमित होता है; उसके कार्य करने का तरीका भी कुछ प्रकारों तक ही सीमित होता है और पवित्र आत्मा के कार्य से या स्वयं परमेश्वर के कार्य से इसकी तुलना नहीं की जा सकती है - यह इसलिए है क्योंकि अंत में मनुष्य का अनुभव सीमित होता है। फिर भी परमेश्वर अपना कार्य करता है, इसके लिए कोई नियम नहीं है; फिर भी वह पूर्ण होता है, यह एक तरीके पर सीमित नहीं है। परमेश्वर के कार्य के लिए किसी भी प्रकार के नियम नहीं हैं, उसके समस्त कार्य को स्वतन्त्र रूप से मुक्त किया गया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य उसका अनुसरण करते हुए कितना समय बिताता है, वे उसके कार्य करने के तरीकों के विषय में किसी भी प्रकार के नियमों का सार नहीं निकल सकते हैं। हालाँकि उसका कार्य सैद्धांतिक है, और इसे हमेशा नए तरीकों से किया जाता है और इसमें हमेशा नई नई प्रगति होती रहती है, जो मनुष्य की पहुंच से परे है। एक समय काल के दौरान, हो सकता है कि परमेश्वर के पास भिन्न भिन्न प्रकार के कार्य और भिन्न भिन्न प्रकार की अगुवाई हो, जो लोगों को अनुमति देती हो कि उनके पास हमेशा नए नए प्रवेश एवं नए नए परिवर्तन हों। आप उसके कार्य के नियमों का पता नहीं लगा सकते हैं क्योंकि वह हमेशा नए तरीकों से कार्य कर रहा है। केवल इस रीति से ही परमेश्वर के अनुयायी नियमों के अंतर्गत नहीं आते हैं। स्वयं परमेश्वर का कार्य हमेशा लोगों की धारणाओं से परहेज करता है और उनकी धारणाओं का विरोध करता है। ऐसे लोग जो एक सच्चे हृदय के साथ उसके पीछे पीछे चलते हैं और उसका अनुसरण करते हैं केवल उनका स्वभाव ही रूपान्तरित हो सकता है और वे किसी भी प्रकार के नियमों के अधीन हुए बिना या किसी भी प्रकार की धार्मिक धारणाओं के द्वारा अवरुद्ध हुए बगैर स्वतन्त्रता से जीवन जी सकते हैं। ऐसी मांगें जिन्हें मनुष्य का काम लोगों से करता है वे उनके स्वयं के अनुभव और उस चीज़ पर आधारित होते हैं जिन्हें वह स्वयं हासिल कर सकता है। इन अपेक्षाओं का स्तर एक निश्चित दायरे के भीतर सीमित होता है, और अभ्यास के तरीके भी बहुत ही सीमित होते हैं। इस प्रकार अनुयायी सीमित दायरे के भीतर अवचेतन रूप से जीवन बिताते हैं; जैसे जैसे समय गुज़रता है, वे नियम एवं रीति रिवाज बन जाते हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से
मनुष्य की नियति के संबंध में परमेश्वर के कोई भी कार्य या वचन, मनुष्यों के मूलतत्व के आधार पर उचित रीति से प्रत्येक मनुष्य में कार्य करते हैं, वहाँ कोई संयोग नहीं है, और निश्चय ही लेशमात्र भी त्रुटि नहीं है। केवल जब एक मनुष्य कार्य करेगा तब मनुष्य की भावनाएँ या अर्थ उसमें मिश्रित होंगे। परमेश्वर जो कार्य करता है, वह सबसे अधिक उपयुक्त होता है, वह निश्चित तौर पर किसी प्राणी के विरुद्ध झूठे दावे नहीं करेगा।

"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर और मनुष्य एक साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे" से

फुटनोट:

क. मूल पाठ "चाहे वह परमेश्वर हो।" को छोड़ता है

रोत


सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कथन|तुम्हें परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में कैसे विभेद करना चाहिए?

सदोम की भ्रष्टताः मुनष्यों को क्रोधित करने वाली, परमेश्वर के कोप को भड़काने वाली

सर्वप्रथम, आओ हम पवित्र शास्त्र के अनेक अंशों को देखें जो "परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश" की व्याख्या करते हैं। (उत्पत्ति 19...