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शुक्रवार, 7 जून 2019

आज की आशीषों को तुम्हें संजोना चाहिए



  • I
  • जब ईश्वर हाथों से जग को ऊँचा करता है, लोग खुशी से झूमते हैं।
  • वे और दुखी नहीं रहते, वे उस पर निर्भर होते हैं।
  • जब ईश्वर अपना चेहरा छिपाता है, नीचे दबा कर लोगों को,
  • जल्द ही दम घुटता है उनका, मुश्किल से जीते हैं।
  • वे मृत्यु से डर कर परमेश्वर को पुकारते हैं।
  • क्योंकि वे देखना चाहते हैं वो दिन जब उसकी महिमा होगी।
  • ईश्वर ने कइयों को जग में भेजा और कइयों को निकाला है।
  • और ईश्वर के हाथों से कई गुज़रे।
  • कई आत्माएं अधोलोक में फेंकी गईं,
  • कई रहे हैं देह में, कई फिर से जन्मे हैं।
  • फिर भी कोई भी स्वर्ग के राज्य के आशीषों का आनंद न ले सका।
  • II
  • परमेश्वर का दिन परम है मानव के जीने के लिए।
  • उनमें तड़प है उसके महान दिन की, इसलिए वे जीवित हैं।
  • ईश्वर के मुँह से निकला आशीष है कि अंत के दिनों में,
  • लोग हैं ईश्वर की महिमा को निहारने के क़ाबिल।
  • समय के साथ छोड़ा जग को कइयों ने अनिच्छा और मायूसी से,
  • और कई आए दुनिया में आशा और आस्था के साथ।
  • ईश्वर ने कइयों को जग में भेजा और कइयों को निकाला है।
  • और ईश्वर के हाथों से कई गुज़रे।
  • कई आत्माएं अधोलोक में फेंकी गईं,
  • कई रहे हैं देह में, कई फिर से जन्मे हैं।
  • फिर भी कोई भी स्वर्ग के राज्य के आशीषों का आनंद न ले सका।
  •  
  • "वचन देह में प्रकट होता है" से
      चमकती पूर्वी बिजली, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया का सृजन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रकट होने और उनका काम, परमेश्वर यीशु के दूसरे आगमन, अंतिम दिनों के मसीह की वजह से किया गया था। यह उन सभी लोगों से बना है जो अंतिम दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करते हैं और उसके वचनों के द्वारा जीते और बचाए जाते हैं। यह पूरी तरह से सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से स्थापित किया गया था और चरवाहे के रूप में उन्हीं के द्वारा नेतृत्व किया जाता है। इसे निश्चित रूप से किसी मानव द्वारा नहीं बनाया गया था। मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है। परमेश्वर की भेड़ परमेश्वर की आवाज़ सुनती है। जब तक आप सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, आप देखेंगे कि परमेश्वर प्रकट हो गए हैं।

शुक्रवार, 17 मई 2019

अंत के दिनों के मसीह को त्यागने वाले सदा के लिए सज़ा पाएँगे



  • हो सकता है लोग परवाह न करें जो ईश्वर कहता है,
  • पर वो फिर भी कहना चाहता है
  • हरेक तथाकथित संत से जो यीशु का अनुसरण करता है।
  • I
  • जब तुम लोग यीशु को बादल पर उतरते हुए अपनी आँखों से देखोगे,
  • ये धार्मिकता के सूर्य का सार्वजनिक प्रकटन होगा।
  • तुम उत्साहित हो सकते हो यीशु को उतरते हुए देखने को,
  • लेकिन जानो कि यही समय है जब तुम नरक में दंडित किए जाओगे।
  • ये परमेश्वर की प्रबंधन योजना की समाप्ति की घोषणा होगी।
  • और परमेश्वर अच्छों को पुरस्कार और दुष्टों को दण्ड देगा।
  • परमेश्वर का न्याय मानव के संकेतों को देखने से पहले ख़त्म होता है,
  • उस समय जब सिर्फ़ सत्य की अभिव्यक्ति होती है।
  • II
  • वे जो सत्य स्वीकार करते हैं, संकेत नहीं खोजते, शुद्ध कर दिए गए हैं,
  • वे ईश्वर के सिंहासन के सामने लौटेंगे, उसके आलिंगन में प्रवेश करेंगे।
  • पर वे जो मानते हैं कि यीशु जो श्वेत बादल पर
  • सवारी नहीं करता एक झूठा मसीह है, वे हमेशा के लिए दंडित होंगे।
  • वे उस यीशु में विश्वास करते हैं जो संकेतों को दिखाता है,
  • उसमें नहीं जो कठोर न्याय करता, जीवन का सच्चा मार्ग बताता है।
  • इसलिए केवल यही हो सकता है कि यीशु उनके साथ तब निपटे
  • जब वो खुलेआम श्वेत बादल पर वापस लौटता है,
  • वापस लौटता है।
  •  
  • "वचन देह में प्रकट होता है" से

      चमकती पूर्वी बिजली, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया का सृजन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रकट होने और उनका काम, परमेश्वर यीशु के दूसरे आगमन, अंतिम दिनों के मसीह की वजह से किया गया था। यह उन सभी लोगों से बना है जो अंतिम दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करते हैं और उसके वचनों के द्वारा जीते और बचाए जाते हैं। यह पूरी तरह से सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से स्थापित किया गया था और चरवाहे के रूप में उन्हीं के द्वारा नेतृत्व किया जाता है। इसे निश्चित रूप से किसी मानव द्वारा नहीं बनाया गया था। मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है। परमेश्वर की भेड़ परमेश्वर की आवाज़ सुनती है। जब तक आप सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, आप देखेंगे कि परमेश्वर प्रकट हो गए हैं।

सोमवार, 6 मई 2019

तुम सच्चे और झूठे मार्गों में, और सच्ची और झूठी कलीसियाओं में अंतर कैसे बता सकते हो?

अध्याय 6 विभेदन के कई रूप जिन्हें परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में तुम्हें धारण करना चाहिए

      4. तुम सच्चे और झूठे मार्गों में, और सच्ची और झूठी कलीसियाओं में अंतर कैसे बता सकते हो?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

      सच्चे मार्ग की तलाश करने में सबसे बुनियादी सिद्धान्त क्या है? तुम्हें देखना होगा कि क्या इसमें पवित्र आत्मा का कार्य है कि नहीं, क्या ये वचन सत्य की अभिव्यक्ति हैं या नहीं, किसके लिए गवाही देनी है, और यह तुम्हारे लिए क्या ला सकता है। सच्चे मार्ग और गलत मार्ग के मध्य अंतर करने के लिए बुनियादी ज्ञान के कई पहलुओं की आवश्यकता होती है, जिनमें सबसे बुनियादी है यह बताना कि क्या इसमें पवित्र आत्मा का कार्य है या नहीं। क्योंकि परमेश्वर पर विश्वास का मनुष्य का सार पवित्र आत्मा पर विश्वास है, और यहाँ तक कि देहधारी परमेश्वर पर उसका विश्वास इसलिए है क्योंकि यह देह परमेश्वर के आत्मा का मूर्तरूप है, जिसका अर्थ यह है कि ऐसा विश्वास पवित्र आत्मा पर विश्वास है। आत्मा और देह के मध्य अंतर हैं, परन्तु क्योंकि यह देह पवित्रात्मा से आता है और वचन देहधारी होता है, इसलिए मनुष्य जिस में विश्वास करता है वह अभी भी परमेश्वर का अन्तर्निहित सार है। और इसलिए, इस बात का विभेद करने में कि यह सच्चा मार्ग है या नहीं, सर्वोपरि तुम्हें यह अवश्य देखना चाहिए कि क्या इसमें पवित्र आत्मा का कार्य है या नहीं, जिसके बाद तुम्हें अवश्य देखना चाहिए कि क्या इस मार्ग में सत्य है अथवा नहीं। यह सत्य सामान्य मानवता का जीवन स्वभाव है, अर्थात्, वह जो मनुष्य से तब अपेक्षित था कि जब परमेश्वर ने आरंभ में उसका सृजन किया था, यानि, सभी सामान्य मानवता (मानवीय भावना, अंतर्दृष्टि, बुद्धि और मनुष्य होने का बुनियादी ज्ञान) है। अर्थात्, तुम्हें यह देखने की आवश्यकता है कि क्या यह मार्ग मनुष्य को एक सामान्य मानवता के जीवन ले जाता है या नहीं, क्या बोला गया सत्य सामान्य मानवता की आवश्यकता के अनुसार अपेक्षित है या नहीं, क्या यह सत्य व्यवहारिक और वास्तविक है या नहीं, और क्या यह सबसे सही समय पर है या नहीं। यदि इसमें सत्य है, तो यह मनुष्य को सामान्य और वास्तविक अनुभवों में ले जाने में सक्षम है; इसके अलावा, मनुष्य हमेशा से अधिक सामान्य बन जाता है, मनुष्य का देह में जीवन और आध्यात्मिक जीवन हमेशा से अधिक व्यवस्थित हो जाता है, और मनुष्य की भावनाएँ और हमेशा से अधिक सामान्य हो जाती हैं। यह दूसरा सिद्धान्त है। एक अन्य सिद्धान्त है, जो यह है कि क्या मनुष्य के पास परमेश्वर का बढ़ता हुआ ज्ञान है या नहीं, क्या इस प्रकार के कार्य और सत्य का अनुभव करना उसमें परमेश्वर के लिए प्रेम को प्रेरित कर सकता है या नहीं, और उसे हमेशा से अधिक परमेश्वर के निकट ला सकता है या नहीं। इसमें यह मापा जा सकता है कि क्या यह सही मार्ग है अथवा नहीं। सबसे अधिक बुनियादी बात यह है कि क्या यह मार्ग अलौकिक के बजाए यर्थाथवादी है, और क्या यह मनुष्य का जीवन प्रदान करने में सक्षम है या नहीं। यदि यह इन सिद्धान्तों के अनुरूप है, तो निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह मार्ग सच्चा मार्ग है।…यदि यह पवित्र आत्मा का कार्य है, तो मनुष्य हमेशा से अधिक सामान्य बन जाता है, और उसकी मानवता हमेशा से अधिक सामान्य बन जाती है। मनुष्य को अपने स्वभाव का, जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है और मनुष्य के सार का बढ़ता हुआ ज्ञान होता है, और उसकी सत्य के लिए हमेशा से अधिक ललक होती है। अर्थात्, मनुष्य का जीवन अधिकाधिक बढ़ता जाता है और मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अधिकाधिक बदलावों में सक्षम हो जाता है – जिस सब का अर्थ है परमेश्वर का मनुष्य का जीवन बनना। यदि एक मार्ग उन चीजों को प्रकट करने में असमर्थ है जो मनुष्य का सार हैं, मनुष्य के स्वभाव को बदलने में असमर्थ है, और, इसके अलावा, उसे परमेश्वर के सामने लाने में असमर्थ है या उसे परमेश्वर की सच्ची समझ प्रदान कराने में असमर्थ है, और यहाँ तक कि उसकी मानवता का हमेशा से अधिक निम्न होने और उसकी भावना का हमेशा से अधिक असामान्य होने का कारण बनता है, तो यह मार्ग अवश्य सच्चा मार्ग नहीं होना चाहिए और यह दुष्टात्मा का कार्य, या पुराना मार्ग हो सकता है। संक्षेप में, यह पवित्र आत्मा का वर्तमान का कार्य नहीं हो सकता है। तुम लोगों ने इन सभी वर्षों में परमेश्वर पर विश्वास किया है, फिर भी तुम लोगों को सच्चे और गलत मार्ग के मध्य विभेदन करने या सच्चे मार्क की तलाश करने के सिद्धान्तों का कोई आभास नहीं है। अधिकांश लोगों की इन मामलों में दिलचस्पी भी नहीं होती है; वे सिर्फ़ वहाँ चल पड़ते हैं जहाँ बहुसंख्यक जाते हैं, और वह दोहरा देते हो जो बहुसंख्यक कहते हैं। यह कोई कैसा व्यक्ति है जो सत्य की खोज करता है? और इस प्रकार के लोग सच्चा मार्ग कैसे पा सकते हैं? यदि तुम इन अनेक मुख्य नियमों को समझ लो, तो चाहे जो कुछ भी हो जाए तुम धोखा नहीं खाओगे।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर को सन्तुष्ट कर सकते हैं" से

      वे सभी जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा के भीतर हैं वे पवित्र आत्मा की उपस्थिति एवं अनुशासन के अधीन हैं, और ऐसे लोग जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में नहीं हैं वे शैतान के नियन्त्रण में हैं, और वे पवित्र आत्मा के किसी भी कार्य से रहित हैं। वे लोग जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में हैं वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करते हैं, वे ऐसे मनुष्य हैं जो परमेश्वर के नए कार्य में सहयोग करते हैं। यदि इस मुख्य धारा के लोग सहयोग करने में असमर्थ होते हैं, और इस समय के दौरान उस सच्चाई का अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं जिसकी परमेश्वर के द्वारा अपेक्षा की गई है, तो उन्हें अनुशाषित किया जाएगा, और बहुत खराब स्थिति में उन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा छोड़ दिया जाएगा। ऐसे लोग जो पवित्र आत्मा के नए कार्य को स्वीकार करते हैं, वे पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में जीवन बिताएंगे, और पवित्र आत्मा की देखभाल एवं सुरक्षा को प्राप्त करेंगे। ऐसे लोग जो सत्य को अभ्यास रूप में लाने के इच्छुक हैं उन्हें पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध किया जाता है, और ऐसे लोग जो सत्य को अभ्यास में लाने के अनिच्छुक हैं, उन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा अनुशासित किया जाता है, और यहाँ तक कि उन्हें दण्ड भी दिया जा सकता है। इसकी परवाह न करते हुए कि वे किस किस्म के व्यक्ति हैं, इस शर्त पर कि वे पवित्र आत्मा की मुख्य धारा के अंतर्गत हों, परमेश्वर उन सब लोगों की ज़िम्मेदारी लेगा जो उसके नाम के निमित्त उसके नए कार्य को स्वीकार करते हैं। ऐसे लोग जो उसके नाम को गौरवान्वित करते हैं और वे उसके वचनों को अभ्यास में लाने के इच्छुक हैं और वे उसकी आशीषों को प्राप्त करेंगे; ऐसे लोग जो उसकी आज्ञाओं को नहीं मानते हैं और उसके वचनों को अभ्यास में नहीं लाते हैं वे उसके दण्ड को प्राप्त करेंगे। ... यह उन लोगों के लिए नहीं है जो नए कार्य को स्वीकार नहीं करते हैं: वे पवित्र आत्मा की मुख्य धारा से बाहर हैं, और पवित्र आत्मा का अनुशासन एवं फटकार उन पर लागू नहीं होता है। पूरे दिन, ऐसे लोग शरीर में जीवन बिताते रहते हैं, वे अपने मनों के भीतर ही जीवन बिताते हैं, और कुल मिलाकर जो कुछ वे करते हैं वह उस सिद्धान्त के अनुसार होता है जो उनके स्वयं के मस्तिष्क के विश्लेषण एवं अनुसंधान के द्वारा उत्पन्न हुआ है। यह पवित्र आत्मा के नए कार्य की अपेक्षाएं नहीं हैं, और यह परमेश्वर के साथ सहयोग तो बिलकुल भी नहीं है। ऐसे लोग जो परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार नहीं करते हैं वे परमेश्वर की उपस्थिति से वंचित रहते हैं, और, इसके अतिरिक्त, वे परमेश्वर की आशीषों एवं सुरक्षा से रहित होते हैं। उनके अधिकांश वचन एवं कार्य पवित्र आत्मा की पुरानी अपेक्षाओं को थामे रहते हैं; वे सिद्धान्त हैं, सत्य नहीं। ऐसे सिद्धान्त एवं रीति विधियां यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि वह एकमात्र चीज़ जो उन्हें एक साथ लेकर आती है वह धर्म है; वे चुने हुए लोग, या परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य नहीं हैं। उनके बीच के सभी लोगों की सभा को मात्र धर्म का महासम्मलेन कहा जा सकता है, और उन्हें कलीसिया नहीं कहा जा सकता है। ये एक अपरिवर्तनीय तथ्य है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य एवं मनुष्य का रीति व्यवहार" से

      ऐसा क्यों कहा जाता है कि धार्मिक कलीसियाओं के उन लोगों के रीति व्यवहार प्रचलन से बाहर हो गए हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि जिसे वे अभ्यास में लाते हैं वह आज के कार्य से अलग हो गया है। अनुग्रह के युग में, जिसे वे अभ्यास में लाते थे वह सही था, किन्तु चूँकि युग गुज़र चुका है और परमेश्वर का कार्य बदल चुका है, तो उनका रीति व्यवहार धीरे धीरे प्रचलन से बाहर हो गया है। इसे नए कार्य एवं नए प्रकाश के द्वारा पीछे छोड़ दिया गया है। इसके मूल बुनियाद के आधार पर, पवित्र आत्मा का कार्य कई कदम गहराई में बढ़ चुका है। फिर भी वे लोग परमेश्वर के कार्य की मूल अवस्था से अभी भी चिपके हुए हैं, और पुराने रीति व्यवहारों एवं पुराने प्रकाश पर अभी भी अटके हुए हैं। तीन या पाँच वर्षों में परमेश्वर का कार्य बड़े रूप में बदल सकता है, अतः क्या 2000 वर्षों के समयक्रम में और अधिक महान रूपान्तरण भी नहीं हुए होंगे? यदि मनुष्य के पास कोई नया प्रकाश या रीति व्यवहार नहीं है, तो इसका अर्थ है कि वह पवित्र आत्मा के कार्य के साथ साथ बना नहीं रहा। यह मनुष्य की असफलता है; परमेश्वर के नए कार्य के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि, आज, ऐसे लोग जिनके पास पवित्र आत्मा का मूल कार्य है वे अभी भी प्रचलन से बाहर हो चुके रीति व्यवहारों में बने रहते हैं। पवित्र आत्मा का कार्य हमेशा आगे बढ़ रहा है, और वे सभी जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में हैं उन्हें भी और अधिक गहराई में बढ़ना और कदम दर कदम बदलना चाहिए। उन्हें एक ही चरण पर रूकना नहीं चाहिए। ऐसे लोग जो पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर के मूल कार्य के मध्य बने रहेंगे, और वे पवित्र आत्मा के नए कार्य को स्वीकार नहीं करेंगे। ऐसे लोग जो अनाज्ञाकारी हैं केवल वे ही पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने में असमर्थ होंगे। यदि मनुष्य का रीति व्यवहार पवित्र आत्मा के नए कार्य के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलता है, तो मनुष्य के रीति व्यवहार को निश्चित रूप से आज के कार्य से हानि पहुंचता है, और यह निश्चित रूप से आज के कार्य के अनुरूप नहीं है। पुराने हो चुके ऐसे लोग साधारण तौर पर परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में असमर्थ होते हैं, और वे ऐसे अन्तिम लोग तो बिलकुल भी नहीं बन सकते हैं जो परमेश्वर की गवाही देने के लिए खड़े होंगे। इसके अतिरिक्त, सम्पूर्ण प्रबंधकीय कार्य को ऐसे लोगों के समूह के बीच में समाप्त नहीं किया जा सकता है। क्योंकि वे लोग जिन्होंने एक समय यहोवा की व्यवस्था को थामा था, और वे लोग जिन्होंने क्रूस के दुःख को सहा था, यदि वे अन्तिम दिनों के कार्य के चरण को स्वीकार नहीं कर सकते हैं, तो जो कुछ भी उन्होंने किया था वह सब बेकार एवं व्यर्थ होगा।…यदि मनुष्य एक ही अवस्था में चिपका रहता है, तो इससे प्रमाणित होता है कि वह परमेश्वर के कार्य एवं नए प्रकाश के साथ साथ बने रहने में असमर्थ है; इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि प्रबंधन की परमेश्वर की योजना परिवर्तित नहीं हुई है। ऐसे लोग जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा के बाहर हैं वे सदैव सोचते हैं कि वे सही हैं, किन्तु वास्तव में, उसके भीतर परमेश्वर का कार्य बहुत पहले ही रूक गया था, और पवित्र आत्मा का कार्य उनमें अनुपस्थित है। परमेश्वर का कार्य बहुत पहले ही लोगों के एक अन्य समूह को हस्तान्तरित हो चुका था, ऐसा समूह जिस पर उसने अपने नए कार्य को पूरा करने का इरादा किया है। क्योंकि ऐसे लोग जो किसी धर्म में हैं वे परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करने में असमर्थ हैं, और वे केवल भूतकाल के पुराने कार्य को ही थामे रहते हैं, इस प्रकार परमेश्वर ने इन लोगों को छोड़ दिया है, और उन लोगों पर अपना कार्य करता है जो उसके नए कार्य को स्वीकार करते हैं। ये ऐसे लोग हैं जो उसके नए कार्य में उसका सहयोग करते हैं, और केवल इसी रीति से ही उसके प्रबंधन को पूरा किया जा सकता है। परमेश्वर का प्रबंधन सदैव आगे बढ़ रहा है, तथा मनुष्य का रीति व्यवहार हमेशा से ऊँचा हो रहा है। परमेश्वर सदैव कार्य कर रहा है, और मनुष्य हमेशा अभावग्रस्त होता है, कुछ इस तरह कि दोनों अपने शिरोबिन्दु पर पहुंचते हैं, परमेश्वर एवं मनुष्य सम्पूर्ण एकता में हैं। यह परमेश्वर के कार्य की पूर्णता की अभिव्यक्ति है, और यह परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रबंधन का अन्तिम परिणाम है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य एवं मनुष्य का रीति व्यवहार" से

मनुष्य की सहभागिता:

      सच्चा मार्ग वह मार्ग है जो लोगों को बचा सकता है, लोगों को बदल सकता है, और उन्हें परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करने और वास्तविक नियति में प्रवेश करने में समर्थ बनाता है। केवल यही सच्चा मार्ग है। यदि लोग सोचते हैं कि वे सच्चे मार्ग पर विश्वास करते हैं, किंतु फिर भी ये लक्ष्य और प्रभाव प्राप्त नहीं हुए हैं, तब यह कहा जा सकता है कि उनका मार्ग झूठा मार्ग है, कि यह सच्चा मार्ग नहीं है। कुछ लोग कहते हैं: "मैं कैसे सकारात्मक और नकारात्मक के बीच का अंतर बताऊँ?" यह परमेश्वर के वचनों के आधार पर संपन्न होती है। वह सब जो परमेश्वर के द्वारा अनुमोदित किया जाता है, वह सब जो वह अपेक्षा करता है कि मनुष्य धारण करे, और वह सब जो वह पसंद करता है कि मनुष्य करे, वह सब सकारात्मक है; वह सब जो परमेश्वर अपेक्षा करता है कि मनुष्य अस्वीकार करे और त्याग दे, वह सब जिसकी परमेश्वर निंदा करता है, वह नकारात्मक है। इस प्रकार से, सकारात्मक और नकारात्मक का मूल्यांकन का निर्णय परमेश्वर के वचनों के आधार पर किया जाता है; परमेश्वर के वचन वह कसौटी है, जो सत्यापित करती है कि क्या कोई बात सच्ची है या झूठी, और वे ही इस बात के लिए एकमात्र मानक हैं कि क्या कोई बात सत्य है या झूठ। तुम कैसे तय करते हो कि कौन सा मार्ग सत्य है, और कौन सा झूठ है? वह मार्ग जो तुम्हें सच्चा जीवन देता है, वह जिससे तुम प्रकाश को देखते हो, और जो तुम्हें शैतान की भ्रष्टता और उसके प्रभाव से छुटकारा पाने की अनुमति देता है, और परमेश्वर के अनुमोदन और आशीषों को पाने में सक्षम बनाता है—वही सच्चा मार्ग है। क्या यह बात सही नहीं है? परमेश्वर का न्याय और ताड़ना हमारे लिए क्या लाया है? यह उन सभी सत्यों को लाया है जिन्हें भ्रष्ट मानवजाति को उद्धार पाने के लिए अवश्य धारण करना चाहिए, यह जीवन का सच्चा मार्ग लाया है, इसने हमें जीवन का प्रकाश देखने दिया है, इसने हमें सबसे बड़ा उद्धार, और सच्चा उद्धार दिया है, जिसे परमेश्वर द्वारा संसार के सृजन के समय से पूर्व नियत कर दिया गया था, और उसने हमें ऐसे लोगों से जो शैतान के द्वारा भ्रष्ट किये गए थे, और शैतान से संबंधित थे, वास्तविक लोगों में रूपांतरित कर दिया है जिन्हें परमेश्वर के द्वारा वास्तव में शुद्ध किया जा चुका है, और जो सत्य और मानवता से संपन्न हैं। ये सभी परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के द्वारा, अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य के द्वारा प्राप्त किए गए प्रभाव हैं। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना हम सत्य को पाने में समर्थ नहीं हो सकते हैं, हमारी भ्रष्टता अनसुलझी रहेगी, हम कभी भी जीवन के प्रकाश को देखने में समर्थ नहीं होंगे, और कभी भी परमेश्वर का अनुमोदन नहीं करेंगे। इस प्रकार, आज हमनें जितने भी आशीष प्राप्त किए हैं वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने और आज्ञापालन करने का परिणाम हैं।

........

      कुछ लोग कहते हैं: "अरे, यदि यह सच्चा मार्ग है तो इसमें इतने कम लोग क्यों शामिल हुए हैं? चूँकि यह सच्चा मार्ग है, इसलिए क्या इसमें बहुत से विश्वासियों को नहीं होना चाहिए? क्या समस्त मानवजाति को इसमें विश्वास नहीं करना चाहिए? क्या समस्त मानवजाति को विश्वास नहीं करना चाहिए?" ऐसे बात करने वाले लोग सत्य को नहीं समझते हैं, वे मंद दृष्टि हैं। समस्त मानवजाति की भ्रष्टता एक सीमा तक बढ़ चुकी है; बहुत कम लोग सत्य से प्रेम करते हैं, अधिकाधिक लोग अपने हितों का अनुसरण करते हैं, और इस बात की परवाह किए बिना कि वे किस विश्वास को स्वीकार करेंगे, वे सबसे पहले यह देखते हैं कि क्या यह उनके लिए लाभदायक है—जिसका अर्थ है कि जो सच्चे मार्ग पर विश्वास करते हैं उनकी संख्या निश्चित रूप से कम होती है, और जो झूठे मार्गों पर और उन मार्गों पर विश्वास करते हैं जिनसे उन्हें अनुग्रह और लाभ मिलता है, वे निश्चित रूप में संख्या में अधिक होंगे। मेरी यह व्याख्या सुनने के बाद तुम मामले के सार की वास्तविक प्रकृति का पता लगाने में समर्थ हो जाओगे। हम जिस मार्ग पर विश्वास करते हैं, वह लोगों को चंगा नहीं करता, रोटी से उनके पेट नहीं भरता है, या उन्हें अनुग्रह नहीं देता है या उनमें से दुष्टात्माओं को नहीं निकालता है। किन्तु यदि हम अपने विश्वास के मार्ग में एक बात जोड़ दें—कि जब विश्वासियों पर कोई भी विपदा पड़ेगी तो वे नहीं मरेंगे—तब संसार के सभी लोग उस पर विश्वास करेंगे। आज, यह बात हमारे मार्ग में शामिल नहीं है। परमेश्वर ने नहीं कहा है, "मैं गारंटी देता हूँ कि जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम पर विश्वास करते हैं नहीं मरेंगे|" इसलिए, जब तुम सुसमाचार का प्रचार-प्रसार करते हो, तो तुम सावधान रहते हो। लोग पूछते हैं, "इसलिए यदि मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर विश्वास करता हूँ तो क्या मैं नहीं मरूँगा?" "मैं नहीं जानता।" "यदि वह मुझे मरने से रोक नहीं सकता है, तो उस पर विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है।" लोग यह भी पूछेंगे, "सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर विश्वास करने से मुझे क्या प्राप्त होगा?" "तुम सत्य को पा सकते हो।" "सत्य पाने से मुझे क्या मिलेगा?" "तुम जीवित बचे रहोगे।" "ऐसा किसने देखा है? कौन गारंटी दे सकता है? सत्य को पाने का क्या अर्थ है?" "मैं नहीं जानता।" "मैं किसी भी तरह से विश्वास नहीं कर सकता हूँ।" इस प्रकार, सर्वशक्तिमान की गवाही देना और सुसमाचार का प्रचार-प्रसार करना हमारे लिए कठिन है, क्योंकि जो सत्य से प्रेम करते हैं वे संख्या में अतिशय कम है। यह सत्य है। फिर भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने के बाद, जितना अधिक हम विश्वास करते हैं, उतना ही अधिक महसूस करते हैं कि वह वास्तविक है, और उतना ही अधिक हमारा विश्वास प्रबल बन जाता है। ऐसा क्यों है? यह सत्य को समझने का प्रभाव है। कोई व्यक्ति सत्य को जितना अधिक समझता है, उतना ही अधिक वह समझता है कि यह सच्चा मार्ग और परमेश्वर का काम है। वे सत्य को जितना अधिक समझते हैं उतना ही अधिक वे स्वयं से कहते हैं "ओह! परमेश्वर द्वारा मनुष्य का इस प्रकार से उद्धार कितना अधिक वास्तविक है, सत्य को समझना वास्तव में मुझे बचा सकता है, मेरे स्वभाव में परिवर्तन ला सकता है, मुझे एक सच्चा मनुष्य बना सकता है, और मुझे सामान्य मानवता का वास्तविक जीवन जीने में सहायता कर सकता है—और इसलिए, इस मार्ग का अर्थ है।" वे अनुभव करते हैं कि सत्य को प्राप्त करना अधिक अर्थपूर्ण, योग्य और किसी भी लाभ, बीमारों की चंगा करने, या लोगों का पेट रोटी से भरने की अपेक्षा बहुमूल्य है। परिणाम स्वरूप, जो बहुत वर्षों से सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर विश्वास करते हैं वे महसूस करते हैं कि कोई भी अनुग्रह जो उन्हें दिया जा सकता है वह कोई बहुमूल्य नहीं है, यह कि केवल सत्य को पाना ही बहुमूल्य है। और इस में, उन्होंने सच्चे मार्ग को देख लिया है। देखो, क्या वे सब जो सर्वशक्तिमान पर विश्वास करते हैं उनमें से कोई भागा है? यद्यपि कुछ लोग सत्य की खोज नहीं करते हैं, फिर भी जब तक उन्होंने कुछ वर्षों तक प्रचार सुना है, तब तक क्या वे पीछे हटना चाहेंगे? उनमें से कोई नहीं चाहेगा। और वे क्यो नहीं चाहेंगे? वे जो जानते हैं वह है कि "यही सच्चा मार्ग है, जब तक मैं परिश्रम करूँगा, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह पूरा करूँगा, तब इस बात की बहुत संभावना है कि मैं जीवित बचा रहूँगा, कि मेरा अंत मृत्यु नहीं होगा। मृत्यु न होना बहुत मूल्यवान है।" आज, लोग नहीं जानते कि मृत्यु से बचने के लिए क्या अपेक्षित है। जैसे ही वे जान जाएँगे, तभी हर कोई विश्वासी बन जाएगा, और उनका विश्वास मज़बूत हो जाएगा।

      जीवन में प्रवेश के विषय में संगति एवं प्रवचन (VI) में "परमेश्वर के कार्य का पालन करने के लिए चार आधारभूत पाठ जिनमें प्रवेश आवश्यक है" से

      यदि संपूर्ण धार्मिक समुदाय इसके प्रति शत्रुतापूर्ण और विरोध में नहीं होते, तो यह सत्य मार्ग नहीं होता। स्मरण रखें: सत्य के अधिकांश मार्ग का लोगों द्वारा, यहाँ तक कि समस्त संसार द्वारा भी विरोध अवश्य किया जाना चाहिए। जब प्रभु यीशु पहली बार कार्य करने और उपदेश देने आया, तो क्या समस्त यहूदीवादियों ने उसका विरोध नहीं किया था? हर बार जब भी परमेश्वर नया काम आरंभ करता है, तो भ्रष्ट मानवजाति को इसे स्वीकार करने में बड़ी कठिनाई होती है, क्योंकि परमेश्वर का कार्य मनुष्यों की धारणाओं के असंगत होता है और उनका खण्डन करता है; लोगों में समझने की क्षमता का अभाव है, और आध्यात्मिक क्षेत्र में घुसने में अक्षम हैं, और यदि यह पवित्र आत्मा के कार्य के लिए नहीं होता, तो वे सच्चे मार्ग को स्वीकार करने में असमर्थ होते। यदि इसे परमेश्वर का काम मान लिया जाता, किन्तु धार्मिक समुदाय द्वारा उसका विरोध नहीं किया जाता, और संसार की ओर से विरोध और शत्रुता का अभाव होता, तो इससे साबित होता कि परमेश्वर का यह कार्य झूठा है। मानवजाति सत्य को स्वीकार करने में असमर्थ क्यों है? सबसे पहले, मनुष्य देह का है, वह भौतिक सार वाला है। भौतिक वस्तुएँ आध्यात्मिक क्षेत्र में घुसने में असमर्थ हैं। "आध्यात्मिक क्षेत्र में घुसने में असमर्थ" का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है, आत्माओं को, आत्माओं और आध्यात्मिक क्षेत्र की गतिविधियों को देखने में असमर्थ होना, परमेश्वर क्या कर और कह रहा है वह अनदेखा रह जाना। लोग आध्यात्मिक क्षेत्र में अंधे हो जाएँगे। यदि तुम भौतिक जगत में आँखें बंद कर लो, तो तुम्हें कुछ नहीं दिखाई देता है। जब तुम उन्हें खोलते हो, तो तुम क्या देख सकते हो? भौतिक जगत। क्या तुम देख सकते हो कि कौन सी आत्मा लोगों में क्या करती है? क्या तुम देख सकते हो कि परमेश्वर का आत्मा क्या करने और कहने आया है? तुम नहीं देख सकते हो। कभी-कभी तुम्हें उसकी आवाज सुनाई दे सकती है, तुम पुस्तक में लिखे परमेश्वर के वचनों को पढ़ सकते हो, पर फिर भी तुम नहीं जानते हो कि परमेश्वर ने कैसे या कब इन वचनों को कहा। तुम उसकी आवाज को सुन सकते हो, पर तुम नहीं जानते हो कि वह कहाँ से आती है; तुम पृष्ठ पर मुद्रित परमेश्वर के वचनों को देखते हो, किन्तु तुम नहीं जानते हो कि उनका अर्थ क्या है। लोग आध्यात्मिक क्षेत्र में घुसने, या परमेश्वर के वचनों के स्रोत को समझने में असमर्थ हैं, और इसलिए प्रभावों को प्राप्त करने के लिए उन्हें पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्धता और रोशनी, और पवित्र आत्मा के कार्य की आवश्यकता है। दूसरा, मानवजाति बहुत गहराई तक भ्रष्ट है, उसके भीतर शैतान का बहुत सा विष और बहुत सा ज्ञान भरा हुआ है, यदि वह हर चीज का मूल्यांकन शैतान की विभिन्न दार्शनिकताओं और उसके ज्ञान का उपयोग करके करता है, तो वह कभी भी यह स्थापित करने में समर्थ नहीं होगा कि सत्य क्या है। पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्धता और रोशनी के बिना मनुष्य सत्य को समझने में अक्षम होगा। भ्रष्ट मानवजाति सहज प्रवृत्ति में आध्यात्मिक जगत में घुसने करने में अक्षम है। वह शैतान की दार्शनिकता और ज्ञान से भरी हुई है, और सत्य की पहचान करने में असमर्थ है। और इसलिए सच्चे मार्ग को अपरिहार्य रूप में मनुष्य के उत्पीड़न और अस्वीकरण के अधीन किया जाता है। मनुष्य के लिए शैतान के ज्ञान और उसकी दार्शनिकता को स्वीकार करना क्यों आसान है? सबसे पहले, क्योंकि यह उनकी धारणाओं और उनके देह के हितों के अनुरूप है, और यह उनकी देह के लिए लाभदायक है। वे अपने आप से कहते हैं कि, "इस तरह के ज्ञान को स्वीकार करना मेरी सहायता करता है: यह मेरी उन्नति करवाएगा, यह मुझे सफल बनाएगा, और मुझे वस्तुओं को प्राप्त करने की अनुमति देगा। इस तरह के ज्ञान के साथ लोग मेरी ओर देखेंगे।" देखो कि कैसे जिन बातों से लोगों लाभ मिलता है वे उनकी धारणाओं के अनुरूप हैं। ... इस हद तक भ्रष्ट हो जाने और आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने में असमर्थ हो जाने पर, लोग केवल परमेश्वर का विरोध ही कर सकते हैं, और इस प्रकार परमेश्वर के कार्य के आगमन को मनुष्य का अस्वीकरण, विरोध और निंदा ही मिली है। क्या यह अपेक्षित नहीं है? यदि परमेश्वर के काम के आगमन को संसार और मानवजाति की ओर से निंदा और विरोध नहीं मिला होता, तो इससे यह साबित होता कि यह सत्य नहीं है। यदि परमेश्वर द्वारा कही गई सब बातें लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती, तो क्या वे उसकी भर्त्सना करते? क्या वे उसका विरोध करते? वे निश्चित रूप से नहीं करते।

      "फेलोशिप एण्ड प्रीचिंग ऑफ दी अबव कनसर्निग स्प्रेडिंग द गॉस्पल" से

      केवल ऐसी कलीसिया जो पवित्र आत्मा के कार्य से संपन्न है ही परमेश्वर की कलीसिया है, और यदि इसमें ऐसे लोग हैं जो सचमुच सत्य की खोज करते हैं और परमेश्वर के कार्य का आज्ञपालन करते हैं केवल तभी कोई कलीसिया पवित्र आत्मा के कार्य से संपन्न हो सकती है; परमेश्वर उन कलीसियाओं को मान्यता देता है जिनमें पवित्र आत्मा का कार्य होता है, और उन कलीसियाओं को मान्यता नहीं देता है जो पवित्र आत्मा के कार्य से रहित होती हैं। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा समझ लिया जाना चाहिए।

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      एक वास्तविक कलीसिया उन लोगों से बनती है जो परमेश्वर में सचमुच विश्वास करते हैं और सत्य से प्रेम करते हैं, और यह उन लोगों की मण्डली है जो परमेश्वर से डरते हैं। केवल तभी यह कलीसिया कहला सकती है। ... केवल ऐसे लोगों की एक मण्डली ही एक कलीसिया है जो परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत और चयन किए जा चुके हैं और पवित्र आत्मा के कार्य से संपन्न हैं।

      कलीसिया के कार्य की सहभागिता और प्रबन्धों के वार्षिक वृतांत (II) में "स्थानीय कलीसिया के मध्य गड़बड़ी पर कैसे चर्चा करें और सुलझाएं" से

      कलीसिया उनसे बनती है जो परमेश्वर के द्वारा सचमुच पूर्वनियत और चयन किए जा चुके हैं—यह उनसे बनती है जो सत्य से प्रेम करते हैं, सत्य की खोज करते हैं, और पवित्र आत्मा के काम से संपन्न हैं। केवल जब ऐसे लोग परमेश्वर के वचन को खाने और पीने, कलीसियाई जीवन जीने, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, और परमेश्वर के प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए एकत्रित होते हैं तभी यह एक कलीसिया हो सकती है। यदि एक जमावड़ा कहता है कि वह सचमुच परमेश्वर पर विश्वास करता है, किन्तु सत्य से प्रेम या सत्य की खोज नहीं करता है, और पवित्र आत्मा के कार्य से रहित है, और धार्मिक रीति-रिवाजों, और प्रार्थनाओं को करता है, और परमेश्वर के वचनों को पढ़ता है, तो वह कलीसिया नहीं है। अधिक सटीकता से, पवित्र आत्मा के कार्य से रहित कलीसियाएँ कलीसियाएँ नहीं हैं; वे केवल धार्मिक स्थल हैं और ऐसे लोग हैं जो धार्मिक समारोह करते हैं। वे वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करने वाले और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने वाले लोग नहीं हैं।

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      कलीसिया उन लोगों का समूह है जो परमेश्वर पर सचमुच विश्वास करते हैं और सत्य की खोज करते हैं, और उनमें कोई भी दुष्ट नहीं होता है—वे कलीसिया से संबंधित नहीं होते हैं। यदि ऐसे लोगों का एक समूह एक साथ इकट्ठा होता है जिन्होंने सत्य की खोज नहीं की और सत्य को अभ्यास में लाने के लिए कुछ नहीं किया, तो क्या यह कोई कलीसिया होगी? यह क्या होगा? यह एक धार्मिक स्थल या कोई जमावड़ा होगा। कलीसिया अवश्य ऐसे लोगों से बनी होनी चाहिए जो परमेश्वर पर सचमुच विश्वास करते हैं और सत्य की खोज करते हैं, जो लोग परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, और परमेश्वर की आराधना करते हैं, अपने कर्तव्य को करते हैं, और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं और पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त कर चुके हैं। केवल यही एक कलीसिया है। इस प्रकार, जब तुम कलीसिया का मूल्यांकन करते हो, तो तुम्हें सबसे पहले यह अवश्य देखना चाहिए कि उसमें किस प्रकार के लोग हैं। दूसरा, तुम्हें अवश्य देखना चाहिए कि उनमें पवित्र आत्मा का कार्य है या नहीं; यदि उनकी सभा पवित्र आत्मा के कार्य से रहित है, तो वह कलीसिया नहीं है, और यदि यह उन लोगों का जनसमूह नहीं है जो सत्य की खोज करते हैं, तो यह कलीसिया नहीं है। यदि किसी कलीसिया में एक भी ऐसा नहीं है जो सचमुच सत्य की खोज करता है, और वह पवित्र आत्मा के कार्य से सर्वथा रहित है, तब यदि इसमें कोई व्यक्ति हो जो सत्य की खोज करना चाहता हो, और वह ऐसी कलीसिया में बना रहता है, तो क्या उस व्यक्ति को बचाया जा सकता है? उन्हें नहीं बचाया जा सकता है, और उन्हें उस जमावड़े को छोड़ देना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके किसी कलीसिया को ढूँढना चाहिए। यदि, किसी कलीसिया के भीतर, तीन या पाँच ऐसे लोग हों जो सत्य की खोज करते हों, और 30 या 50 ऐसे लोग हों जो केवल जमावड़ा हों, तो उन तीन या पाँच लोगों को जो परमेश्वर पर वास्तव में विश्वास करते हैं और सत्य की खोज करते हैं एक साथ इकट्ठा हो जाना चाहिए; यदि वे एक साथ एकत्रित हो जाते हैं तो उनका जनसमूह तब भी एक कलीसिया, बहुत कम सदस्यों वाली एक कलीसिया है, किन्तु जो शुद्ध है।

      जीवन में प्रवेश के विषय में संगति एवं प्रवचन (VII) में "कलीसिया के वास्तविक अर्थ को समझना और अंतिम समय में कलीसिया का कार्य पांच सिद्धांतों के अनुसार करना अति महत्वपूर्ण है" से

      बहुत से लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं किन्तु प्रधान गिरजाघरों की आराधना करते हैं और पादरियों पर अंधा विश्वास करते हैं—परिणाम यह होता है कि परमेश्वर पर कई वर्षों तक विश्वास करने के बाद, उन्होंने अभी तक सत्य को नहीं समझा है या वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, उन्होने कुछ धार्मिक सिद्धांतों और धार्मिक अनुष्ठानों और अभ्यासों को प्राप्त कर लिया है, और वे परमेश्वर को वास्तव में नहीं जानते हैं। परिणाम स्वरूप, उनके जीवन स्वभाव में जरा सा भी परिवर्तन नहीं हुआ है। आश्चर्य नहीं कि, तब ऐसे धार्मिक अगुवे और पादरी अपना पूरा जीवन परमेश्वर पर विश्वास करते हुए और उपदेश देते हुए व्यतीत करते हैं, और फिर भी उनमें से एक भी परमेश्वर को वास्तव में नहीं जानता है, या ऐसा हृदय नहीं रखता है जो परमेश्वर से डरता हो; वे आरंभिक दिनों के फरीसियों के समान बने रहते हैं, मसीह का विरोध करने के लिए अपनी पूरी कोशिश करते हुए, सच्चे मार्ग की निंदा करते है, और अपनी स्वयं की हैसियत और आजीविका के वास्ते परमेश्वर के चुने हुए लोगों को फुसलाते और उन पर नियंत्रण करते हैं। वे अपने आप को परमेश्वर के झुंड को इतना प्रेम करने वाला और सँजोने वाला विशुद्ध रूप से अपनी आजीविका को बचाने के लिए प्रकट करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि व्यापारी लोग पैसा बनाने और धनी बनने के लिए अपने ग्राहकों को ईश्वर जैसा मानते हैं। धार्मिक समुदाय जो भी करता है वह परमेश्वर के प्रति इसके विरोध की एक अभिव्यक्ति है; धार्मिक अनुष्ठान के अलावा और कुछ नहीं है, और सत्य की जरा सी भी वास्तविकता से युक्त नहीं होती है, और इसमें पवित्र आत्मा के कार्य का जरा सा अंश भी नहीं होता है। स्पष्ट है कि धार्मिक समुदाय सच्चे परमेश्वर की नहीं, बल्कि अस्पष्ट और काल्पनिक परमेश्वर की आराधना करता है। यह धार्मिक सिद्धांतों, और बाइबल के शाब्दिक ज्ञान का उपदेश देता है, और यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी से पूरी तरह से रहित है। इसलिए, धार्मिक समुदाय मूलरूप से लोगों को परमेश्वर के सामने लाने में अक्षम है, यह लोगों की परमेश्वर पर विश्वास करने के सही मार्ग पर अगुवाई नहीं कर सकता है, और, इसके अतिरिक्त, यह लोगों को सत्य की वास्तविकता में ले जाने में, या उन्हें बचाए जाने में उनकी सहायता करने में असमर्थ है। इसका कारण यह है कि इसके अगुवों और पादरियों को परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते समय पवित्र आत्मा के द्वारा पूर्ण नहीं किया गया और बनाया नहीं गया है, बल्कि इसके बजाय वे किसी शिक्षालय से स्नातक होने और डिप्लोमा दिए जाने के बाद धार्मिक समुदाय में अगुवे या पादरी बन गये हैं। उनमें पवित्र आत्मा के कार्य और पुष्टि के बिना हैं, उनके पास परमेश्वर का जरा सा भी सच्चा ज्ञान नहीं है, और उनके मुँह केवल आध्यात्मविद्या संबंधी का ज्ञान और सिद्धांतों के अलावा और कुछ नहीं बोल सकते हैं। उन्होंने वास्तव में कुछ भी अनुभव नहीं किया है। ऐसे लोग परमेश्वर के द्वारा उपयोग किये जाने के सर्वथा अयोग्य है; वे कैसे परमेश्वर के सामने लोगों की अगुवाई कर सकते हैं? वे अपनी पात्रता के साक्ष्य के रूप में शिक्षालय से प्राप्त स्नातकता को अहंकार के साथ दर्शाते हैं, वे बाइबल के अपने ज्ञान पर इठलाने के लिए जो कुछ भी कर सकते हैं, करते हैं, वे असह्य रूप से अभिमानी हैं—और इस कारण से, परमेश्वर द्वारा उनकी निंदा की जाती है, और परमेश्वर द्वारा उनसे घृणा की जाती है, और ये पवित्र आत्मा का कार्य खो चुके हैं। इस बारे में कोई संदेह नहीं है। क्यों धार्मिक समुदाय मसीह का प्राणघातक शत्रु बन गया है एक बहुत विचारोत्तेजक प्रश्न है। क्या यह इस बात को दर्शाता है कि, अनुग्रह के युग में, यहूदीवादियों ने यीशु मसीह को सलीब पर चढ़ाया था? अंत के दिनों के राज्य के युग में धार्मिक समुदाय ने एकता बनाई है और अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य का विरोध और आलोचना करने में पूरे प्रयास समर्पित किए, यह अंत के दिनों में मसीह के देहधारण को इनकार और अस्वीकृत करता है, इसने देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर की कलीसिया के बारे में बहुत सी अफवाहें बनाई, और इनके विरुद्ध आक्रमण किए, इनका तिरस्कार किया, और ईशनिंदा की है, और इसने बहुत पहले ही लौटकर आये, अंत के दिनों के मसीह, यीशु को सलीब पर चढ़ा दिया है। यह प्रमाणित करता है कि धार्मिक समुदाय बहुत पहले से ही शैतान की सेनाओं में पतित हो चुका है जो परमेश्वर का विरोध और उसके प्रति विद्रोह करती हैं। धार्मिक समुदाय परमेश्वर के द्वारा शासित नहीं होता है, और यह सत्य के द्वारा तो बिल्कुल भी शासित नहीं होता है; वह पूरी तरह से भ्रष्ट मानवों, और उससे भी अधिक मसीह के विरोधियों के द्वारा शासित होता है।

      जब लोग परमेश्वर पर इस तरह के—एक ऐसे जो शैतान से संबंधित है और दुष्टात्माओं तथा महीस के विरोधियों के द्वारा शासित और नियंत्रित होती है—धार्मिक स्थलों में विश्वास करते हैं तो वे केवल धार्मिक सिद्धांतों को समझने में सक्षम होते है, वे केवल धार्मिक अनुष्ठानों और विनियमों का पालन कर सकते हैं, और वे कभी भी सत्य को नहीं समझेंगे, परमेश्वर के काम का अनुभव नहीं करेंगे, और बचाए जाने में सर्वथा अक्षम हैं। यह परम सिद्धांत है। क्योंकि धार्मिक स्थलों में पवित्र आत्मा के कार्य के बारे में कुछ भी नहीं है, और ये ऐसे स्थान हैं जो परमेश्वर को अप्रिय हैं, जिनसे परमेश्वर घृणा करता है, और जिन्हें परमेश्वर निंदित और श्रापित करता है। परमेश्वर ने धर्म को कभी भी मान्यता नहीं दी, इसकी प्रशंसा को कभी भी बिल्कुल नहीं की है, और यीशु के समय से ही धार्मिक समुदाय की परमेश्वर द्वारा निंदा की गई है। इसलिए, जब तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो तो तुम्हें उन स्थानों को अवश्य खोजना चाहिए जो पवित्र आत्मा के कार्य से युक्त हों; केवल ये ही सच्ची कलीसिया हैं, और केवल सच्ची कलीसियाओं में ही तुम परमेश्वर की वाणी को सुनने, और परमेश्वर के कार्य के पदचिह्नों को खोजने में समर्थ होगे। यही वे साधन हैं जिनके द्वारा परमेश्वर की खोज की जाती है।

      कलीसिया के कार्य की सहभागिता और प्रबन्धों के वार्षिक वृतांत (I) में, "वास्तव में सत्य को समझने के प्रभाव" से


स्रोत


सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कथन | तुम सच्चे और झूठे मार्गों में, और सच्ची और झूठी कलीसियाओं में अंतर कैसे बता सकते हो?

रविवार, 5 मई 2019

तुम सच्चे मसीह और झूठे मसीहों के बीच अंतर को कैसे बता सकते हो?

अध्याय 6 विभेदन के कई रूप जिन्हें परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में तुम्हें धारण करना चाहिए

      3. तुम सच्चे मसीह और झूठे मसीहों के बीच अंतर को कैसे बता सकते हो?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

      परमेश्वर देहधारी हुआ और मसीह कहलाया, और इसलिए वह मसीह, जो लोगों को सत्य दे सकता है, परमेश्वर कहलाता है। इसके बारे में और कुछ भी अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह परमेश्वर के तत्व को स्वयं में धारण किए रहता है, और अपने कार्य में परमेश्वर के स्वभाव और बुद्धि को धारण करता है, और ये चीजें मनुष्य के लिये अप्राप्य हैं। जो अपने आप को मसीह कहते हैं, फिर भी परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकते, वे सभी धोखेबाज़ हैं। मसीह पृथ्वी पर केवल परमेश्वर की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि वह देह है जिसे धारण करके परमेश्वर लोगों के बीच रहकर कार्य पूर्ण करता है। यह वह देह नहीं है जो किसी भी मनुष्य के द्वारा प्रतिस्थापित कियाजा सके, बल्कि वह देह है, जो परमेश्वर के कार्य को पृथ्वी पर अच्छी तरह से करता है और परमेश्वर के स्वभाव को अभिव्यक्त करता है, और अच्छी प्रकार से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है, और मनुष्य को जीवन प्रदान करता है। कभी न कभी, उन धोखेबाज़ मसीह का पतन होगा, हालांकि वे मसीह होने का दावा करते हैं, किंतु उनमें किंचितमात्र भी मसीह का सार-तत्व नहीं होता। इसलिए मैं कहता हूं कि मसीह की प्रमाणिकता मनुष्य के द्वारा परिभाषित नहीं की जा सकती है, परन्तु स्वयं परमेश्वर के द्वारा उत्तर दिया और निर्णय लिया जा सकता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल अंतिम दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनन्त जीवन का मार्ग दे सकता है" से

      जो देहधारी परमेश्वर है, वह परमेश्वर का सार धारण करेगा, और जो देहधारी परमेश्वर है, वह परमेश्वर की अभिव्यक्ति धारण करेगा। चूँकि परमेश्वर देहधारी हुआ, वह उस कार्य को प्रकट करेगा जो उसे अवश्य करना चाहिए, और चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया, तो वह उसे अभिव्यक्त करेगा जो वह है, और मनुष्यों के लिए सत्य को लाने के समर्थ होगा, मनुष्यों को जीवन प्रदान करने, और मनुष्य को मार्ग दिखाने में सक्षम होगा। जिस शरीर में परमेश्वर का सार नहीं है, निश्चित रूप से वह देहधारी परमेश्वर नहीं है; इस बारे में कोई संदेह नहीं है। यह पता लगाने के लिए कि क्या यह देहधारी परमेश्वर है, मनुष्य को इसका निर्धारण उसके द्वारा अभिव्यक्त स्वभाव से और उसके द्वारा बोले वचनों से अवश्य करना चाहिए। कहने का अभिप्राय है, कि वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है या नहीं, और यह सही मार्ग है या नहीं, इसे परमेश्वर के सार से तय करना चाहिए। और इसलिए, यह निर्धारित करने[क] में कि यह देहधआरी परमेश्वर का शरीर है या नहीं, बाहरी रूप-रंग के बजाय, उसके सार (उसका कार्य, उसके वचन, उसका स्वभाव और बहुत सी अन्य बातें) पर ध्यान देना ही कुंजी है। यदि मनुष्य केवल उसके बाहरी रूप-रंग को ही देखता है, उसके तत्व की अनदेखी करता है, तो यह मनुष्य की अज्ञानता और उसके अनाड़ीपन को दर्शाता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "प्रस्तावना" से

      देहधारी परमेश्वर मसीह कहलाता है, तथा मसीह परमेश्वर के आत्मा के द्वारा धारण किया गया देह है। यह देह किसी भी मनुष्य की देह से भिन्न है। यह भिन्नता इसलिए है क्योंकि मसीह मांस तथा खून से बना हुआ नहीं है बल्कि आत्मा का देहधारण है। उसके पास सामान्य मानवता तथा पूर्ण परमेश्वरत्व दोनों हैं। उसकी दिव्यता किसी भी मनुष्य द्वारा धारण नहीं की जाती है। उसकी सामान्य मानवता देह में उसकी समस्त सामान्य गतिविधियों को बनाए रखती है, जबकि दिव्यता स्वयं परमेश्वर के कार्य करती है। चाहे यह उसकी मानवता हो या दिव्यता, दोनों स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति समर्पित हैं। मसीह का सार पवित्र आत्मा, अर्थात्, दिव्यता है। इसलिए, उसका सार स्वयं परमेश्वर का है; यह सार उसके स्वयं के कार्य में बाधा उत्पन्न नहीं करेगा, तथा वह संभवतः कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकता है जो उसके स्वयं के कार्य को नष्ट करता हो, ना वह ऐसे वचन कहेगा जो उसकी स्वयं की इच्छा के विरूद्ध जाते हों।



       यद्यपि मसीह देह में परमेश्वर स्वयं का प्रतिनिधित्व करता है तथा व्यक्तिगत रूप में वह कार्य करता है जिसे परमेश्वर स्वयं को करना चाहिए, किन्तु वह स्वर्ग में परमेश्वर के अस्तित्व को नहीं नकारता है, ना ही वह उत्तेजनापूर्वक अपने स्वयं के कर्मों की घोषणा करता है। बल्कि, वह विनम्रतापूर्वक अपनी देह के भीतर छिपा रहता है। मसीह के अलावा, जो मसीह होने का झूठा दावा करते हैं उनके पास उसकी विशेषताएँ नहीं होती हैं। अभिमानी तथा आत्म-प्रशंसा करने के स्वभाव वाले झूठे मसीहों से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार की देह में वास्तव में मसीह है। जितने अधिक वे झूठे होते हैं, उतना ही अधिक इस प्रकार के झूठे मसीहे स्वयं का दिखावा करते हैं, तथा लोगों को धोखा देने के लिये वे और अधिक संकेतों और चमत्कारों को करने में समर्थ होते हैं। झूठे मसीहों के पास परमेश्वर के गुण नहीं होते हैं; मसीह पर झूठे मसीहों से संबंधित किसी भी तत्व का दाग नही लगता है। परमेश्वर केवल देह का कार्य पूर्ण करने के लिये देहधारी होता है, मात्र सब मनुष्यों को उसे देखने देने की अनुमति देने के लिए नहीं। बल्कि, वह अपने कार्य से अपनी पहचान की पुष्टि होने देता है, तथा जो वह प्रकट करता है उसे अपने सार को प्रमाणित करने की अनुमति देता है। उसका सार निराधार नहीं है; उसकी पहचान उसके हाथ द्वारा जब्त नहीं की गई है; यह उसके कार्य तथा उसके सार द्वारा निर्धारित की जाती है।

      मसीह का कार्य तथा अभिव्यक्ति उसके सार को निर्धारित करते हैं। वह अपने सच्चे हृदय से उस कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है जो उसे सौंपा गया है। वह सच्चे हृदय से स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है, तथा सच्चे हृदय से परमपिता परमेश्वर की इच्छा खोजने में सक्षम है। यह सब उसके सार द्वारा निर्धारित किया जाता है। और इसी प्रकार से उसका प्राकृतिक प्रकाशन भी उसके सार द्वारा निर्धारित किया जाता है; उसके स्वाभाविक प्रकाशन का ऐसा कहलाना इस वजह से है कि उसकी अभिव्यक्ति कोई नकल नहीं है, या मनुष्य द्वारा शिक्षा का परिणाम, या मनुष्य द्वारा अनेक वर्षों संवर्धन का परिणाम नहीं है। उसने इसे सीखा या इससे स्वयं को सँवारा नहीं; बल्कि, यह उसके अन्दर अंतर्निहित है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का वास्तविक सार है" से

      यदि, वर्तमान समय में, कोई व्यक्ति उभर कर आता है जो चिह्नों और चमत्कारों को प्रदर्शित करने, पिशाचों को निकालने, और चंगाई करने में और कई चमत्कारों को करने में समर्थ है, और यदि यह व्यक्ति दावा करता है कि यह यीशु का आगमन है, तो यह दुष्टात्माओं की जालसाजी और उसका यीशु की नकल करना होगा। इस बात को स्मरण रखें! परमेश्वर एक ही कार्य को दोहराता नहीं है। यीशु के कार्य का चरण पहले ही पूर्ण हो चुका है, और परमेश्वर फिर से उस चरण के कार्य को पुनः नहीं दोहराएगा। परमेश्वर का कार्य मनुष्य की सभी अवधारणाओं के असंगत है; उदाहरण के लिए, पुराने नियम में मसीहा के आगमन के बारे में पहले से ही बताया गया है, परन्तु यह पाया गया कि यीशु आया, इसलिए एक अन्य मसीहा का फिर से आना गलत होगा। यीशु एक बार आ चुका है, और इस समय यदि यीशु को फिर से आना होता तो यह गलत होता। प्रत्येक युग के लिए एक नाम है और प्रत्येक नाम युग के द्वारा चिन्हित किया जाता है। मनुष्य की अवधारणाओं में, परमेश्वर को अवश्य हमेशा चिह्न और चमत्कार दिखाने चाहिए, हमेशा चंगा करना और पिशाचों को निकालना चाहिए, और हमेशा यीशु के ही समान अवश्य होना चाहिए, फिर भी इस समय परमेश्वर इन सब के समान बिल्कुल भी नहीं है। यदि अंत के दिनों के दौरान, परमेश्वर अभी भी चिह्नों और चमत्कारों को प्रदर्शित करता है और अभी भी दुष्टात्माओं को निकालता और चंगा करता है—यदि वह यीशु के ही समान करता है—तो परमेश्वर एक ही कार्य को दोहरा रहा होगा, और यीशु के कार्य का कोई महत्व या मूल्य नहीं होगा। इस प्रकार, प्रत्येक युग में परमेश्वर कार्य के एक ही चरण को करता है। एक बार जब उसके कार्य का प्रत्येक चरण पूरा हो जाता है, तो शीघ्र ही इसकी दुष्टात्माओं के द्वारा नकल की जाती है, और शैतान द्वारा परमेश्वर का करीब से पीछा करने के बाद, परमेश्वर एक दूसरे तरीके में बदल देता है; एक बार परमेश्वर अपने कार्य का एक चरण पूर्ण कर लेता है, तो इसकी दुष्टात्माओं द्वारा नकल कर ली जाती है। तुम लोगों को इन बातों के बारे में अवश्य स्पष्ट हो जाना चाहिए।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "आज परमेश्वर के कार्य को जानना" से

      कुछ ऐसे लोग हैं जो दुष्टात्माओं के द्वारा ग्रसित हैं और लगातार चिल्लाते रहते हैं, "मैं ईश्वर हूँ!" फिर भी अंत में, वे खड़े नहीं रह सकते हैं, क्योंकि वे गलत प्राणी की ओर से काम करते हैं। वे शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं और पवित्र आत्मा उन पर कोई ध्यान नहीं देता है। तुम अपने आपको कितना भी बड़ा ठहराओ या तुम कितनी भी ताकत से चिल्लाओ, तुम अभी भी एक सृजित प्राणी ही हो और एक ऐसे प्राणी हो जो शैतान से सम्बन्धित है। मैं कभी नहीं चिल्लाता हूँ, कि मैं ईश्वर हूँ, मैं परमेश्वर का प्रिय पुत्र हूँ! परन्तु जो कार्य मैं करता हूँ वह परमेश्वर का कार्य है। क्या मुझे चिल्लाने की आवश्यकता है? बड़ा ठहराने की कोई आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर अपना काम स्वयं करता है और उसे मनुष्य से कोई आवश्यकता नहीं है कि वह उसे हैसियत या सम्मानसूचक पदवी प्रदान करें, और उसकी पहचान और हैसियत को दर्शाने के लिए उसका काम ही पर्याप्त है। उसके बपतिस्मा से पहले, क्या यीशु स्वयं परमेश्वर नहीं था? क्या वह परमेश्वर का देहधारी देह नहीं था? निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि केवल उसके लिए गवाही दिए जाने के पश्चात् ही वह परमेश्वर का इकलौता पुत्र बना गया? क्या उसके द्वारा काम आरम्भ करने से बहुत पहले ही यीशु नाम का कोई व्यक्ति नहीं था? तुम नए मार्ग नहीं ला सकते हो या पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हो। तुम पवित्र आत्मा के कार्य को या उन वचनों को व्यक्त नहीं कर सकते हो जिन्हें वह कहता है। तुम परमेश्वर स्वयं के या पवित्रात्मा के कार्य को नहीं कर सकते हो। तुम परमेश्वर की बुद्धि, अद्भुत काम, और अगाधता को, या उस सम्पूर्ण स्वभाव को व्यक्त नहीं कर सकते हो जिसके द्वारा परमेश्वर मनुष्य को ताड़ना देता है। अतः परमेश्वर होने के तुम्हारे बार-बार के दावों से कोई फर्क नहीं पड़ता है; तुम्हारे पास सिर्फ़ नाम है और सार में से कुछ भी नहीं है। परमेश्वर स्वयं आ गया है, किन्तु कोई भी उसे नहीं पहचाता है, फिर भी वह अपना काम जारी रखता है और पवित्र आत्मा के प्रतिनिधित्व में ऐसा ही करता है। चाहे तुम उसे मनुष्य कहो या परमेश्वर, प्रभु कहो या मसीह, या उसे बहन कहो, सब सही है। परन्तु जिस कार्य को वह करता है वह पवित्रात्मा का है और स्वयं परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। वह उस नाम के बारे में परवाह नहीं करता है जिसके द्वारा मनुष्य उसे पुकारते है। क्या वह नाम उसके काम का निर्धारण कर सकता है? इस बात की परवाह किए बिना कि तुम उसे क्या कहते हो, परमेश्वर के दृष्टिकोण से, वह परमेश्वर के आत्मा का देहधारी देह है; वह पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व करता है और उसके द्वारा अनुमोदित है। तुम एक नए युग के लिए मार्ग नहीं बना सकते हो, और तुम पुराने युग का समापन नहीं कर सकते हो और एक नए युग का सूत्रपात या नया कार्य नहीं कर सकते हो। इसलिए, तुम्हें परमेश्वर नहीं कहा जा सकता है!

       "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (1)" से

      यदि कोई मनुष्य अपने आप को परमेश्वर कहता हो मगर अपनी दिव्यता को व्यक्त करने में, परमेश्वर स्वयं का कार्य करने में, या परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ हो, तो वह निसंदेह ही परमेश्वर नहीं है, क्योंकि उसमें परमेश्वर का सार नहीं है, और परमेश्वर जो अंतर्निहित रूप से प्राप्त कर सकता है वह उसके भीतर विद्यमान नहीं है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर" से

      उन झूठे मसीहाओं, झूठे भविष्यवक्ताओं और धोखेबाजों के मध्य, क्या ऐसे लोग भी नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर कहा जाता है? और क्यों वे परमेश्वर नहीं हैं? क्योंकि वे परमेश्वर का कार्य करने में असमर्थ हैं। मूल में वे मनुष्य ही हैं, लोगों को धोखा देने वाले हैं, न कि परमेश्वर; और इस प्रकार उनके पास परमेश्वर की पहचान नहीं है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "पद नामों एवं पहचान के सम्बन्ध में" से

मनुष्य की सहभागिता:

      हम सब ने जिन्होंने अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है एक तथ्य को स्पष्ट रूप से देखा हैः प्रत्येक बार जब परमेश्वर कार्य के नए चरण को करता है, शैतान और उसकी विभिन्न दुष्ट आत्माएँ, लोगों को बहकाने के लिए उसके कार्य का अनुकरण करते हुए और उसे झूठा ठहराते हुए, उसके कदमों के निशानों का अनुसरण करती हैं। यीशु ने चंगा किया, और दुष्ट आत्माओं को निकाला, और इसलिए, शैतान और दुष्ट आत्माएँ भी चंगा करती हैं और दुष्ट आत्माओं को निकालती हैं; पवित्र आत्मा ने मनुष्य को भाषाओं का वरदान दिया, और इसलिए, दुष्ट आत्माएँ भी लोगों से "भाषाएँ" बुलवाती हैं जिसे कोई नहीं समझता है। और फिर भी, यद्यपि दुष्ट आत्माएँ विभिन्न चीज़ों को करती हैं जो मनुष्य की जरूरतों में बढ़ावा देती हैं, और उसे ठगने के लिए कुछ अलौकिक क्रियाएँ करती हैं, क्योंकि न तो शैतान के पास और न ही दुष्ट आत्माओं के पास थोड़ा सा भी सत्य है, इसलिए वे कभी भी मनुष्य को सत्य देने में समर्थ नहीं होंगी। केवल इस बिन्दु से ही सच्चे मसीह और झूठे मसीहों के बीच अंतर करना संभव है।

      ...देह में साकार हो कर, परमेश्वर का आत्मा विनम्रता से और गुप्त रूप से कार्य करता है, और जरा सी भी शिकायत के बिना मनुष्य की सारी पीड़ा का अनुभव करता है। मसीह के रूप में, परमेश्वर ने अपने आप में कभी इतराहट नहीं दिखाई है, या शेखी नहीं बघारी है, और उसने अपने पद का घमंड तो बिल्कुल भी नहीं किया है, या आत्मतुष्ट नहीं हुआ है, जो परमेश्वर की आदरणीयता और पवित्रता को पूरी तरह से जगमगाता है। यह परमेश्वर के जीवन के सर्वोच्च आदरणीय सार को प्रदर्शित करता है, और यह दर्शाता है कि वह प्रेम का मूर्त रूप है। झूठे मसीहों एवं दुष्ट आत्माओं का कार्य मसीह के कार्य के बिल्कुल विपरीत हैः किसी भी अन्य चीज़ से पहले, दुष्ट आत्माएँ हमेशा चिल्लाती हैं कि वे मसीह हैं, और वे कहती हैं कि यदि तुम उनकी बातों को नहीं सुनते हो तो तुम राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते हो। लोग उन से मुलाकात करें इसके लिए वे वह सब कुछ करती हैं जो वे कर सकती हैं, वे शेखी बघारती हैं, स्वयं में इतराती हैं, और डींग मारती हैं, या फिर लोगों को ठगने के लिए कुछ चिन्हों अद्भुत कामों को करती हैं—और जब इन लोगों को ठग दिया जाता है तथा ये लोग उनका काम स्वीकार कर लेते हैं, तो उसके बाद वे बिना कानाफूसी किए एकाएक ढह जाते हैं क्योंकि उन्हें सत्य प्रदान किए हुए काफी समय बीत चुका है। इसके अनेकानेक उदाहरण हैं। क्योंकि झूठे मसीह सत्य, मार्ग और जीवन नहीं हैं, इसलिए उनके पास कोई मार्ग नहीं है, और जो उनका अनुसरण करते हैं वे आज नहीं तो कल अपमानित किए जाएँगे — किन्तु तब तक वापस जाने के लिए बहुत देर हो जाएगी। और इसलिए, यह एहसास करना सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि केवल मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है। झूठे मसीह एवं दुष्ट आत्माएँ निश्चित रूप से सत्य से विहीन हैं; इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे कितना कहते हैं, या वे कितनी पुस्तकें लिखते हैं, उन में से किसी में भी थोड़ा सा भी सत्य नहीं है। यह परम सिद्धांत है। केवल मसीह ही सत्य को व्यक्त करने में समर्थ है, और यह सच्चे मसीह एवं झूठे मसीहों के बीच अंतर करने की कुंजी है। इतना ही नहीं, मसीह ने कभी भी लोगों को उसे अभिस्वीकृत करने या पहचानने के लिए बाध्य नहीं किया। क्योंकि जो उस पर विश्वास करते हैं, उनके लिए सत्य और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है, और जिस मार्ग पर वे चलते हैं वह और भी अधिक प्रकाशमान हो जाता है, जिससे यह साबित होता है कि केवल मसीह ही लोगों को बचाने में समर्थ है, क्योंकि मसीह ही सत्य है। झूठे मसीह केवल कुछ वचनों की ही नक़ल कर सकते हैं, या ऐसी बातें कह सकते हैं जो काले को सफेद में मरोड़ती हैं। वे सत्य से रहित हैं, और वे लोगों के लिए केवल अंधकार, विनाश एवं दुष्ट आत्माओं के कार्य ला सकती हैं।

      "झूठे मसीह एवं मसीह विरोधियों के द्वारा बहकाने के मामलों के सूक्ष्म परीक्षण की प्रस्तावना" से

      झूठे मसीहों को कैसे पहचाना जा सकता है? यह बहुत सरल है। तुम उन से कहो: "जारी रहो, बात करो। तुम्हें क्या चीज मसीह बनाती है? कुछ कहो कि परमेश्वर का स्वरूप कैसा है, और यदि तुम इसे नहीं कह सकते हो, तो लिख कर बताना भी ठीक है? दिव्यता द्वारा व्यक्त किए गए कुछ वचनों को बताओ—जारी रहो, मेरे लिए कुछ लिखो। तुम्हें मानवता के कुछ वचनों की नक़ल करने में कोई समस्या नहीं है। कुछ और कहो, तीन घण्टे तक बोलो और देखो कि क्या तुम ऐसा कर सकते हो। मेरे साथ तीन घण्टे तक सत्य की संगति करो, परमेश्वर क्या है उसके बारे में, और उसके कार्य के इस चरण के बारे में बात करो, मेरे लिए स्पष्ट रूप से बोलो, इसकी कोशिश करो और देखो। और यदि तुम नहीं बोल सकते हो, तो तुम नकली हो, और एक दुष्ट आत्मा हो। सच्चा मसीह कई दिनों तक बिना किसी समस्या के बोल सकता है, और सच्चे मसीह ने लाखों से भी अधिक वचनों को व्यक्त किया है—और उसने अभी तक समाप्त नहीं किया है। वह कितना बोल सकता है इसकी कोई सीमा नहीं है, वह किसी भी समय या किसी भी स्थान पर बोल सकता है, और संपूर्ण संसार में उसके वचनों को किसी भी मनुष्य के द्वारा लिखा नहीं जा सका है। क्या उन्हें किसी ऐसे के द्वारा लिखा जा सकता है जो दिव्य नहीं है? क्या ऐसा व्यक्ति इन वचनों को बोल सकता है? तुम जो झूठे मसीह हो दिव्यता से रहित हो, और तुम्हारे भीतर परमेश्वर का पवित्र आत्मा नहीं है। तुम परमेश्वर के वचनों को बोलने में कैसे समर्थ हो सकते हो? तुम परमेश्वर के कुछ वचनों की नक़ल कर सकते हो, किन्तु तुम इसके लिए कितनी दूर तक जा सकते हो? कोई भी व्यक्ति जिसके पास दिमाग है वह कुछ वचनों को स्मरण कर सकता है, इसलिए एक घण्टे तक बोलो, दो घण्टे तक सत्य की संगति करो—इसकी कोशिश करो और देखो|" यदि तुम उनके साथ इस प्रकार से डटे रहते हो, तो वे सभी को बेनकाब हो जाएँगे, वे सभी भौंचक्के हो जाएँगे, और वे भाग जाएँगे। क्या ऐसा मामला नहीं है? तुम लोग क्या कहते हो, क्या यह ऐसा ही नहीं है? उन से यह कहो: मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है, अतः मेरे सुनने, या पढ़ने के लिए मसीह की सच्चाईयों को व्यक्त करो। यदि तुम व्यक्त कर सकते हो, तो तुम मसीह हो, और यदि तुम व्यक्त नहीं कर सकते हो, तो तुम दुष्ट आत्मा हो! सच्चे मसीह और झूठे मसीहों के बीच अंतर बताना आसान है। झूठे मसीह और मसीह विरोधी सत्य से रहित होते हैं; जो कोई भी सत्य से सम्पन्न है वह मसीह है, और जिस किसी में भी सत्य का अभाव है वह मसीह नहीं है। क्या ऐसा मामला नहीं है। उनसे कहो: "यदि तुम व्यक्त नहीं कर सकते हो कि मसीह क्या है, या परमेश्वर क्या है, और तुम कहते हो कि तुम मसीह हो, तो तुम झूठ बोल रहे हो। मसीह ही सत्य है—आओ देखें कि सत्य के कितने वचन तुम व्यक्त कर सकते हो। यदि तुम कुछ ही वचनों की नक़ल करते हो, तो तुम उन्हें जारी नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम मात्र उनकी नक़ल कर रहे हो। तुमने उन्हें चुराया है, वे एक नक़ल हैं|" अब तुम यही चाहते थे—झूठे मसीह को पहचानने के लिए बस इतना ही लगता है। ... आओ हम एक तथ्य के बारे में बात करें: जब परमेश्वर प्रकट हुआ तो वह कैसे प्रकट हुआ। जब परमेश्वर ने कार्य करना प्रारम्भ किया, तब उसने यह नहीं कहा कि वह परमेश्वर है, उसने ऐसा नहीं कहा। परमेश्वर ने कई वचन व्यक्त किए, और जब उसने लाखों वचन व्यक्त किए, तब भी उसने नहीं कहा कि वह परमेश्वर है। लाखों वचन—यह एक सम्पूर्ण पुस्तक है, तीन या चार सौ पन्ने—और तब भी उसने नहीं कहा कि वह परमेश्वर है। पवित्र आत्मा के द्वारा प्रबुद्ध एवं रोशन किए जाने के बाद, कुछ लोगों ने कहाः "आहा, ये परमेश्वर के वचन हैं, यह पवित्र आत्मा की आवाज़ है!" शुरूआत में, उनका मानना था कि यह पवित्र आत्मा की आवाज़ है; बाद में, उन्होंने कहा कि यह सात पवित्रात्माओं की, सात गुना तीव्र पवित्रात्मा की आवाज़ है। उन्होंने इसे "सात पवित्रात्माओं की आवाज़", या "पवित्र आत्मा के कथन" कहा था। यही उन्होंने प्रारम्भ में विश्वास किया था। केवल बाद में ही, जब परमेश्वर ने बहुत से वचन, लाखों वचन कहे, उसके बाद ही, उसने गवाही देनी आरंभ की कि देहधारण क्या है, और वचन का देह में प्रकट होना क्या है—और केवल तभी लोगों ने, यह कहते हुए, जानना आरम्भ किया: "आहा! परमेश्वर देह बन गया है। यह उस परमेश्वर का देहधारण है जो हम से बात करता है!" देखो परमेश्वर का कार्य कितना अदृष्ट और विनम्र है। अंततः, जब परमेश्वर ने अपने सभी वचनों को व्यक्त करना समाप्त कर दिया जो उसे अवश्य व्यक्त करने चाहिए थे, उसके बाद, जब उसने कार्य किया और उपदेश दिए, तब भी उसने नहीं कहा था कि वह परमेश्वर है, तब भी उसने कभी नहीं कहा कि, "मैं परमेश्वर हूँ! तुम लोगों को मुझे अवश्य सुनना चाहिए।" उसने कभी भी ऐसा नहीं बोला। फिर भी झूठे मसीह थोड़े से वचनों को कहने से पहले ही कहते हैं कि वे मसीह हैं। क्या वे नकली नहीं हैं? सच्चा परमेश्वर अदृष्ट एवं विनम्र है, और कभी भी अपने आप पर इतराता नहीं है; दूसरी ओर, शैतान और दुष्ट आत्माएँ, अपने आप पर इतराते हैं, जो कि उनको पहचानने का एक अन्य तरीका है।

      जीवन में प्रवेश के विषय में संगति एवं प्रवचन (I) में "प्रश्नों के उत्तर" से

      अब, यदि लोग तुम लोगों को ठगने की कोशिश करें, तो देखो कि वे परमेश्वर की आवाज़ हो व्यक्त करने में समर्थ हैं या नहीं। इससे इस बात की पुष्टि हो जाएगी कि वे दिव्य सार से संपन्न हैं या नहीं। यदि वे परमेश्वर के स्वरूप के बारे में बोलने में असमर्थ हैं, और परमेश्वर की चीज़ों एवं उसकी आवाज़ को व्यक्त करने में असमर्थ हैं, तो वे निश्चित रूप से परमेश्वर के सार से रहित हैं, और इसलिए वे नक़ली हैं। ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं: हमने कुछ लोगों को ऐसे वचन बोलते हुए सुना है जिसे कोई नहीं कह सकता है। वे भविष्यवाणी बोल सकते हैं, और बिना किसी घबराहट के चीज़ों के बारे में बोल सकते हैं जिन्हें कोई जान या देख नहीं सकता है—इसलिए क्या वे परमेश्वर हैं? जब ऐसे लोगों की बात आती है तो तुम लोग अंतर को कैसे बता सकते हो? जैसा कि अभी-अभी कहा गया है, यदि वे परमेश्वर हैं, तो उन्हें परमेश्वर के स्वरूप के बारे में बोलने में समर्थ अवश्य होना चाहिए, और परमेश्वर के राज्य के रहस्यों के बारे में बोलने में समर्थ अवश्य होना चाहिए; केवल ऐसे किसी को ही परमेश्वर का देहधारण होना कहा जा सकता है। यदि ऐसे लोग हैं जो ऐसी चीज़ों को बोलने में समर्थ हैं जिन्हें अन्य लोग नहीं जानते हैं, तो कौन उन्हें उनके भविष्य के बारे में बता सकता है, और कह सकता है कि उनके देशों का क्या होगा, ये आवश्यक रूप से परमेश्वर के वचन नहीं हैं; दुष्ट आत्माएँ भी ऐसी चीज़ों को करने में सक्षम होती हैं। उदाहरण के लिए, यदि आज तुम उन से कहो: "भविष्य में मेरे साथ क्या होगा?" तो वे तुम्हें बताएँगी कि किस प्रकार की आपदा तुम्हारे ऊपर आएगी, या वे तुम्हें बताएँगी कि तुम कब मरोगे, या अन्यथा वे तुम्हें बताएँगी कि तुम्हारे परिवार के साथ क्या होगा। बहुत से उदाहरणों में, ये चीज़ें सच में हो जाती हैं। किन्तु इस प्रकार की चीज़ों को बोलने में समर्थ होना वह होना नहीं है जो परमेश्वर है, न ही परमेश्वर के कार्य का एक भाग होना है। तुम्हें इस बिन्दु के विषय में स्पष्ट अवश्य हो जाना चाहिए। ये तुच्छ मामले हैं जिनमें दुष्ट आत्माओं को महारत हासिल है; परमेश्वर ऐसी चीज़ों में शामिल नहीं होता है। देखो कि हर बार जब भी परमेश्वर ने देहधारण किया है तो उसने क्या कार्य किया है। परमेश्वर मानवजाति को बचाने का कार्य करता है, वह यह भविष्यवाणी नहीं करता है कि लोगो के साथ क्या होगा, वे कितने समय तक जीवित रहेंगे, उनके कितने बच्चे होंगे, या कब उन पर विपत्ति आएगी। क्या परमेश्वर ने कभी ऐसी चीज़ों की भविष्यवाणी की है? उसने नहीं की है। अब, तुम लोग क्या कहते हो, क्या परमेश्वर ऐसी चीज़ों को जानता है? निस्संदेह वह जानता है, क्योंकि उसने आकाश और पृथ्वी और सभी चीज़ों को बनाया है। केवल परमेश्वर ही उन्हें भली-भाँति जानता है, जबकि जो कुछ दुष्ट आत्माएँ जानती हैं उसकी एक सीमा है। दुष्ट आत्माएँ क्या जानने में सक्षम हैं? दुष्ट आत्माएँ किसी व्यक्ति, या एक देश, या एक जाति की नियति को जानती हैं। किन्तु वे परमेश्वर के प्रबन्धन के बारे में कुछ नहीं जानती हैं, वे नहीं जानते हैं कि मानवजाति का अंत क्या है, या मानवजाति की सच्ची मंज़िल कहाँ है, और वे यह तो बिल्कुल भी नहीं जानती हैं कि कब संसार का अंत होगा और परमेश्वर के राज्य का आगमन होगा, या राज्य के सुन्दर दृश्य किस के समान होंगे। वे इस बारे में कुछ भी नहीं जानती हैं, उन में कोई भी नहीं जानता है। केवल परमेश्वर ही ऐसे मामलों को जानता है, और इसलिए परमेश्वर सर्वज्ञ है, जबकि जो दुष्ट आत्माएँ जानती हैं वह बहुत ही सीमित हैं। हम जानते हैं कि संसार के सबसे बड़े भविष्यद्वक्ताओं ने कहा था कि अंत के दिनों में क्या होगा, और आज उनके वचन पूरे हो गए हैं—किन्तु वे नहीं जानते थे कि अंत के दिनों के दौरान परमेश्वर कौन सा काम करता है, और इस बारे में तो वे बिल्कुल भी नहीं जानते थे कि परमेश्वर क्या प्राप्त करने आया है, या सहस्राब्दि राज्य किस प्रकार आएगा, या कौन परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करेगा और जीवित रहेगा। इसके अतिरिक्त, न ही वे इस बारे में कुछ जानते थे कि बाद में परमेश्वर के राज्य में क्या होगा। कोई दुष्ट आत्मा ऐसे मामलों को नहीं जानती है; केवल परमेश्वर स्वयं ही जानता है, और इसलिए दुष्ट आत्माएँ ऐसा कुछ भी जानने में पूरी तरह से अक्षम हैं जो परमेश्वर की प्रबन्धन योजना से संबंधित है। यदि तुम उन से कहो कि, "मेरी नियति क्या है? मेरे परिवार के साथ क्या होगा?" तो कुछ दुष्ट आत्माएँ तुम्हें स्पष्ट उत्तर देने में समर्थ होंगी। किन्तु यदि तुम उन से कहो कि, "भविष्य में, क्या परमेश्वर पर विश्वास में मुझे कोई मंज़िल मिलेगी? क्या मैं जीवित बचा रहूँगा?" तो उन्हें पता नहीं होगा। दुष्ट आत्माएँ जो कुछ जानती हैं उसमें वे बहुत ही सीमित होती हैं। यदि कोई दुष्ट आत्मा केवल कुछ सीमित चीज़ों को ही बोल सकती है, तो क्या वह परमेश्वर हो सकती है? वह नहीं हो सकती है—वह एक दुष्ट आत्मा है। जब कोई दुष्ट आत्मा लोगों से ऐसी चीज़ें कह सकती है जिन्हें वे नहीं जानते हैं, उनके भविष्य के बारे में उन्हें बता सकती है, और यहाँ तक कि यह भी बता सकती है कि वे किसके समान हुआ करते थे और उन चीज़ों के बारे में बता सकती है जो उन्होंने की हैं, यदि ऐसे लोग हैं जो यह सोचते हैं कि यह वास्तव में दिव्य है, तो क्या ऐसे लोग हास्यास्पद नहीं हैं? इस से यह साबित होता है कि तुम परमेश्वर के बारे में पूरी तरह से अनजान हो। तुम दुष्ट आत्माओं के छोटे-मोटे कौशलों को अत्यंत दिव्य के रूप में देखते हो, और उनके साथ परमेश्वर के जैसे बर्ताव करते हो। क्या तुम परमेश्वर की सर्वशक्ति को जानते हो? इसलिए, यदि आज हमारे पास परमेश्वर की सर्वशक्ति और उसके कार्य का ज्ञान है, तो कोई भी दुष्ट आत्मा, इस बात की परवाह किए बिना कि वह कौन से चिन्हों एवं अद्भुत कामों को करती है, हमें ठग नहीं सकती है, क्योंकि हम न्यूनतम इस बारे में निश्चित हो सकते हैं कि: दुष्ट आत्माएँ सत्य नहीं हैं, वे परमेश्वर के कार्य को करने में समर्थ नहीं हैं, वे सृष्टिकर्त्ता नहीं हैं, वे मनुष्य को बचाने में अक्षम हैं, और वे मानवजाति को केवल भ्रष्ट कर सकती हैं।

      जीवन में प्रवेश के विषय में संगति एवं प्रवचन (II) में "परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य के बीच अंतर" से


रोत


सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कथन | तुम सच्चे मसीह और झूठे मसीहों के बीच अंतर को कैसे बता सकते हो?

गुरुवार, 2 मई 2019

भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर के उद्धार की अधिक आवश्यकता है

परमेश्वर देहधारी इसलिए बना क्योंकि उसके कार्य का लक्ष्य शैतान की आत्मा, या कोई अभौतिक चीज़ नहीं, बल्कि मनुष्य है, जो माँस से बना है और जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है। ऐसा निश्चित रूप से मनुष्य की देह को भ्रष्ट कर देने की वजह से है कि परमेश्वर ने हाड़-माँस के मनुष्य को अपने कार्य का लक्ष्य बनाया है; इसके अतिरिक्त, क्योंकि मनुष्य भ्रष्टता का लक्ष्य है, इसलिए उसने उद्धार के अपने कार्य के समस्त चरणों के दौरान मनुष्य को अपने कार्य का एकमात्र लक्ष्य बनाया है। मनुष्य एक नश्वर प्राणी है, और वह हाड़-माँस तथा लहू से बना है, और एकमात्र परमेश्वर ही है जो मनुष्य को बचा सकता है। इस तरह से, परमेश्वर को अपना कार्य करने के लिए ऐसा देह बनना होगा जो मनुष्य के समान ही गुणों को धारण करता हो, ताकि उसका कार्य बेहतर प्रभावों को प्राप्त कर सके। परमेश्वर को अपने कार्य को ठीक तरह से करने के लिए निश्चित रूप से इसलिए देहधारण करना होगा क्योंकि मनुष्य हाड़-माँस से बना है, और पाप पर विजय पाने में या स्वयं को शरीर से वंचित करने में अक्षम है। यद्यपि देहधारी परमेश्वर का सार और उसकी पहचान, मनुष्य के सार और उसकी पहचान से बहुत अधिक भिन्न है, फिर भी उसका रूप-रंग मनुष्य के समान है, उसके पास किसी सामान्य व्यक्ति का रूप-रंग है, और वह एक सामान्य व्यक्ति का जीवन जीता है, और जो लोग उसे देखते हैं वे उसे किसी सामान्य व्यक्ति से भिन्न नहीं समझ सकते हैं। यह सामान्य रूप-रंग और सामान्य मानवता उसके सामान्य मानवता में अपने दिव्य कार्य को करने के लिए पर्याप्त है। उसका देह उसे सामान्य मानवता में अपना कार्य करने देता है, और मनुष्य के बीच अपने कार्य को करने में उसकी सहायता करता है, और, इसके अतिरिक्त, सामान्य मानवता मनुष्य के बीच उद्धार के कार्य को कार्यान्वित करने में उसकी सहायता करती है। यद्यपि उसकी सामान्य मानवता ने मनुष्य के बीच में काफी कोलाहल मचा दिया है, फिर भी ऐसे कोलाहल ने उसके कार्य के सामान्य प्रभावों पर कोई असर नहीं डाला है। संक्षेप में, उसके सामान्य देह का कार्य मनुष्य के लिए सर्वाधिक लाभदायक है। यद्यपि अधिकांश लोग उसकी सामान्य मानवता को स्वीकार नहीं करते हैं, तब भी उसका कार्य प्रभावशाली हो सकता है, और इन प्रभावों को उसकी सामान्य मानवता के कारण प्राप्त किया जाता है। इस बारे में कोई सन्देह नहीं है। देह में उसके कार्य से, मनुष्य उसकी सामान्य मानवता के बारे में उन धारणाओं की अपेक्षा दस गुना या दर्जनों गुना ज़्यादा चीज़ों को प्राप्त करता है जो मनुष्य के बीच मौजूद हैं, और ऐसी धारणाओं को अंततः उसके कार्य के द्वारा पूरी तरह से निगल लिया जाएगा। और वह प्रभाव जो उसके कार्य ने प्राप्त किया है, कहने का तात्पर्य है कि, वह ज्ञान जो मनुष्य को उसके बारे में है, उसके बारे में मनुष्य की धारणाओं से बहुत अधिक है। वह जिस कार्य को देह में करता है उसकी कल्पना करने या उसे मापने का कोई तरीका नहीं है, क्योंकि उसका देह हाड़-माँस के मनुष्य के असदृश है; यद्यपि बाहरी आवरण एक समान है, फिर भी सार एक जैसा नहीं है। उसका देह परमेश्वर के बारे में मनुष्यों के बीच कई धारणाओं को उत्पन्न करता है, फिर भी उसका देह मनुष्य को अधिक ज्ञान भीअर्जित करने दे सकता है, और वह किसी भी ऐसे व्यक्ति पर विजय प्राप्त कर सकता है जो वैसा ही बाहरी आवरण धारण करता है। क्योंकि वह मात्र एक मनुष्य नहीं है, बल्कि मनुष्य के बाहरी आवरण वाला परमेश्वर है, और कोई भी पूरी तरह से उसकी गहराई को माप नहीं सकता है और उसे समझ नहीं सकता है। एक अदृश्य और अस्पृश्य परमेश्वर सभी के द्वारा प्रेम और स्वागत किया जाता है। यदि परमेश्वर बस एक पवित्रात्मा हो जो मनुष्य के लिए अदृश्य हो, तो परमेश्वर पर विश्वास करना मनुष्य के लिए बहुत आसान है। मनुष्य अपनी कल्पना को बेलगाम कर सकता है, और अपने आपको प्रसन्न करने तथा अपने आपको खुश करने के लिए किसी भी आकृति को परमेश्वर की आकृति के रूप में चुन सकता है। इस तरह से, मनुष्य बिना किसी शक के ऐसा कुछ भी कर सकता है जो उसके स्वयं के परमेश्वर को अत्यधिक प्रसन्न करता है, और जिसे यह परमेश्वर करने की अत्यधिक इच्छा करता है। इसके अलावा, मनुष्य मानता है कि उसकी अपेक्षा परमेश्वर के प्रति कोई भी उससे अधिक भरोसेमंद और भक्त नहीं है, और यह कि बाकी सब अन्यजातियों के कुत्ते हैं, तथा परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि यही वह है जो उन लोगों के द्वारा खोजा जाता है जिनका विश्वास परमेश्वर में अस्पष्ट है और सिद्धान्तों पर आधारित है; जो कुछ वे खोजते हैं वह सब थोड़ी बहुत विभिन्नता के साथ करीब-करीब एक जैसा ही है। मात्र इतना ही है कि उनकी कल्पनाओं में परमेश्वर की छवियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, मगर उनका सार वास्तव में एक ही होता है।
मनुष्य परमेश्वर में अपने लापरवाह विश्वास से परेशान नहीं होता है, और जैसा उसे भाता है उसी तरह से परमेश्वर में विश्वास करता है। यह मनुष्य के "अधिकार और आज़ादी" में से एक है, जिसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है, क्योंकि मनुष्य अपने स्वयं के परमेश्वर में विश्वास करता है तथा किसी अन्य के परमेश्वर पर नहीं; यह उसकी अपनी निजी सम्पत्ति है, और लगभग हर कोई इस तरह की निजी सम्पत्ति रखता है। मनुष्य इस सम्पत्ति को एक बहुमूल्य ख़ज़ाने के रूप में मानता है, किन्तु परमेश्वर के लिए इससे अधिक अधम या मूल्यहीन चीज़ और कोई नहीं है, क्योंकि मनुष्य की इस निजी सम्पत्ति की तुलना में परमेश्वर के विरोध का इससे और अधिक स्पष्ट संकेत नहीं है। यह देहधारी परमेश्वर के कार्य की वजह से है कि परमेश्वर देह धारण करता है जिसका एक स्पर्शगम्य आकार है, और जिसे मनुष्य के द्वारा देखा और स्पर्श किया जा सकता है। वह एक निराकार पवित्रात्मा नहीं है, बल्कि एक देह है जिससे मनुष्य द्वारा सम्पर्क किया जा सकता है और जिसे देखा जा सकता है। हालाँकि, अधिकांश परमेश्वर जिन पर लोग विश्वास करते हैं देहरहित देवता हैं जो निराकार हैं, जो आकार मुक्त हैं। इस तरह से, देहधारी परमेश्वर उनमें से अधिकांश लोगों का शत्रु बन गया है जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और जो लोग परमेश्वर के देहधारण के तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकते हैं वे, उसी प्रकार से, परमेश्वर के विरोधी बन गए हैं। मनुष्य सोचने के अपने तरीके की वजह से नहीं, या अपनी विद्रोहशीलता की वजह से नहीं, बल्कि मनुष्य की इस निजी सम्पत्ति की वजह से धारणाओं को धारण किए हुए है। यह इस निजी सम्पत्ति की वजह से ही है कि अधिकांश लोग मरते हैं, और यह वह अस्पष्ट परमेश्वर ही है जिसे स्पर्श नहीं किया जा सकता है, देखा नहीं जा सकता है, और जो अस्तित्व में नहीं है वास्तव में जो मनुष्य के जीवन को बर्बाद करता है। मनुष्य के जीवन को देहधारी परमेश्वर के द्वारा नहीं, स्वर्ग के परमेश्वर के द्वारा तो बिलकुल भी नहीं, बल्कि मनुष्य की स्वयं की कल्पना के परमेश्वर द्वारा ज़ब्त किया जाता है। भ्रष्ट मनुष्य की आवश्यकताएँ ही वह एकमात्र कारण है कि देहधारी परमेश्वर देह में आया है। यह मनुष्य की आवश्यकताओं की वजह से है परन्तु परमेश्वर की आवश्यकताओं के कारण नहीं, और परमेश्वर के समस्त बलिदान और कष्ट मनुष्यजाति के वास्ते हैं, और स्वयं परमेश्वर के लाभ के लिए नहीं हैं। परमेश्वर के लिए कुछ भला-बुरा या प्रतिफल नहीं है; वह भविष्य की कोई उपज नहीं, बल्कि जो मूल रूप से उसके प्रति बकाया था वह प्राप्त करेगा। जो सब कुछ वह मनुष्यजाति के लिए करता और बलिदान करता है यह इसलिए नहीं है कि वह बड़ा प्रतिफल प्राप्त कर सके, बल्कि यह विशुद्ध रूप से मनुष्यजाति के वास्ते है। यद्यपि देह में परमेश्वर के कार्य में अनेक अकल्पनीय मुश्किलें शामिल होती हैं, फिर भी जिन प्रभावों को वह अंततः प्राप्त करता है वे उन कार्यों से कहीं बढ़कर होते हैं जिन्हें पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर किया जाता है। देह के कार्य में काफी कठिनाईयाँ अपरिहार्य हैं, और देह पवित्रात्मा के समान ही बड़ी पहचान को धारण नहीं कर सकता है, पवित्रात्मा के समान ही अलौकिक कर्मों को कार्यान्वित नहीं कर सकता है, वह पवित्रात्मा के समान ही अधिकार तो बिल्कुल भी धारण नहीं कर सकता है। फिर भी इस मामूली देह के द्वारा किए गए कार्य का सार पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर किए गए कार्य से कहीं अधिक श्रेष्ठ है, और यह देह स्वयं ही मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं का उत्तर है। क्योंकि जिन्हें बचाया जाना है उनके लिए, पवित्रात्मा का उपयोगिता मूल्य देह की अपेक्षा कहीं अधिक निम्नतर है: पवित्रात्मा का कार्य संपूर्ण विश्व, सारे पहाड़ों, नदियों, झीलों और महासागरों को ढकने में समर्थ है, मगर देह का कार्य और अधिक प्रभावकारी ढंग से प्रत्येक ऐसे व्यक्ति से सम्बन्ध रखता है जिसके साथ उसका सम्पर्क है। इसके अलावा, स्पर्शगम्य रूप वाले परमेश्वर के देह को मनुष्य के द्वारा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है और उस पर भरोसा किया जा सकता है, और यह परमेश्वर के बारे में मनुष्य के ज्ञान को और गहरा कर सकता है, और मनुष्य पर परमेश्वर के वास्तविक कर्मों का और अधिक गंभीर प्रभाव छोड़ सकता है। आत्मा का कार्य रहस्य से ढका हुआ है, इसकी थाह पाना नश्वर प्राणियों के लिए कठिन है, और यहाँ तक कि उनके लिए उसे देख पाना और भी अधिक मुश्किल है, और इसलिए वे मात्र खोखली कल्पनाओं पर ही भरोसा रख सकते हैं। हालाँकि, देह का कार्य सामान्य, और वास्तविकता पर आधारित है, और समृद्ध बुद्धि धारण किए हुए है, और ऐसा तथ्य है जिसे मनुष्य की भौतिक आँख के द्वारा देखा जा सकता है; मनुष्य परमेश्वर के कार्य की बुद्धि का व्यक्तिगत रूप से अनुभव कर सकता है, और उसे अपनी ढेर सारी कल्पना को काम में लगाने की आवश्यकता नहीं है। यह देह में परमेश्वर के कार्य की परिशुद्धता और उसका वास्तविक मूल्य है। पवित्रात्मा केवल उन कार्यों को कर सकता है जो मनुष्य के लिए अदृश्य हैं और जिनकी कल्पना करना उसके लिए कठिन हैं, उदाहरण के लिए पवित्रात्मा की प्रबुद्धता, पवित्रात्मा द्वारा हृदय स्पर्श करना, और आत्मा का मार्गदर्शन, परन्तु मनुष्य के लिए जिसके पास एक मस्तिष्क है, ये कोई स्पष्ट अर्थ प्रदान नहीं करते हैं। वे केवल हृदय स्पर्शी, या एक विस्तृत अर्थ प्रदान करते हैं, और वचनों से कोई निर्देश नहीं दे सकते हैं। हालाँकि, देह में परमेश्वर का कार्य बहुत भिन्न होता है: इसमें वचनों का परिशुद्ध मार्गदर्शन होता है, स्पष्ट इच्छा होती है, और उसमें स्पष्ट अपेक्षित लक्ष्य होते हैं। और इसलिए मनुष्य को अँधेरे में यहाँ-वहाँ टटोलने, या अपनी कल्पना को काम में लाने की कोई आवश्यकता नहीं होती है, और अंदाज़ा लगाने की तो बिलकुल भी आवश्यकता नहीं होती है। यह देह में किए गए कार्य की स्पष्टता है, और पवित्रात्मा के कार्य से इसकी बड़ी भिन्नता है। पवित्रात्मा का कार्य केवल एक सीमित दायरे तक उपयुक्त होता है, और देह के कार्य का स्थान नहीं ले सकता है। देह का कार्य मनुष्य को पवित्रात्मा के कार्य की अपेक्षा कहीं अधिक सटीक और आवश्यक लक्ष्य तथा कहीं अधिक वास्तविक, मूल्यवान ज्ञान प्रदान करता है। जो कार्य भ्रष्ट मनुष्य के लिए सबसे अधिक मूल्य रखता है यह वह है जो परिशुद्ध वचनों, खोज करने के लिए स्पष्ट लक्ष्यों को प्रदान करता है, और जिसे देखा या स्पर्श किया जा सकता है। केवल यथार्थवादी कार्य और समयोचित मार्गदर्शन ही मनुष्य की अभिरुचियों के लिए उपयुक्त है, और केवल वास्तविक कार्य ही मनुष्य को उसके भ्रष्ट और दूषित स्वभाव से बचा सकता है। इसे केवल देहधारी परमेश्वर के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है; केवल देहधारी परमेश्वर ही मनुष्य को उसके पूर्व के भ्रष्ट और दुष्ट स्वभाव से बचा सकता है। यद्यपि पवित्रात्मा परमेश्वर का अंतर्निहित सार है, फिर भी इस तरह के कार्य को केवल उसके देह के द्वारा ही किया जा सकता है। यदि पवित्रात्मा अकेले ही कार्य करता, तब उसके कार्य का प्रभावशाली होना संभव नहीं होता—यह एक स्पष्ट सच्चाई है। यद्यपि अधिकांश लोग इस देह के कारण परमेश्वर के शत्रु बन गए हैं, फिर भी जब वह अपने कार्य को पूरा करेगा, तो जो लोग उसके विरोधी हैं वे न केवल उसके शत्रु नहीं रहेंगे, बल्कि इसके विपरीत उसके गवाह बन जाएँगे। वे ऐसे गवाह बन जाएँगे जिन्हें उसके द्वारा जीत लिया गया है, ऐसे गवाह जो उसके अनुकूल हैं और उससे अवियोज्य हैं। वह मनुष्य के लिए देह में किए गए उसके कार्य के महत्व को मनुष्य को ज्ञात करवाएगा, और मनुष्य के अस्तित्व के अर्थ के लिए इस देह के महत्व को जानेगा, मनुष्य के जीवन की प्रगति के लिए उसके वास्तविक मूल्य को जानेगा, और, इसके अतिरिक्त, यह जानेगा कि यह देह जीवन का एक जीवन्त स्रोत बन जाएगा जिससे अलग होने की बात को मानव सहन नहीं कर सकता है। यद्यपि देहधारी परमेश्वर का देह परमेश्वर की पहचान और पद से मेल खाने से कहीं दूर है, और मनुष्य को परमेश्वर की वास्तविक हैसियत से असंगत प्रतीत होता है, फिर भी यह देह, जो परमेश्वर के असली झवि को, या परमेश्वर की सच्ची पहचान को धारण नहीं करता है, उस कार्य रो कर सकता है जिसे परमेश्वर का आत्मा सीधे तौर पर करने में असमर्थ है। परमेश्वर के देहधारण का असली महत्व और मूल्य ऐसा ही है, और यही वह महत्व और मूल्य है जिसे सराहने और स्वीकार करने में मनुष्य असमर्थ है। यद्यपि सभी मनुष्य परमेश्वर के आत्मा का आदर करते हैं और परमेश्वर के देह का तिरस्कार करते हैं, फिर भी इस बात पर ध्यान न देते हुए कि वे किस प्रकार सोचते या देखते हैं, देह का वास्तविक महत्व और मूल्य पवित्रात्मा से बहुत बढ़कर है। निस्संदेह, यह केवल भ्रष्ट मनुष्य के सम्बन्ध में है। हर कोई जो सत्य की खोज करता है और परमेश्वर के प्रकटन की लालसा करता है उसके लिए, पवित्रात्मा का कार्य केवल हृदय स्पर्श या प्रकाशन, और अद्भुतता की समझ प्रदान कर सकता है जो अवर्णनीय तथा अकल्पनीय है, और एक समझ प्रदान कर सकता है कि यह महान, ज्ञानातीत, और प्रशंसनीय है, मगर सभी के लिए अलभ्य और अप्राप्य भी है। मनुष्य और परमेश्वर का आत्मा एक दूसरे को केवल दूर से ही देख सकते हैं, मानो कि उनके बीच एक बड़ी दूरी हो, और वे कभी भी एक समान नहीं हो सकते हैं, मानो किसी अदृश्य विभाजन के द्वारा पृथक किए गए हों। वास्तव में, यह पवित्रात्मा के द्वारा मनुष्य को दिया गया एक मायाजाल है, जो इसलिए है क्योंकि पवित्रात्मा और मनुष्य दोनों एक ही प्रकार के नहीं हैं, और पवित्रात्मा तथा मनुष्य एक ही संसार में कभी भी सहअस्तित्व में नहीं रहेंगे, और क्योंकि पवित्रात्मा मनुष्य की किसी भी चीज़ को धारण नहीं करता है। इसलिए मनुष्य को पवित्रात्मा की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पवित्रात्मा सीधे तौर पर वह कार्य नहीं कर सकता है जिसकी मनुष्य को सबसे अधिक आवश्यकता होती है। देह का कार्य मनुष्य को खोज करने के लिए वास्तविक लक्ष्य, स्पष्ट वचन, और एक समझ प्रदान करता है कि परमेश्वर वास्तविक और सामान्य है, यह कि वह दीन और साधारण है। यद्यपि मनुष्य उसका भय मान सकता है, फिर भी अधिकांश लोगों के लिए उससे सम्बन्ध रखना आसान है: मनुष्य उसके चेहरे को देख सकता है, और उसकी आवाज़ को सुन सकता है, और मनुष्य को उसे दूर से देखने की आवश्यकता नहीं है। यह देह मनुष्य को सुगम्य, दूर या अथाह नहीं है, बल्कि दृश्य और स्पर्शगम्य महसूस होता है, क्योंकि यह देह मनुष्य के समान इसी संसार में है।
जो देह में जीवन बिताते हैं उन सभी के लिए, अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के लिए खोज हेतु लक्ष्यों की आवश्यकता होती है, और परमेश्वर को जानना परमेश्वर के वास्तविक कर्मों और वास्तविक चेहरे को देखना आवश्यक बनाता है। दोनों को सिर्फ परमेश्वर के देहधारी देह के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, और दोनों को सिर्फ साधारण और वास्तविक देह के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। इसीलिए देहधारण ज़रूरी है, और इसीलिए संपूर्ण भ्रष्ट मनुष्यजाति को इसकी आवश्यकता है। चूँकि लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे परमेश्वर को जानें, इसलिए अस्पष्ट और अलौकिक परमेश्वरों की छवियों को उनके हृदयों से दूर अवश्य हटाया जाना चाहिए, और चूँकि उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करें, इसलिए उन्हें पहले अपने भ्रष्ट स्वभाव को अवश्य पहचानना चाहिए। यदि केवल मनुष्य लोगों के हृदयों से अस्पष्ट परमेश्वरों की छवियों को हटाने का कार्य करता है, तो वह उपयुक्त प्रभाव प्राप्त करने में असफल हो जाएगा। लोगों के हृदयों से अस्पष्ट परमेश्वर की छवियों को केवल वचनों से उजागर, दूर किया, या पूरी तरह से निकाला नहीं जा सकता है। ऐसा करके, अंततः गहराई से जड़ जमाई हुई इन चीज़ों को लोगों से हटाना तब भी संभव नहीं होगा। केवल व्यावहारिक परमेश्वर और परमेश्वर की सच्ची छवि ही इन अस्पष्ट और अलौकिक चीज़ों का स्थान ले सकती है ताकि लोगों को धीरे-धीरे उन्हें जानने दिया जाए, और केवल इसी तरीके से उस उचित प्रभाव प्राप्त किया जा सकता है। मनुष्य एहसास करता है कि जिस परमेश्वर को वह पिछले समयों में खोजता था वह अस्पष्ट और अलौकिक है। जो इस प्रभाव को प्राप्त कर सकता है वह पवित्रात्मा की प्रत्यक्ष अगुवाई नहीं है, किसी निश्चित व्यक्ति की शिक्षाएँ तो बिलकुल भी नहीं, बल्कि देहधारी परमेश्वर की शिक्षाएँ हैं। मनुष्य की धारणाएँ तब प्रकट हो जाती हैं जब देहधारी परमेश्वर आधिकारिक रूप से अपना कार्य करता है, क्योंकि देहधारी परमेश्वर की साधारणता और वास्तविकता मनुष्य की कल्पना में अस्पष्ट एवं अलौकिक परमेश्वर के विपरीत है। मनुष्य की मूल धारणाओं को केवल देहधारी परमेश्वर से उनके वैषम्य के माध्यम से ही प्रकट किया जा सकता है। देहधारी परमेश्वर से तुलना के बिना, मनुष्य की धारणाओं को प्रकट नहीं किया जा सकता था; दूसरे शब्दों में, वास्तविकता के वैषम्य के बिना अस्पष्ट चीज़ों को प्रकट नहीं किया जा सकता था। इस कार्य को करने के लिए कोई भी वचनों का उपयोग करने में सक्षम नहीं है, और कोई भी वचनों का उपयोग करके इस कार्य को स्पष्टता से व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। केवल स्वयं परमेश्वर ही अपना स्वयं का कार्य कर सकता है, और कोई अन्य उसकी ओर से इस कार्य को नहीं कर सकता है। भले ही मनुष्य की भाषा कितनी ही समृद्ध क्यों न हो, वह परमेश्वर की वास्तविकता और साधारणता को स्पष्टता से व्यक्त करने में असमर्थ है। यदि परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से मनुष्य के बीच कार्य करे और अपनी छवि और अपने अस्तित्व को पूरी तरह से प्रकट करे, केवल तभी मनुष्य और अधिक व्यावहारिकता से परमेश्वर को जान सकता है, और केवल तभी उसे और अधिक स्पष्टता से देख सकता है। यह प्रभाव किसी भी हाड़-माँस वाले मनुष्य के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। निस्संदेह, परमेश्वर का आत्मा भी इस प्रभाव को प्राप्त करने में असमर्थ है। परमेश्वर भ्रष्ट मनुष्य को शैतान के प्रभाव से बचा सकता है, परन्तु इस कार्य को सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता है, इसके बजाए, इसे केवल उस देह के द्वारा किया जा सकता है जिसे परमेश्वर का आत्मा पहनता है, देहधारी परमेश्वर के देह के द्वारा किया जा सकता है। यह देह मनुष्य है और परमेश्वर भी है, एक सामान्य मानवता को धारण किए हुए मनुष्य है और दिव्यता धारण किए हुए परमेश्वर भी है। और इसलिए, यद्यपि यह देह परमेश्वर का आत्मा नहीं है, और पवित्रात्मा से बिल्कुल भिन्न है, फिर भी वह अभी भी स्वयं देहधारी परमेश्वर है जो मनुष्य को बचाता है, जो पवित्रात्मा है और देह भी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसे किस नाम के द्वारा पुकारा जाता है, अंततोगत्वा यह अभी भी स्वयं परमेश्वर है जो मनुष्यजाति को बचाता है। क्योंकि परमेश्वर का आत्मा देह से अविभाज्य है, और देह का कार्य भी परमेश्वर के आत्मा का कार्य है; बस इतना ही है कि इस कार्य को पवित्रात्मा की पहचान का उपयोग करके नहीं किया जाता है, बल्कि देह की पहचान का उपयोग करके किया गया है। जिस कार्य को सीधे तौर पर पवित्रात्मा के द्वारा किए जाने की आवश्यकता है उसमें देहधारण की आवश्यकता नहीं है, और जिस कार्य को करने के लिए देह की आवश्यकता है उसे पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर नहीं किया जा सकता है, और केवल देहधारी परमेश्वर के द्वारा ही किया जा सकता है। यही वह है जिसकी आवश्यकता इस कार्य के लिए है, और यही वह है जिसकी भ्रष्ट मनुष्य के द्वारा आवश्यकता होती है। परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों में, केवल एक ही चरण को सीधे तौर पर पवित्रात्मा के द्वारा सम्पन्न किया गया था, और शेष दो चरणों को देहधारी परमेश्वर के द्वारा सम्पन्न किया जाता है, और पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर सम्पन्न नहीं किया गया है। पवित्रात्मा के द्वारा किए गए व्यवस्था के युग के कार्य में मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के परिवर्तन करना शामिल नहीं था, और न ही इसका परमेश्वर के बारे में मनुष्य के ज्ञान से कोई सम्बन्ध था। हालाँकि, अनुग्रह के युग में और राज्य के युग में परमेश्वर के देह के कार्य में, मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव और परमेश्वर के बारे में उसका ज्ञान शामिल है, और उद्धार के कार्य का एक महत्वपूर्ण और निर्णायक हिस्सा है। इसलिए, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर के उद्धार की और अधिक आवश्यकता है, और उसे देहधारी परमेश्वर के प्रत्यक्ष कार्य की और अधिक आवश्यकता है। मनुष्यजाति को आवश्यकता है कि देहधारी परमेश्वर उसकी चरवाही करे, उसका भरण पोषण करे, उसकी सिंचाई करे, उसका पोषण करे, उसका न्याय करे और उसे ताड़ना दे, और उसे देहधारी परमेश्वर से और अधिक अनुग्रह तथा और बड़े छुटकारे की आवश्यकता है। केवल देह में प्रकट परमेश्वर ही मनुष्य का विश्वासपात्र, मनुष्य का चरवाहा, मनुष्य का वास्तविक विद्यमान सहायता बन सकता है, और यह सब आज और बीते समयों में देहधारण की आवश्यकता है।
मनुष्य को शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, और वह परमेश्वर के सभी जीवधारियों में सबसे ऊपर है, इसलिए मनुष्य को परमेश्वर से उद्धार की आवश्यकता है। परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य मनुष्य है, न कि शैतान, और जिसे बचाया जाएगा वह मनुष्य की देह, और मनुष्य की आत्मा है, और शैतान नहीं। परमेश्वर का सर्वनाश का लक्ष्य शैतान है, मनुष्य परमेश्वर का उद्धार का लक्ष्य है, और मनुष्य के देह को शैतान के द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है, इसलिए जिसे सबसे पहले बचाया जाना है वह मनुष्य का देह ही होगा। मनुष्य की देह को बहुत ज़्यादा भ्रष्ट किया जा चुका है, और यह कुछ ऐसा बन गया है जो परमेश्वर का विरोध करता है, जो यहाँ तक कि खुले तौर पर परमेश्वर का विरोध करता है और उसके अस्तित्व को भी नकारता है। यह भ्रष्ट देह मात्र दुःसाध्य है, और देह के भ्रष्ट स्वभाव से निपटने और उसे परिवर्तित करने की तुलना में कुछ भी अधिक कठिन नहीं है। शैतान परेशानियाँ खड़ी करने के लिए मनुष्य की देह के भीतर आता है, और परमेश्वर के कार्य में व्यवधान उत्पन्न करने और परमेश्वर की योजना को बाधित करने के लिए मनुष्य की देह का उपयोग करता है, और इस प्रकार मनुष्य शैतान, और परमेश्वर का शत्रु बन गया है। मनुष्य को बचाने के लिए, पहले उस पर विजय पानी होगी। यही कारण है कि परमेश्वर चुनौती के लिए उठता है, और उस कार्य को करने के लिए देह में आता है जो उसने करने का इरादा किया है, और शैतान के साथ लड़ता है। उसका उद्देश्य मनुष्यजाति का उद्धार, जिसे भ्रष्ट किया जा चुका है, और शैतान की पराजय और उसका सर्वनाश है, जो उसके विरुद्ध विद्रोह करता है। वह मनुष्य पर विजय पाने के अपने कार्य के माध्यम से शैतान को पराजित करता है, और उसी के साथ भ्रष्ट मनुष्यजाति का उद्धार करता है। इस प्रकार, परमेश्वर एक बार में ही दो समस्याओं का समाधान करता है। वह देह में होकर कार्य करता है, देह में होकर बात करता है, और मनुष्य के साथ बेहतर ढंग से संलग्न होने, और बेहतर ढंग से मनुष्य पर विजय पाने के लिए, देह में होकर समस्त कार्यों की शुरुआत करता है। अंतिम बार जब परमेश्वर ने देहधारण करेगा, तो अंत के दिनों के उसके कार्य को देह में पूरा किया जाएगा। वह सभी मनुष्यों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत करेगा, अपने सम्पूर्ण प्रबंधन को समाप्त करेगा, और साथ ही देह में अपने समस्त कार्य को भी समाप्त करेगा। पृथ्वी पर उसके सभी कार्य के समाप्त हो जाने के पश्चात्, वह पूरी तरह से विजयी हो जाएगा। देह में कार्य करते हुए, परमेश्वर ने मनुष्यजाति को पूरी तरह से जीत लिया होगा, और मनुष्यजाति को पूर्ण रूप से अर्जित कर लिया होगा। क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका समस्त प्रबंधन समापन की ओर आ चुका होगा? जब परमेश्वर देह में अपना कार्य का समापन करता है, तो चूँकि उसने शैतान को पूरी तरह से हरा दिया है और विजयी हुआ है, इसलिए शैतान के पास मनुष्य को भ्रष्ट करने का अब और कोई अवसर नहीं होगा। परमेश्वर के प्रथम देहधारण का कार्य छुटकारा और मनुष्य के पापों की क्षमा था। अब यह मनुष्यजाति को जीतने और पूरी तरह से प्राप्त करने का कार्य है, ताकि शैतान के पास अपने कार्य को करने का अब और कोई मार्ग न हो, और वह पूरी तरह से हार चुका हो, और परमेश्वर पूरी तरह से विजयी हो चुका हो। यह देह का कार्य है, और वह कार्य है जिसे स्वयं परमेश्वर के द्वारा किया गया है। परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के शुरूआती कार्य को सीधे तौर पर पवित्रात्मा के द्वारा किया गया था, और देह के द्वारा नहीं। हालाँकि, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का अंतिम कार्य देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया जाता है, और पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर नहीं किया जाता है। मध्यवर्ती चरण का छुटकारे का कार्य भी देह में परमेश्वर के द्वारा किया गया था। समस्त प्रबंधन कार्य के दौरान, सबसे महत्वपूर्ण कार्य शैतान के प्रभाव से मनुष्य का उद्धार है। मुख्य कार्य भ्रष्ट मनुष्य पर सम्पूर्ण विजय है, इस प्रकार जीते गए मनुष्य के हृदय में परमेश्वर का मूल आदर फिर से पुनः-स्थापित करना, और उसे एक सामान्य जीवन, कहने का तात्पर्य है कि, परमेश्वर के एक प्राणी का सामान्य जीवन प्राप्त करने देना है। यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है, और प्रबंधन कार्य का मर्म है। उद्धार के कार्य के तीन चरणों में, व्यवस्था के युग का प्रथम चरण प्रबंधन कार्य के मर्म से काफी दूर था; इसमें उद्धार के कार्य का केवल हल्का सा आभास था, और यह शैतान के अधिकार क्षेत्र से मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य का आरम्भ नहीं था। कार्य का पहला चरण सीधे तौर पर पवित्रात्मा के द्वारा किया गया था क्योंकि, व्यवस्था के अन्तर्गत, मनुष्य केवल व्यवस्था का पालन करना जानता था, और उसके पास और अधिक सत्य नहीं था, और क्योंकि व्यवस्था के युग का कार्य मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तनों को शायद ही शामिल करता था, और यह उस कार्य से तो बिलकुल भी सम्बन्धित नहीं था कि किस प्रकार मनुष्य को शैतान के अधिकार क्षेत्र से बचाया जाए। इस प्रकार परमेश्वर के आत्मा ने कार्य के इस अत्यंत साधारण चरण को पूरा किया था जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से सम्बन्धित नहीं था। इस चरण के कार्य का प्रबंधन के मर्म से थोड़ा सा सम्बन्ध था, और इसका मनुष्य के उद्धार के आधिकारिक कार्य से कोई बड़ा सहसम्बन्ध नहीं था, और इसलिए इसमें परमेश्वर को अपने कार्य को व्यक्तिगत रूप से करने के लिए देह धारण करने की आवश्यकता नहीं थी। पवित्रात्मा के द्वारा किया गया कार्य अंतर्निहित और अथाह है, और यह मनुष्य के लिए भयावह और अगम्य है; पवित्रात्मा उद्धार के कार्य को सीधे तौर पर करने के लिए उपयुक्त नहीं है, और मनुष्य को सीधे तौर पर जीवन प्रदान करने के लिए उपयुक्त नहीं है। मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है पवित्रात्मा के कार्य को ऐसे उपमार्ग में रूपान्तरित करना जो मनुष्य के करीब हो, कहने का तात्पर्य है कि, जो मनुष्य के लिए अत्यंत उपयुक्त है वह यह है कि परमेश्वर अपने कार्य को करने के लिए एक साधारण, सामान्य व्यक्ति बन जाए। इसके लिए आवश्यक है कि पवित्रात्मा के कार्य का स्थान लेने के लिए परमेश्वर देहधारण करे, और मनुष्य के लिए, कार्य करने हेतु परमेश्वर के लिए कोई और अधिक उपयुक्त मार्ग नहीं है। कार्य के इन तीन चरणों में से, दो चरणों को देह के द्वारा सम्पन्न किया जाता है, और ये दो चरण प्रबंधन कार्य की मुख्य अवस्थाएँ हैं। दो देहधारण परस्पर पूरक हैं और एक दूसरे को सिद्ध करते हैं। परमेश्वर के देहधारण के प्रथम चरण ने द्वितीय चरण के लिए नींव डाली थी, ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के दो देहधारण पूर्णता का गठन करते हैं, और एक दूसरे से असंगत नहीं हैं। परमेश्वर के कार्य के इन दो चरणों को परमेश्वर के द्वारा अपनी देहधारी पहचान में कार्यान्वित किया जाता है क्योंकि वे समस्त प्रबंधन के कार्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। लगभग ऐसा कहा जा सकता है कि, परमेश्वर के दो देहधारणों के कार्य के बिना, समस्त प्रबंधन कार्य थम गया होता, और मनुष्यजाति को बचाने का कार्य और कुछ नहीं बल्कि खोखली बात होती। यह कार्य महत्वपूर्ण है या नहीं यह मनुष्यजाति की आवश्यकताओं, और मनुष्यजाति की कलुषता की वास्तविकता, और शैतान की अवज्ञा की गंभीरता और कार्य में उसके व्यवधान पर आधारित है। कार्य करने में समर्थ सही व्यक्ति को उसके कार्य के स्वभाव, और कार्य के महत्व पर निर्दिष्ट किया जाता है। जब इस कार्य के महत्व की बात आती है, इस सम्बन्ध में कि कार्य के कौन से तरीके को अपनाया जाए—परमेश्वर के आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किया गया कार्य, या देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य, या मनुष्य के माध्यम से किया गया कार्य—जिसे पहले निष्काषित किया जाना है वह मनुष्य के माध्यम से किया गया कार्य है, और, कार्य की प्रकृति, और पवित्रात्मा के कार्य बनाम देह के कार्य की प्रकृति के आधार पर, अंततः यह निर्णय लिया जाता है कि पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर किए गए कार्य की अपेक्षा देह के द्वारा किया गया कार्य मनुष्य के लिए अधिक लाभदायक है, और अधिक लाभ प्रदान करता है। यह उस समय परमेश्वर का विचार है कि वह निर्णय ले कि कार्य पवित्रात्मा के द्वारा किया गया था या देह के द्वारा। कार्य के प्रत्येक चरण का एक महत्व और आधार होता है। वे आधारहीन कल्पनाएँ नहीं हैं, न ही उन्हें मनमाने ढंग से कार्यान्वित किया जाता है; उनमें एक निश्चित बुद्धि होती है। परमेश्वर के समस्त कार्य के पीछे की सच्चाई ऐसी ही है। विशेष रूप से, ऐसे बड़े कार्य में परमेश्वर की और भी अधिक योजना है क्योंकि देहधारी परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से मनुष्यों के बीच में कार्य कर रहा है। और इसलिए, परमेश्वर की बुद्धि और उसके अस्तित्व की समग्रता कार्य में उसकी प्रत्येक क्रिया, विचार, और मत में प्रतिबिम्बित होती हैं; यह परमेश्वर का अस्तित्व ही है जो अत्यधिक ठोस और सुव्यवस्थित है। इन गूढ़ विचारों और मतों की कल्पना करना मनुष्य के लिए कठिन है, और इन पर विश्वास करना मनुष्य के लिए कठिन है, और, इसके अतिरिक्त, इन्हें जानना मनुष्य के लिए कठिन है। मनुष्य के द्वारा किया गया कार्य सामान्य सिद्धान्त के अनुसार होता है, जो मनुष्य के लिए अत्यंत संतोषजनक होता है। फिर भी परमेश्वर के कार्य की तुलना में, इसमें बस एक बहुत बड़ी असमानता दिखाई देती है; यद्यपि परमेश्वर के कर्म महान होते हैं और परमेश्वर का कार्य शानदार स्तर का होता है, फिर भी उनके पीछे अनेक सूक्ष्म और सटीक योजनाएँ और व्यवस्थाएँ होती हैं जो मनुष्य के लिए अकल्पनीय हैं। उसके कार्य का प्रत्येक चरण न केवल सिद्धान्त के अनुसार होता है, बल्कि अनेक चीज़ों से युक्त होता है जिन्हें मानवीय भाषा में स्पष्टता से व्यक्त नहीं किया जा सकता है, और ये ऐसी चीज़ें हैं जो मनुष्य के लिए अदृश्य हैं। इस पर ध्यान दिए बिना कि यह पवित्रात्मा का कार्य है या देहधारी परमेश्वर का कार्य है, प्रत्येक उसके कार्य की योजनाओं से युक्त है। वह आधारहीन तरीके से कार्य नहीं करता है, और मामूली कार्य नहीं करता है। जब पवित्रात्मा सीधे तौर पर कार्य करता है तो यह उसके लक्ष्यों के साथ होता है, और जब वह कार्य करने के लिए मनुष्य बनता है (कहने का तात्पर्य है कि, जब वह अपने बाहरी आवरण को रूपान्तरित करता है), तो यह और भी अधिक उसके उद्देश्य के साथ होता है। क्यों वह मुक्त भाव से अपनी पहचान को अन्यथा बदलेगा? अन्यथा क्यों वह मुक्त भाव से ऐसा व्यक्ति बनेगा जिसे निकृष्ट माना जाता है और जिसे उत्पीड़ित किया जाता है?
देह के उसका कार्य अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं, जिसे कार्य के सम्बन्ध में कहा गया है, और वह एकमात्र जो अंततः कार्य का समापन करता है वह देहधारी परमेश्वर है, और पवित्रात्मा नहीं है। कुछ लोग विश्वास करते हैं कि परमेश्वर किसी समय पृथ्वी पर आ सकता है और लोगों को दिखाई दे सकता है, जिसके बाद वह संपूर्ण मनुष्यजाति का न्याय करेगा, किसी को छोड़े बिना एक-एक करके उनकी परीक्षा लेगा। जो इस तरह से सोचते हैं वे देहधारण के इस चरण के कार्य को नहीं जानते हैं। परमेश्वर एक-एक करके मनुष्य का न्याय नहीं करता है, और एक-एक करके मनुष्य की परीक्षा नहीं लेता है; ऐसा करना न्याय का कार्य नहीं होगा। क्या समस्त मनुष्यजाति की भ्रष्टता एक समान नहीं है? क्या मनुष्य का सार पूरी तरह से समान नहीं है? जिसका न्याय किया जाता है वह मनुष्य का भ्रष्ट सार है, शैतान के द्वारा भ्रष्ट किया गया मनुष्य का सार, और मनुष्य के समस्त पाप हैं। परमेश्वर मनुष्य के छोटे-मोटे और मामूली दोषों का न्याय नहीं करता है। न्याय का कार्य प्रतिनिधिक है, और किसी निश्चित व्यक्ति के लिए कार्यान्वित नहीं किया जाता है। इसके बजाए, यह ऐसा कार्य है जिसमें समस्त मनुष्यजाति के न्याय का प्रतिनिधित्व करने के लिए लोगों के एक समूह का न्याय किया जाता है। लोगों के एक समूह पर व्यक्तिगत रूप से अपने कार्य को कार्यान्वित करने के द्वारा, देह में प्रकट परमेश्वर अपने कार्य का उपयोग संपूर्ण मनुष्यजाति के कार्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए करता है, जिसके पश्चात् यह धीरे-धीरे फैलता जाता है। न्याय का कार्य भी इस प्रकार ही है। परमेश्वर किसी निश्चित किस्म के व्यक्ति या लोगों के किसी निश्चित समूह का न्याय नहीं करता है, बल्कि संपूर्ण मनुष्यजाति की अधार्मिकता का न्याय करता है—उदाहरण के लिए, परमेश्वर के प्रति मनुष्य का विरोध, या उसके विरुद्ध मनुष्य का अनादर, या परमेश्वर के कार्य में व्यवधान, इत्यादि। जिसका न्याय किया जाता है वह परमेश्वर के प्रति मनुष्य के विरोध का सार है, और यह कार्य अंत के दिनों के विजय का कार्य है। देहधारी परमेश्वर का कार्य और वचन जिसकी गवाही मनुष्य के द्वारा दी जाती है वे अंत के दिनों के दौरान बड़े श्वेत सिंहासन के सामने न्याय के कार्य हैं, जिसकी बीते समयों के दौरान मनुष्य के द्वारा कल्पना की गई थी। देहधारी परमेश्वर के द्वारा वर्तमान में किया जा रहा कार्य वास्तव में बड़े श्वेत सिंहासन के सामने न्याय है। आज का देहधारी परमेश्वर वह परमेश्वर है जो अंत के दिनों के दौरान संपूर्ण मनुष्यजाति का न्याय करता है। यह देह और उसका कार्य, वचन, और समस्त स्वभाव उसकी समग्रता हैं। यद्यपि उसके कार्य का दायरा सीमित है, और सीधे तौर पर संपूर्ण विश्व को शामिल नहीं करता है, फिर भी न्याय के कार्य का सार संपूर्ण मनुष्यजाति का प्रत्यक्ष न्याय है; यह ऐसा कार्य नहीं है जिसे केवल चीन के लिए, या कम संख्या के लोगों के लिए आरम्भ किया जाता है। देह में परमेश्वर के कार्य के दौरान, यद्यपि इस कार्य का दायरा संपूर्ण विश्व को शामिल नहीं करता है, फिर भी यह संपूर्ण विश्व के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है, जब वह अपनी देह के कार्य के दायरे के भीतर उस कार्य का समापन कर लेता है उसके पश्चात्, वह तुरन्त ही इस कार्य को संपूर्ण विश्व में उसी तरह से फैला देगा जैसे कि यीशु के पुनरूत्थान और आरोहण के पश्चात् उसका सुसमाचार सारी दुनिया में फैल गया था। इस बात पर ध्यान दिए बिना कि यह पवित्रात्मा का कार्य है या देह का कार्य, यह ऐसा कार्य है जिसे एक सीमित दायरे के भीतर कार्यान्वित किया जाता है, परन्तु जो संपूर्ण विश्व के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। अन्त के दिनों के दौरान, परमेश्वर अपनी देहधारी पहचान का उपयोग करते हुए अपने कार्य को करने के लिए प्रकट होता है, और देह में प्रकट परमेश्वर वह परमेश्वर है जो बड़े श्वेत सिंहासन के सामने मनुष्य का न्याय करता है। इस बात पर ध्यान दिए बिना कि वह पवित्रात्मा है या देह, जो न्याय का कार्य करता है वही ऐसा परमेश्वर है जो अंत के दिनों के दौरान मनुष्य का न्याय करता है। इसे उसके कार्य के आधार पर परिभाषित किया जाता है, और उसके बाहरी रंग-रूप तथा विभिन्न अन्य कारकों के अनुसार इसे परिभाषित नहीं किया जाता है। यद्यपि इन वचनों के बारे में मनुष्य की धारणाएँ हैं, फिर भी कोई देहधारी परमेश्वर के न्याय और संपूर्ण मनुष्यजाति पर विजय के तथ्य को नकार नहीं सकता है। इस बात पर ध्यान दिए बिना कि मनुष्य इस बारे में क्या सोचता है, तथ्य, आखिरकार, तथ्य ही हैं। कोई यह नहीं कह सकता है कि "कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाता है, परन्तु देह परमेश्वर नहीं है।" यह बकवास है, क्योंकि इस कार्य को देहधारी परमेश्वर के सिवाय किसी के भी द्वारा नहीं किया जा सकता है। चूँकि इस कार्य को पहले से ही पूरा किया जा चुका है, इसलिए इस कार्य के बाद मनुष्य के बारे में परमेश्वर के न्याय का कार्य दूसरी बार प्रकट नहीं होगा; दूसरे देहधारी परमेश्वर ने पहले से ही संपूर्ण प्रबंधन के समस्त कार्य का समापन कर लिया है, और परमेश्वर के कार्य का चौथा चरण नहीं होगा। क्योंकि जिसका न्याय किया जाता है वह मनुष्य है, मनुष्य जो कि हाड़-माँस का है और भ्रष्ट किया जा चुका है, और यह शैतान का आत्मा नहीं है जिसका सीधे तौर पर न्याय किया जाता है, न्याय का कार्य आध्यात्मिक संसार में कार्यान्वित नहीं किया जाता है, बल्कि मनुष्यों के बीच किया जाता है। मनुष्य की देह की भ्रष्टता का न्याय करने के लिए देह में प्रकट परमेश्वर की तुलना में कोई भी अधिक उपयुक्त, और योग्य नहीं है। यदि न्याय सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया जाता, तो यह सर्वव्यापी नहीं होता। इसके अतिरिक्त, ऐसे कार्य को स्वीकार करना मनुष्य के लिए कठिन होता, क्योंकि पवित्रात्मा मनुष्य के आमने-सामने आने में असमर्थ है, और इस वजह से, प्रभाव तत्काल नहीं होते, और मनुष्य परमेश्वर के अपमान नहीं किए जाने योग्य स्वभाव को साफ-साफ देखने में बिलकुल भी सक्षम नहीं होता। यदि देह में प्रकट परमेश्वर मनुष्यजाति की भ्रष्टता का न्याय करता है केवल तभी शैतान को पूरी तरह से हराया जा सकता है। मनुष्य के समान सामान्य मानवता को धारण करने वाला बन कर, देह में प्रकट परमेश्वर सीधे तौर पर मनुष्य की अधार्मिकता का न्याय कर सकता है; यह उसकी जन्मजात पवित्रता, और उसकी असाधारणता का चिन्ह है। केवल परमेश्वर ही मनुष्य का न्याय करने के योग्य है, और उस स्थिति में है, क्योंकि वह सत्य और धार्मिकता को धारण किए हुए है, और इस प्रकार वह मनुष्य का न्याय करने में समर्थ है। जो सत्य और धार्मिकता से रहित हैं वे दूसरों का न्याय करने के लायक नहीं हैं। यदि इस कार्य को परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया जाता, तो यह शैतान पर विजय नहीं होता। पवित्रात्मा अंतर्निहित रूप से ही नश्वर प्राणियों की तुलना में अधिक उत्कृष्ट है, और परमेश्वर का आत्मा अंतरनिहित रूप से पवित्र है, और देह पर विजयी है। यदि पवित्रात्मा ने इस कार्य को सीधे तौर पर किया होता, तो वह मनुष्य की समस्त अवज्ञा का न्याय करने में सक्षम नहीं होता, और मनुष्य की समस्त अधार्मिकता को प्रकट नहीं कर सकता था। क्योंकि न्याय के कार्य को परमेश्वर के बारे में मनुष्य की धारणाओं के माध्यम से भी कार्यान्वित किया जाता है, और मनुष्य के पास कभी भी पवित्रात्मा के बारे में कोई धारणाएँ नहीं रही है, और इसलिए पवित्रात्मा मनुष्य की अधार्मिकता को बेहतर तरीके से प्रकट करने में असमर्थ है, ऐसी अधार्मिकता को पूरी तरह से उजागर करने में तो बिल्कुल भी समर्थ नहीं है। देहधारी परमेश्वर उन सब लोगों का शत्रु है जो उसे नहीं जानते हैं। उसके प्रति मनुष्य की धारणाओं और विरोध का न्याय करने के माध्यम से, वह मनुष्यजाति की समस्त अवज्ञा का खुलासा करता है। देह में उसके कार्य के प्रभाव पवित्रात्मा के कार्य की तुलना में अधिक स्पष्ट हैं। और इसलिए, संपूर्ण मनुष्यजाति के न्याय को पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर सम्पन्न नहीं किया जाता है, बल्कि यह देहधारी परमेश्वर का कार्य है। देह में प्रकट परमेश्वर को मनुष्य के द्वारा देखा और छुआ जा सकता है, और देह में प्रकट परमेश्वर मनुष्य पर पूरी तरह से विजय पा सकता है। देहधारी परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में, मनुष्य विरोध से आज्ञाकारिता की ओर, प्रताड़ना से स्वीकृति की ओर, धारणा से ज्ञान की ओर, और तिरस्कार से प्रेम की ओर प्रगति करता है। ये देहधारी परमेश्वर के कार्य के प्रभाव हैं। मनुष्य को केवल परमेश्वर के न्याय की स्वीकृति के माध्यम से ही बचाया जाता है, मनुष्य केवल परमेश्वर के मुँह के वचनों के माध्यम से ही धीरे-धीरे उसे जानने लगता है, परमेश्वर के प्रति उसके विरोध के दौरान परमेश्वर के द्वारा मनुष्य पर विजय पायी जाती है, और परमेश्वर की ताड़ना की स्वीकृति के दौरान वह उससे जीवन की आपूर्ति प्राप्त करता है। यह समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर के कार्य हैं, और पवित्रात्मा के रूप में अपनी पहचान में परमेश्वर का कार्य नहीं है। देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य महानतम कार्य है, और अति गंभीर कार्य है, और परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का अति महत्वपूर्ण भाग देहधारण के कार्य के दो चरण हैं। मनुष्य की गहन भ्रष्टता देहधारी परमेश्वर के कार्य में एक बड़ी बाधा है। विशेष रूप से, अंत के दिनों के लोगों पर कार्यान्वित किया गया कार्य बहुत ही कठिन है, और परिवेश शत्रुतापूर्ण है, और हर प्रकार के लोगों की क्षमता बहुत ही कमज़ोर है। फिर भी इस कार्य के अंत में, यह बिना किसी त्रुटि के तब भी उचित प्रभाव को प्राप्त करेगा; यह देह के कार्य का प्रभाव है, और यह प्रभाव पवित्रात्मा के कार्य की तुलना में अधिक प्रेरक है। परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का समापन देह में किया जाएगा, और इसे देहधारी परमेश्वर के द्वारा अवश्य पूरा किया जाना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण और सबसे निर्णायक कार्य देह में किया जाता है, और मनुष्य का उद्धार व्यक्तिगत रूप से देहधारी परमेश्वर के द्वारा अवश्य कार्यान्वित किया जाना चाहिए। यद्यपि संपूर्ण मनुष्यजाति को यह महसूस होता है कि देहधारी परमेश्वर मनुष्य से असंबंधित है, फिर भी वास्तव में यह देह संपूर्ण मनुष्यजाति के भाग्य और अस्तित्व से सम्बन्धित है।
परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण संपूर्ण मनुष्यजाति के वास्ते है, और सम्पूर्ण मनुष्यजाति की ओर निर्देशित है। यद्यपि यह देह में उसका कार्य है, फिर भी यह अभी भी सम्पूर्ण मनुष्यजाति की ओर निर्देशित है; वह संपूर्ण मनुष्यजाति का परमेश्वर है, वह सभी सृजित और गैर-सृजित प्राणियों का परमेश्वर है। यद्यपि देह में उसका कार्य एक सीमित दायरे के भीतर है, और इस कार्य का लक्ष्य भी सीमित है, फिर भी हर बार जब वह अपना कार्य करने के लिए देह धारण करता है तो वह अपने कार्य का एक लक्ष्य चुनता है जो अत्यंत प्रतिनिधिक होता है; वह सामान्य और मामूली लोगों के समूह को नहीं चुनता है जिस पर कार्य किया जाए, बल्कि इसके बजाए अपने कार्य के लक्ष्य के रूप में ऐसे लोगों के समूह को चुनता है जो देह में उसके कार्य के प्रतिनिधि होने में समर्थ हों। ऐसे लोगों के समूह को इसलिए चुना जाता है क्योंकि देह में उसके कार्य का दायरा सीमित होता है, और इसे विशेष रूप से उसके देहधारी देह के लिए तैयार किया जाता है, और इसे विशेष रूप से देह में उसके कार्य के लिए चुना जाता है। परमेश्वर का अपने कार्य के लक्ष्यों का चयन बेबुनियाद नहीं होता है, बल्कि सिद्धान्त के अनुसार होता हैः कार्य का लक्ष्य देहधारी परमेश्वर के कार्य के लिए अवश्य लाभदायक होना चाहिए, और उसे सम्पूर्ण मनुष्यजाति का प्रतिनिधित्व करने में अवश्य सक्षम होना चाहिए। उदाहरण के लिए, यीशु के व्यक्तिगत छुटकारे को स्वीकार करने के द्वारा यहूदी सम्पूर्ण मनुष्यजाति का प्रतिनिधित्व करने में समर्थ थे, और देहधारी परमेश्वर की व्यक्तिगत विजय को स्वीकार करने के द्वारा चीनी लोग सम्पूर्ण मनुष्यजाति का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम हैं। सम्पूर्ण मनुष्यजाति के यहूदियों के प्रतिनिधित्व का एक आधार है, और परमेश्वर की व्यक्तिगत विजय को स्वीकार करने में सम्पूर्ण मनुष्यजाति के चीनियों के प्रतिनिधित्व का भी एक आधार है। यहूदियों के बीच किए गए छुटकारे के कार्य से अधिक कोई भी चीज़ छुटकारे के महत्व को प्रकट नहीं करती है, और चीनी लोगों के बीच विजय के कार्य से अधिक कोई भी चीज़ विजय के कार्य की सम्पूर्णता और सफलता को प्रकट नहीं करती है। देहधारी परमेश्वर का कार्य और वचन लोगों के एक छोटे से समूह पर ही लक्षित प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में, इस छोटे समूह के बीच उसका कार्य संपूर्ण विश्व का कार्य है, और उसका वचन समस्त मनुष्यजाति की ओर निर्देशित है। देह में उसका कार्य समाप्त हो जाने के बाद, जो लोग उसका अनुसरण करते हैं वे उस कार्य को फैलाना शुरू कर देंगे जो उसने उनके बीच किया है। देह में किए गए उसके कार्य के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि वह उन लोगों के लिए परिशुद्ध वचनों और उपदेशों को, और मनुष्यजाति के लिए अपनी परिशुद्ध इच्छा को छोड़ सकता है जो उसका अनुसरण करते हैं, जिससे बाद में उसके अनुयायी देह में किए गए उसके समस्त कार्य और संपूर्ण मनुष्यजाति के लिए उसकी इच्छा को अत्यधिक परिशुद्धता से और वस्तुतः उन लोगों तक पहुँचा सकते हैं जो इस मार्ग को स्वीकार करते हैं। मनुष्यों के बीच केवल देहधारी परमेश्वर का कार्य ही सचमुच में परमेश्वर के अस्तित्व और मनुष्य के साथ उसके रहने के तथ्य को पूरा करता है। केवल यह कार्य ही परमेश्वर के चेहरे को देखने, परमेश्वर के कार्य की गवाही देने, और परमेश्वर के व्यक्तिगत वचन को सुनने की मनुष्य की इच्छा को पूरा करता है। देहधारी परमेश्वर उस युग को अन्त पर लाता है जब सिर्फ यहोवा की पीठ ही मनुष्यजाति को दिखाई देती थी, और साथ ही अस्पष्ट परमेश्वर में मनुष्यजाति के विश्वास का भी समापन करता है। विशेष रूप से, अंतिम देहधारी परमेश्वर का कार्य संपूर्ण मनुष्यजाति को एक ऐसे युग में लाता है जो अधिक वास्तविक, अधिक व्यावहारिक, और अधिक सुखद है। वह केवल व्यवस्था और सिद्धान्त के युग का ही अन्त नहीं करता है; बल्कि अधिक महत्वपूर्ण ढंग से, वह मनुष्यजाति पर ऐसे परमेश्वर को प्रकट करता है जो वास्तविक और सामान्य है, जो धार्मिक और पवित्र है, जो प्रबंधन योजना के कार्य को चालू करता है और मनुष्यजाति के रहस्यों और मंज़िल को प्रदर्शित करता है, जिसने मनुष्यजाति का सृजन किया था और प्रबंधन कार्य को अन्त पर लाता है, और जो हज़ारों वर्षों से छिपा हुआ रहा है। वह अस्पष्टता के युग का पूर्णतः अंत करता है, वह उस युग का समापन करता है जिसमें संपूर्ण मनुष्यजाति परमेश्वर के चेहरे को खोजने की इच्छा करती थी परन्तु वह ऐसा करने में असमर्थ थी, वह उस युग का अन्त करता है जिसमें संपूर्ण मनुष्यजाति शैतान की सेवा करती थी, और संपूर्ण मनुष्यजाति की एक नए युग में पूरी तरह से अगुवाई करता है। यह सब परमेश्वर के आत्मा के बजाए देह में प्रकट परमेश्वर के कार्य का परिणाम है। जब परमेश्वर अपने देह में कार्य करता है, तो जो लोग उसका अनुसरण करते हैं वे उन अस्पष्ट और संदिग्ध चीज़ों को खोजते और टटोलते नहीं हैं, और अस्पष्ट परमेश्वर की इच्छा का अन्दाज़ा लगाना बन्द कर देते हैं। जब परमेश्वर देह में अपने कार्य को फैलाता है, तो जो लोग उसका अनुसरण करते हैं वे उस कार्य को सभी धर्मों और पंथों में आगे बढ़ाएँगे जो उसने देह में किया है, और वे उसके सभी वचनों को संपूर्ण मनुष्यजाति के कानों के लिए कहेंगे। वह सब जो उन लोगों के द्वारा सुना जाता है जो उसके सुसमाचार को प्राप्त करते हैं वह उसके कार्य के तथ्य होंगे, ऐसी चीज़ें होंगीं जो मनुष्य के द्वारा व्यक्तिगत रूप से देखी और सुनी गई होंगी, और तथ्य होंगे और अफ़वाह नहीं होगी। ये तथ्य ऐसे प्रमाण हैं जिनसे वह उस कार्य को फैलाता है, और वे ऐसे औजार हैं जिन्हें वह उस कार्य को फैलाने में उपयोग करता है। तथ्यों के अस्तित्व के बिना, उसका सुसमाचार सभी देशों और सभी स्थानों तक नहीं फैलेगा; तथ्यों के बिना किन्तु केवल मनुष्यों की कल्पनाओं के साथ, वह संपूर्ण विश्व पर विजय पाने के कार्य को करने में कभी भी समर्थ नहीं होगा। पवित्रात्मा मनुष्य के लिए अस्पृश्य, और मनुष्य के लिए अदृश्य है, और पवित्रात्मा का कार्य मनुष्य के लिए परमेश्वर के कार्य के किसी और प्रमाण या तथ्यों को छोड़ने में असमर्थ है। मनुष्य परमेश्वर के सच्चे चेहरे को कभी नहीं देखेगा, और वह हमेशा ऐसे अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास करेगा जो अस्तित्व में नहीं है। मनुष्य कभी भी परमेश्वर के मुख को नहीं देखेगा, न ही मनुष्य परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत रूप से बोले गए वचनों को कभी सुन पाएगा। मनुष्य की कल्पनाएँ, आखिरकार, खोखली होती हैं, और परमेश्वर के सच्चे चेहरे का स्थान नहीं ले सकती हैं; मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव, और स्वयं परमेश्वर के कार्य का अभिनय नहीं किया जा सकता है। स्वर्ग के अदृश्य परमेश्वर और उसके कार्य को केवल देहधारी परमेश्वर के द्वारा ही पृथ्वी पर लाया जा सकता है जो मनुष्यों के बीच व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता है। यही सबसे आदर्श तरीका है जिसमें परमेश्वर मनुष्य के लिए प्रकट होता है, जिसमें मनुष्य परमेश्वर को देखता है और परमेश्वर के असली चेहरे को जानने लगता है, और इसे किसी गैर-देहधारी परमेश्वर के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर के द्वारा इस चरण तक अपने कार्य को कार्यान्वित करने के बाद, उसके कार्य ने पहले से ही इष्टतम प्रभाव प्राप्त लिया है, और पूरी तरह सफल रहा है। देह में परमेश्वर के व्यक्तिगत कार्य ने पहले से ही उसके संपूर्ण प्रबंधन के कार्य का नब्बे प्रतिशत पूरा कर लिया है। इस देह ने उसके समस्त कार्य को एक बेहतर शुरूआत, और उसके समस्त कार्य के लिए एक सार प्रदान किया है, और उसके समस्त कार्य की घोषणा की है, और इस समस्त कार्य के लिए पूरी तरह से अंतिम भरपाई की है। इसके पश्चात्, परमेश्वर के कार्य के चौथे चरण को करने के लिए और कोई अन्य देहधारी परमेश्वर नहीं होगा, और परमेश्वर के तीसरे देहधारण का अब और चमत्कारी कार्य नहीं होगा।
देह में परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण संपूर्ण युग के उसके कार्य का प्रतिनिधित्व करता है, और मनुष्य के काम की तरह किसी निश्चित समय अवधि का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। और इसलिए उसके अंतिम देहधारण के कार्य के अन्त का यह अर्थ नहीं है कि उसका कार्य पूर्ण रूप से समाप्त हो गया है, क्योंकि देह में उसका कार्य संपूर्ण युग का प्रतिनिधित्व करता है, और केवल उसी समयावधि का ही प्रतिनिधित्व नहीं करता है जिसमें वह देह में कार्य करता है। बस इतना ही है कि वह उस दौरान समूचे युग के अपने कार्य को पूरा करता है जब वह देह में होता है, उसके पश्चात् यह सभी स्थानों में फैल जाता है। देहधारी परमेश्वर के अपनी सेवकाई को पूरा करने के बाद, वह अपने भविष्य के कार्य को उन्हें सौंप देगा जो उसका अनुसरण करते हैं। इस तरह, संपूर्ण युग का उसका कार्य अखंडित रूप से किया जाएगा। देहधारण के संपूर्ण युग का कार्य केवल तभी पूर्ण माना जाएगा जब एक बार यह संपूर्ण विश्व में पूर्णतया फैल जाएगा। देहधारी परमेश्वर का कार्य एक नये विशेष युग का आरम्भ करता है, और जो लोग उसके कार्य को निरन्तर जारी रखते हैं वे ऐसे मनुष्य हैं जिन्हें उसके द्वारा उपयोग किया जाता है। मनुष्य के द्वारा किया गया समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर की सेवकाई के भीतर होता है, और वह इस दायरे के परे जाने में असमर्थ होता है। यदि देहधारी परमेश्वर अपने कार्य को करने के लिए नहीं आए, तो मनुष्य पुराने युग का समापन करने में समर्थ नहीं है, और नए विशेष युग की शुरुआत करने के समर्थ नहीं है। मनुष्य के द्वारा किया गया कार्य मात्र उसके कर्तव्य के दायरे के भीतर होता है जो मानवीय रूप से संभव है, और परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। केवल देहधारी परमेश्वर ही आ कर उस कार्य को पूरा कर सकता है जो उसे करना चाहिए, और उसके अलावा, कोई भी उसकी ओर से इस कार्य को नहीं कर सकता है। निस्संदेह, मैं जिस बारे में बात करता हूँ वह देधारण के कार्य के सम्बन्ध में है। यह देहधारी परमेश्वर पहले कार्य के एक कदम को कार्यान्वित करता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, जिसके पश्चात् वह और अधिक कार्य करता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है। कार्य का लक्ष्य मनुष्य पर विजय है। एक लिहाज से, परमेश्वर का देहधारण मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, जिसके अतिरिक्त वह और भी अधिक कार्य करता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, और इसलिए मनुष्य उसके बारे में और भी अधिक आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित कर लेता है। वह सिर्फ उन मनुष्यों के बीच विजय का कार्य करता है जिनकी उसके प्रति असंख्य धारणाएँ होती हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि वे किस प्रकार उससे व्यवहार करते हैं, जब एक बार वह अपनी सेवकाई को पूरा कर लेता है, तो सभी मनुष्य उसके प्रभुत्व के अधीन हो चुके होंगे। इस कार्य का तथ्य न केवल चीनी लोगों के बीच प्रतिबिम्बित होता है, बल्कि यह इस बात का प्रतिनिधित्व करता है कि किस प्रकार सम्पूर्ण मनुष्यजाति को जीत लिया जाएगा। जो प्रभाव इन लोगों पर प्राप्त होते हैं ये उन प्रभावों के एक अग्रदूत हैं जो संपूर्ण मनुष्यजाति पर प्राप्त किए जाएँगे, और उस कार्य के प्रभाव जिन्हें वह भविष्य में करेगा वे इन लोगों पर प्रभावों को और भी तेजी से बढ़ा देंगे। देह में प्रकट परमेश्वर का कार्य किसी बड़ी धूमधाम को शामिल नहीं करता है, न ही यह रहस्य में ढका होता है। यह यथार्थ और वास्तविक होता है, और यह ऐसा कार्य है जिसमें एक और एक दो के बराबर होते हैं। यह किसी से छिपा हुआ नहीं है, न ही यह किसी को धोखा देता है। जो कुछ लोग देखते हैं वे वास्तविक और विशुद्ध चीजें हैं, और जो कुछ मनुष्य प्राप्त करता है वह वास्तविक सत्य और ज्ञान है। जब कार्य समाप्त होगा, तब मनुष्य के पास परमेश्वर के बारे में नया ज्ञान होगा, और जो लोग सचमुच में परमेश्वर को खोजते हैं उनके पास उसके बारे में अब और कोई धारणाएँ नहीं होंगीं। यह सिर्फ चीनी लोगों पर उसके कार्य का प्रभाव नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण मनुष्यजाति को जीतने में उसके कार्य के प्रभाव को भी दर्शाता है, क्योंकि इस देह, और इस देह के कार्य, तथा इस देह की हर एक चीज़ की तुलना में कोई भी चीज़ सम्पूर्ण मनुष्यजाति पर विजय पाने के कार्य के लिए अधिक लाभदायक नहीं है। वे आज उसके कार्य के लिए लाभदायक हैं, और भविष्य में उसके कार्य के लिए लाभदायक हैं। यह देह संपूर्ण मनुष्यजाति को जीत लेगा और संपूर्ण मनुष्यजाति को प्राप्त कर लेगा। ऐसा कोई बेहतर कार्य नहीं है जिसके माध्यम से सम्पूर्ण मनुष्यजाति परमेश्वर को देखेगी, और परमेश्वर का आज्ञापालन करेगी, तथा परमेश्वर को जानेगी। मनुष्य के द्वारा किया गया कार्य मात्र एक सीमित दायरे को दर्शाता है, और जब परमेश्वर अपना कार्य करता है तो वह किसी निश्चित व्यक्ति से बात नहीं करता है, परन्तु सम्पूर्ण मनुष्यजाति से, और उन सभी लोगों से बात करता है जो उसके वचनों को स्वीकार करते हैं। जिस अन्त की वह घोषणा करता है वह सभी मनुष्यों का अन्त है, और सिर्फ किसी निश्चित व्यक्ति का अन्त नहीं है। वह किसी के साथ भी विशेष व्यवहार नहीं करता है, न ही किसी को सताता है, और वह सम्पूर्ण मनुष्यजाति के लिए कार्य करता है, और उससे बात करता है। और इस प्रकार इस देहधारी परमेश्वर ने संपूर्ण मनुष्यजाति को उसके प्रकार के अनुसार पहले से ही वर्गीकृत कर दिया है, संपूर्ण मनुष्यजाति का पहले से ही न्याय कर दिया है, संपूर्ण मनुष्यजाति के लिए पहले से ही उपयुक्त मंज़िल की व्यवस्था कर दी है। यद्यपि परमेश्वर सिर्फ चीन में ही अपना कार्य करता है, फिर भी, वास्तव में, उसने तो पहले से ही सम्पूर्ण विश्व के कार्य का संकल्प कर लिया है। अपने कथनों और अपनी व्यवस्थाओं को कदम दर कदम करने से पहले वह तब तक प्रतीक्षा नहीं कर सकता है जब तक उसका कार्य समस्त मनुष्यजाति में फैल न जाए। क्या यह बहुत देर नहीं हो जाएगी? अब वह भविष्य के कार्य को अग्रिम में पूरा करने में पूरी तरह से समर्थ है। क्योंकि एकमात्र वह जो कार्य कर रहा है वह देहधारी परमेश्वर है, वह सीमित दायरे के भीतर असीमित कार्य कर रहा है, और उसके पश्चात् वह मनुष्य से उस कर्तव्य का पालन करवाएगा जो मनुष्य को करना चाहिए; यह उसके कार्य का सिद्धान्त है। वह केवल थोड़े समय के लिए ही मनुष्य के साथ रह सकता है, और संपूर्ण युग के कार्य के समाप्त होने तक मनुष्य के साथ नहीं रह सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह ऐसा परमेश्वर है जो अग्रिम में ही अपने भविष्य के कार्य की भविष्यवाणी करता है। उसके पश्चात्, वह अपने वचनों के द्वारा सम्पूर्ण मनुष्यजाति को उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत करेगा, और मनुष्यजाति उसके वचनों के अनुसार उसके कदम दर कदम कार्य में प्रवेश करेगी। कोई भी नहीं बच कर नहीं भागेगा, और सभी को इसके अनुसार अभ्यास करना होगा। इसलिए, भविष्य में युग को उसके वचनों के अनुसार मार्गदर्शन दिया जाएगा, और पवित्रात्मा के द्वारा मार्गदर्शन नहीं दिया जाएगा।
देह में प्रकट परमेश्वर के कार्य को देह में अवश्य किया जाना चाहिए। यदि इसे सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया जाता तो उसके कोई प्रभाव नहीं होते। यहाँ तक कि यदि इसे पवित्रात्मा के द्वारा किया जाता, तब भी वह कार्य किसी बड़े महत्व का नहीं होता, और अन्ततः समझाने में असमर्थ होता। सभी प्राणी जानना चाहते हैं कि सृजनकर्ता के कार्य का महत्व है या नहीं, और यह क्या दर्शाता है, और यह किस वास्ते है, और परमेश्वर का कार्य अधिकार और बुद्धि से भरा हुआ है या नहीं, और यह अत्यंत मूल्यवान और महत्वपूर्ण है या नहीं। जिस कार्य को वह करता है वह सम्पूर्ण मनुष्यजाति के उद्धार के लिए है, शैतान को हराने के वास्ते है, और सभी चीज़ों के बीच स्वयं की गवाही देने के लिए है। वैसे तो, जिस कार्य को वह करता है वह अवश्य ही बड़े महत्व का होना चाहिए। मनुष्य की देह को शैतान के द्वारा भष्ट किया गया है, और बिल्कुल अन्धा कर दिया गया है, और गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाया गया है। परमेश्वर किस लिए व्यक्तिगत रूप से देह में कार्य करता है उसका अत्यंत मौलिक कारण है क्योंकि उसके उद्धार का लक्ष्य मनुष्य है, जो हाड़-माँस का है, और क्योंकि शैतान भी परमेश्वर के कार्य को बिगाड़ने के लिए मनुष्य की देह का उपयोग करता है। शैतान के साथ युद्ध वास्तव में मनुष्य पर विजय पाने का कार्य है, और साथ ही, मनुष्य परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य भी है। इस तरह, देहधारी परमेश्वर का कार्य आवश्यक है। शैतान ने मनुष्य की देह को भ्रष्ट कर दिया है, और मनुष्य शैतान का मूर्त रूप बन गया है, और परमेश्वर के द्वारा हराये जाने का लक्ष्य बन गया है। इस तरह से, शैतान से युद्ध करने और मनुष्यजाति को बचाने का कार्य पृथ्वी पर घटित होता है, और शैतान से युद्ध करने के लिए परमेश्वर को अवश्य मनुष्य बनना होगा। यह अत्यंत व्यावहारिकता का कार्य है। जब परमेश्वर देह में कार्य कर रहा होता है, तो वह वास्तव में देह में शैतान से युद्ध कर रहा होता है। जब वह देह में कार्य करता है, तो वह आध्यात्मिक क्षेत्र में अपना कार्य कर रहा होता है, और आध्यात्मिक क्षेत्र के अपने समस्त कार्य को पृथ्वी पर वास्तविक बनाता है। एकमात्र जिस पर विजय पायी जाती है वह मनुष्य है, जो उसके प्रति अवज्ञाकारी है, वह जिसे पराजित किया गया है वह शैतान का मूर्त रूप है (निस्संदेह, यह भी मनुष्य ही है), जो परमेश्वर से शत्रुता में है, और एकमात्र जिसे अन्ततः बचाया जाता है वह भी मनुष्य ही है। इस तरह से, यह परमेश्वर के लिए और भी अधिक आवश्यक हो जाता है कि ऐसा मनुष्य बने जिसके पास एक प्राणी का बाहरी आवरण हो, ताकि वह उस मनुष्य पर विजय पाते हुए, जो उसके प्रति अवज्ञाकारी है और उसके समान ही बाहरी आवरण धारण किए हुए है, और उस मनुष्य को बचाते हुए जो उसके समान ही बाहरी आवरण वाला है और जिसे शैतान के द्वारा नुकसान पहुँचाया गया है, शैतान के साथ वास्तविक युद्ध करने में समर्थ है। उसका शत्रु मनुष्य है, उसकी विजय का लक्ष्य मनुष्य है, और उसके उद्धार का लक्ष्य मनुष्य है, जिसे उसके द्वारा सृजित किया गया था। इसलिए उसे अवश्य मनुष्य बनना ही होगा, और इस तरह, उसका कार्य अधिक आसान हो जाता है। वह शैतान को हराने और मनुष्य को जीतने में समर्थ है, और, उसके अतिरिक्त, मनुष्य को बचाने में समर्थ है। यद्यपि यह देह सामान्य और वास्तविक है, फिर भी यह आम देह नहीं है: यह ऐसी देह नहीं है जो केवल मानवीय हो, परन्तु ऐसी देह है मानवीय और दिव्य दोनों है। यह मनुष्य से उसका अन्तर है, और परमेश्वर की पहचान का चिह्न है। केवल ऐसी देह ही वह काम कर सकता है जिसे वह करने का इरादा करता है, और देह में परमेश्वर की सेवकाई को पूरा कर सकता है, और मनुष्यों के बीच में अपने कार्य को पूरी तरह से पूर्ण कर सकता है। यदि यह ऐसा नहीं होता, तो मनुष्यों के बीच उसका कार्य हमेशा खोखला और त्रुटिपूर्ण होता। यद्यपि परमेश्वर शैतान की आत्मा के साथ युद्ध कर सकता है और विजयी होकर उभर सकता है, फिर भी भ्रष्ट हो चुके मनुष्य की पुरानी प्रकृति का समाधान कभी नहीं किया जा सकता है, और ऐसे लोग जो उसके प्रति अवज्ञाकारी हैं और उसका विरोध करते हैं वे कभी भी उसके प्रभुत्व के अधीन नहीं हो सकते हैं, कहने का तात्पर्य है कि, वह कभी भी मनुष्यजाति को जीत नहीं सकता है, और संपूर्ण मनुष्यजाति को दोबारा कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता है। यदि पृथ्वी पर उसके कार्य का समाधान नहीं किया जा सकता है, तो उसके प्रबन्धन को कभी भी समाप्ति तक नहीं लाया जाएगा, और संपूर्ण मनुष्यजाति विश्राम में प्रवेश करने में समर्थ नहीं होगी। यदि परमेश्वर अपने सभी प्राणियों के साथ विश्राम में प्रवेश नहीं कर सकता है, तब ऐसे प्रबंधन के कार्य का कभी भी कोई परिणाम नहीं होगा, और फलस्वरूप परमेश्वर की महिमा विलुप्त हो जाएगी। यद्यपि उसकी देह के पास कोई अधिकार नहीं है, फिर भी जिस कार्य को वह करता है उसने अपने प्रभाव को प्राप्त कर लिया होगा। यह उसके कार्य का अनिवार्य निर्देशन है। इस बात पर ध्य़ान दिए बिना कि उसकी देह अधिकार को धारण करता है या नहीं, अगर वह स्वयं परमेश्वर के कार्य को करने में समर्थ है, तो वह स्वयं परमेश्वर है। इस बात पर की परवाह किए बिना कि यह देह कितना सामान्य और साधारण है, वह उस कार्य को कर सकता है जो उसे करना चाहिए, क्योंकि यह देह परमेश्वर है और मात्र एक मनुष्य नहीं है। यह देह उस कार्य को कर सकता है जिसे मनुष्य नहीं कर सकता है उसका कारण यह क्योंकि उसका आंतरिक सार किसी भी मनुष्य के असदृश है, और वह मनुष्य को बचा सकता है उसका कारण है क्योंकि उसकी पहचान किसी भी मनुष्य से भिन्न है। यह देह मनुष्यजाति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि वह मनुष्य है और उससे भी बढ़कर परमेश्वर है, क्योंकि वह उस कार्य को कर सकता है जिसे हाड़-माँस का कोई सामान्य मनुष्य नहीं कर सकता है, और क्योंकि वह भ्रष्ट मनुष्य को बचा सकता है, जो पृथ्वी पर उसके साथ मिलकर रहता है। यद्यपि वह मनुष्य के समरूप है, फिर भी देहधारी परमेश्वर किसी भी मूल्यवान व्यक्ति की तुलना में मनुष्यजाति के लिए अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह उस कार्य को कर सकता है जो परमेश्वर के आत्मा के द्वारा नहीं किया जा सकता है, वह स्वयं परमेश्वर की गवाही देने के लिए परमेश्वर के आत्मा की तुलना में अधिक सक्षम है, और मनुष्यजाति को पूरी तरह से प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के आत्मा की तुलना में अधिक समर्थ है। परिणामस्वरूप, यद्यपि यह देह सामान्य और साधारण है, फिर भी मनुष्यजाति के प्रति उसका योगदान और मनुष्यजाति के अस्तित्व के प्रति उसका महत्व उसे अत्यंत बहुमूल्य बना देता है, और इस देह का वास्तविक मूल्य और महत्व किसी भी मनुष्य के लिए अथाह है। यद्यपि यह देह सीधे तौर पर शैतान को नष्ट नहीं कर सकता है, फिर भी वह मनुष्यजाति को जीतने और शैतान को हराने के लिए अपने कार्य का उपयोग कर सकता है, और अपने प्रभुत्व के अधीन शैतान से पूरी तरह से समर्पण करवा सकता है। परमेश्वर इसलिए देह धारण करता है ताकि वह शैतान को हरा सके और वह मनुष्यजाति को बचाने में समर्थ है। वह सीधे तौर पर शैतान को नष्ट नहीं करता है, बल्कि मनुष्यजाति, जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट किया गया है, को जीतने का कार्य करने के लिए देह बनता है। इस तरह से, वह सभी प्राणियों के बीच स्वयं की बेहतर ढंग से गवाही देने में समर्थ होता है, और वह भ्रष्ट किए गए मनुष्य को बेहतर ढंग से बचाने में समर्थ होता है। परमेश्वर के आत्मा के द्वारा शैतान के प्रत्यक्ष विनाश की तुलना में देहधारी परमेश्वर के द्वारा शैतान की पराजय अधिक बड़ी गवाही देती है, तथा यह और अधिक विश्वास दिलाने वाली बात है। देह में प्रकट परमेश्वर सृजनकर्ता को जानने में मनुष्य की बेहतर ढंग से सहायता करने में समर्थ है, और प्राणियों के बीच स्वयं की बेहतर ढंग से गवाही देने में समर्थ है।
स्रोत

सदोम की भ्रष्टताः मुनष्यों को क्रोधित करने वाली, परमेश्वर के कोप को भड़काने वाली

सर्वप्रथम, आओ हम पवित्र शास्त्र के अनेक अंशों को देखें जो "परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश" की व्याख्या करते हैं। (उत्पत्ति 19...