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गुरुवार, 6 जून 2019

मसीह जो अभिव्यक्त करता है वो आत्मा है




  • I
  • मानव का सार जानता है देहधारी परमेश्वर,
  • प्रकट करता है वो सब जो लोग करते हैं,
  • मानव के भ्रष्ट स्वभाव, विद्रोही आचरण को,
  • और भी बेहतर प्रकट करता है।
  • वो नहीं रहता सांसारिक लोगों के साथ,
  • पर जानता है उनकी प्रकृति और भ्रष्टाचार।
  • ये उसका स्वरूप है।
  • हालांकि वो दुनिया के साथ व्यवहार नहीं करता,
  • फिर भी वो जानता है दुनिया से जुड़ने का हर एक नियम।
  • क्योंकि वो समझता है मानवजाति को,
  • उसकी प्रकृति को पूर्ण रूप से।
  • II
  • आत्मा के वर्तमान और अतीत के
  • कार्य के बारे में वो जानता है,
  • जो मानव की आँखें नहीं देख सकतीं,
  • जो मानव के कान नहीं सुन सकते हैं।
  • ये दर्शाता है चमत्कार जो मानव नहीं समझ सकता,
  • और बुद्धि जो फ़लसफ़ा नहीं है।
  • ये उसका स्वरूप है,
  • मानव से छुपा और प्रकाशित भी।
  • उसकी अभिव्यक्ति किसी असाधारण मानव सी नहीं,
  • बल्कि अंतर्निहित अस्तित्व
  • और आत्मा का गुण है।
  • III
  • वो दुनिया की यात्रा नहीं करता,
  • फिर भी इसके बारे में वो सब जानता है।
  • वो मिलता उनसे ज्ञान, अंतर्दृष्टि नहीं जिनमें,
  • फिर भी उसके वचन महान लोगों से ऊपर हैं।
  • वो नासमझ और सुन्न लोगों के बीच रहता है,
  • जो नहीं जानते मानव की परम्पराओं को या कैसे जीते हैं।
  • पर वो कह सकता है उन्हें सच्चा मानवीय जीवन जीने के लिए,
  • प्रकट करते हुए, वे कितने नीच, कितने अधम हैं!
  • ये उसका स्वरूप है,
  • ख़ून और देह के लोगों से भी ऊँचा।
  • मानव का ख़ुलासा और न्याय करना उसके अनुभव से नहीं है।
  • जान कर, नफ़रत कर मानव की अवज्ञा से,
  • उनके अधर्म का वो प्रकाशन करता है।
  • उसका किया कार्य प्रकाशित करता है
  • उसका स्वभाव और अस्तित्व मानव के समक्ष।
  • मसीह को छोड़ कोई देह ऐसा कार्य नहीं कर सकता।
  •  
  • "वचन देह में प्रकट होता है" से

      चमकती पूर्वी बिजली, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया का सृजन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रकट होने और उनका काम, परमेश्वर यीशु के दूसरे आगमन, अंतिम दिनों के मसीह की वजह से किया गया था। यह उन सभी लोगों से बना है जो अंतिम दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करते हैं और उसके वचनों के द्वारा जीते और बचाए जाते हैं। यह पूरी तरह से सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से स्थापित किया गया था और चरवाहे के रूप में उन्हीं के द्वारा नेतृत्व किया जाता है। इसे निश्चित रूप से किसी मानव द्वारा नहीं बनाया गया था। मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है। परमेश्वर की भेड़ परमेश्वर की आवाज़ सुनती है। जब तक आप सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, आप देखेंगे कि परमेश्वर प्रकट हो गए हैं।

शनिवार, 4 मई 2019

तुम्हें पवित्र आत्मा के और दुष्ट आत्माओं के कार्य के बीच में कैसे विभेद करना चाहिए?

अध्याय 6 विभेदन के कई रूप जिन्हें परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में तुम्हें धारण करना चाहिए
     
      2. तुम्हें पवित्र आत्मा के और दुष्ट आत्माओं के कार्य के बीच में कैसे विभेद करना चाहिए?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

      पवित्र आत्मा का कार्य कुल मिलाकर लोगों को इस योग्य बनाना है कि वे लाभ प्राप्त कर सकें; यह कुल मिलाकर लोगों की उन्नति के विषय में है; ऐसा कोई कार्य नहीं है जो लोगों को लाभान्वित न करता हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि सत्य गहरा है या उथला, और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उन लोगों की क्षमता किसके समान है जो सत्य को स्वीकार करते हैं, जो कुछ भी पवित्र आत्मा करता है, यह सब लोगों के लिए लाभदायक है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से

      पवित्र आत्मा का कार्य सक्रिय अगुवाई करना और सकारात्मक प्रकाशन है। यह लोगों को निष्क्रिय नहीं बनने देता है। यह उनको राहत पहुँचाता है, उन्हें विश्वास और दृढ़ निश्चय देता है और यह परमेश्वर के द्वारा सिद्ध किए जाने का अनुसरण करने के लिए उन्हें योग्य बनाता है। जब पवित्र आत्मा कार्य करता है, तो लोग सक्रिय रूप से प्रवेश कर सकते हैं; वे निष्क्रिय नहीं होते और उन्हें बाध्य भी नहीं किया जाता, बल्कि वे सक्रिय रहते हैं। जब पवित्र आत्मा कार्य करता है तो लोग प्रसन्न और इच्छापूर्ण होते हैं, और वे आज्ञा मानने के लिए तैयार होते हैं, और स्वयं को दीन करने में प्रसन्न होते हैं, और यद्यपि भीतर से पीड़ित और दुर्बल होते हैं, फिर भी उनमें सहयोग करने का दृढ़ निश्चय होता है, वे ख़ुशी-ख़ुशी दुःख सह लेते हैं, वे आज्ञा मान सकते हैं, और वे मानवीय इच्छा से निष्कलंक रहते हैं, मनुष्य की विचारधारा से निष्कलंक रहते हैं, और निश्चित रूप से मानवीय अभिलाषाओं और अभिप्रेरणाओं से निष्कलंक रहते हैं। जब लोग पवित्र आत्मा के कार्य का अनुभव करते हैं, तो वे भीतर से विशेष रूप से पवित्र हो जाते हैं। जो पवित्र आत्मा के कार्य को अपने अंदर रखते हैं वे परमेश्वर के प्रेम को और अपने भाइयों और बहनों के प्रेम को अपने जीवनों से दर्शाते हैं, और ऐसी बातों में आनंदित होते हैं जो परमेश्वर को आनंदित करती हैं, और उन बातों से घृणा करते हैं जिनसे परमेश्वर घृणा करता है। ऐसे लोग जो पवित्र आत्मा के कार्य के द्वारा स्पर्श किए जाते हैं, उनमें सामान्य मनुष्यत्व होता है, और वे मनुष्यत्व को रखते हैं और निरंतर सत्य का अनुसरण करते हैं। जब पवित्र आत्मा लोगों के भीतर कार्य करता है, तो उनकी परिस्थितियाँ और अधिक बेहतर हो जाती हैं और उनका मनुष्यत्व और अधिक सामान्य हो जाता है, और यद्यपि उनका कुछ सहयोग मूर्खतापूर्ण हो सकता है, परंतु फिर भी उनकी प्रेरणाएँ सही होती हैं, उनका प्रवेश सकारात्मक होता है, वे रूकावट बनने का प्रयास नहीं करते और उनमें कुछ भी दुर्भाव नहीं होता। पवित्र आत्मा का कार्य सामान्य और वास्तविक होता है, पवित्र आत्मा मनुष्य के भीतर मनुष्य के सामान्य जीवन के नियमों के अनुसार कार्य करता है, और वह सामान्य लोगों के वास्तविक अनुसरण के अनुसार लोगों को प्रकाशित करता है और उन्हें अगुवाई देता है। जब पवित्र आत्मा लोगों में कार्य करता है तो वह सामान्य लोगों की आवश्यकता के अनुसार अगुवाई करता और प्रकाशित करता है, वह उनकी आवश्यकताओं के अनुसार उनकी जरूरतों को पूरा करता है, और वह सकारात्मक रूप से उनकी कमियों और अभावों के आधार पर उनकी अगुवाई करता है और उनको प्रकाशित करता है; जब पवित्र आत्मा कार्य करता है, तो यह कार्य मनुष्य के सामान्य जीवन के नियमों के साथ सांमजस्यपूर्ण होता है, और यह केवल वास्तविक जीवन में ही होता है कि लोग पवित्र आत्मा के कार्य को देख सकते हैं। यदि अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में लोग सकारात्मक अवस्था में हों और उनके पास एक सामान्य आत्मिक जीवन हो, तो उनमें पवित्र आत्मा के कार्य पाए जाते हैं। ऐसी अवस्था में, जब वे परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं तो उनमें विश्वास आता है, जब वे प्रार्थना करते हैं, तो वे प्रेरित होते हैं, जब उनके साथ कुछ घटित होता है तो वे निष्क्रिय नहीं होते, और उनके साथ कुछ घटित होते समय वे उन सबकों या सीखों को देख सकते हैं जो परमेश्वर चाहता है कि वे सीखें, और वे निष्क्रिय, या कमजोर नहीं होते, और यद्यपि उनके जीवन में वास्तविक कठिनाइयाँ होती हैं, फिर भी वे परमेश्वर के सभी प्रबंधनों की आज्ञा मानने के लिए तैयार रहते हैं।



      शैतान की ओर से कौनसे कार्य आते हैं? उस कार्य में जो शैतान की ओर से आता है, ऐसे लोगों में दर्शन अस्पष्ट और धुंधले होते हैं, और वे सामान्य मनुष्यत्व के बिना होते हैं, उनमें उनके कार्यों के पीछे की प्रेरणाएँ गलत होती हैं, और यद्यपि वे परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं, फिर भी उनके भीतर सैदव दोषारोपण रहते हैं, और ये दोषारोपण और विचार उनमें सदैव हस्तक्षेप करते रहते हैं, जिससे वे उनके जीवन की बढ़ोतरी को सीमित कर देते हैं और परमेश्वर के समक्ष सामान्य परिस्थितियों को रखने से उन्हें रोक देते हैं। कहने का अर्थ है कि जैसे ही लोगों में शैतान का कार्य आरंभ होता है, तो उनके हृदय परमेश्वर के समक्ष शांत नहीं हो सकते, उन्हें नहीं पता होता कि वे स्वयं के साथ क्या करें, सभा का दृश्य उन्हें वहाँ से भाग जाने को बाध्य करता है, और वे तब अपनी आँखें बंद नहीं रख पाते जब दूसरे प्रार्थना करते हैं। दुष्ट आत्माओं का कार्य मनुष्य और परमेश्वर के बीच के सामान्य संबंध को तोड़ देता है, और लोगों के पहले के दर्शनों और उस मार्ग को बिगाड़ देता है जिनमें उनके जीवन ने प्रवेश किया था, अपने हृदयों में वे कभी परमेश्वर के करीब नहीं आ सकते, ऐसी बातें निरंतर होती रहती हैं जो उनमें बाधा उत्पन्न करती हैं और उन्हें बंधन में बाँध देती हैं, और उनके हृदय शांति प्राप्त नहीं कर पाते, जिससे उनमें परमेश्वर से प्रेम करने की कोई शक्ति नहीं बचती, और उनकी आत्माएँ पतन की ओर जाने लगती हैं। शैतान के कार्यों के प्रकटीकरण ऐसे हैं। शैतान का कार्य निम्न रूपों में प्रकट होता है: अपने स्थान और गवाही में स्थिर खड़े नहीं रह सकना, तुम्हें ऐसा बना देना जो परमेश्वर के समक्ष दोषी हो, और जिसमें परमेश्वर के प्रति कोई विश्वासयोग्यता न हो। शैतान के हस्तक्षेप के समय तुम अपने भीतर परमेश्वर के प्रति प्रेम और वफ़ादारी को खो देते हो, तुम परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध से वंचित कर दिए जाते हो, तुम सत्य या स्वयं के सुधार का अनुसरण नहीं करते, तुम पीछे हटने लगते हो, और निष्क्रिय बन जाते हो, तुम स्वयं को आसक्त कर लेते हो, तुम पाप के फैलाव को खुली छूट दे देते हो, और पाप से घृणा भी नहीं करते; इससे बढ़कर, शैतान का हस्तक्षेप तुम्हें स्वच्छंद बना देता है, यह तुम्हारे भीतर से परमेश्वर के स्पर्श को हटा देता है, और तुम्हें परमेश्वर के प्रति शिकायत करने और उसका विरोध करने को प्रेरित करता है, जिससे तुम परमेश्वर पर सवाल उठाते हो, और फिर तुम परमेश्वर को त्यागने तक को तैयार होने लगते हो। यह सब शैतान का कार्य है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "पवित्र आत्मा का कार्य और शैतान का कार्य" से

      यदि यह पवित्र आत्मा का कार्य है, तो मनुष्य हमेशा से अधिक सामान्य बन जाता है, और उसकी मानवता हमेशा से अधिक सामान्य बन जाती है। मनुष्य को अपने स्वभाव का, जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है और मनुष्य के सार का बढ़ता हुआ ज्ञान होता है, और उसकी सत्य के लिए हमेशा से अधिक ललक होती है। अर्थात्, मनुष्य का जीवन अधिकाधिक बढ़ता जाता है और मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अधिकाधिक बदलावों में सक्षम हो जाता है – जिस सब का अर्थ है परमेश्वर का मनुष्य का जीवन बनना। यदि एक मार्ग उन चीजों को प्रकट करने में असमर्थ है जो मनुष्य का सार हैं, मनुष्य के स्वभाव को बदलने में असमर्थ है, और, इसके अलावा, उसे परमेश्वर के सामने लाने में असमर्थ है या उसे परमेश्वर की सच्ची समझ प्रदान कराने में असमर्थ है, और यहाँ तक कि उसकी मानवता का हमेशा से अधिक निम्न होने और उसकी भावना का हमेशा से अधिक असामान्य होने का कारण बनता है, तो यह मार्ग अवश्य सच्चा मार्ग नहीं होना चाहिए और यह दुष्टात्मा का कार्य, या पुराना मार्ग हो सकता है। संक्षेप में, यह पवित्र आत्मा का वर्तमान का कार्य नहीं हो सकता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर को सन्तुष्ट कर सकते हैं" से

      परमेश्वर से उत्पन्न होने वाली चीज़ें तुम्हें दर्शन के बारे में अधिक स्पष्ट करती हैं, और वे तुम्हें परमेश्वर के करीब और करीब पहुंचाती हैं, और सच्चाई से भाइयों और बहनों के साथ प्रेम साझा करने में मदद करती हैं; तुम परमेश्वर के बोझ की ओर ध्यान देने के काबिल हो, और परमेश्वर-प्रेमी तुम्हारा दिल रुकता नहीं है; तुम्हारे चलने के लिए एक रास्ता होता है। शैतान से उत्पन्न होने वाली चीज़ों के कारण तुम दर्शन खो देते हो और जो कुछ भी तुम्हारे पास पहले था वह सब चला जाता है; तुम परमेश्वर से दूर हो जाते हो, भाइयों और बहनों के लिए तुम्हारे दिल में कोई प्रेम नहीं रहता और तुम्हारे दिल में घृणा भर जाती है। तुम हताश हो जाते हो, तुम कलीसिया का जीवन व्यतीत नहीं करना चाहते हो, और अब तुम्हारा दिल परमेश्वर-प्रेमी नहीं रहता। यह शैतान का काम है और यह बुरी आत्माओं के काम का परिणाम भी है।

      "आरंभ में मसीह के कथन और गवाहियाँ" से

      जब पवित्र आत्मा लोगों के प्रबोधन के लिए कार्य करता है, तो वह आम तौर पर उन्हें परमेश्वर के कार्य का ज्ञान देता है, और उनकी सच्ची प्रविष्टि और सच्ची अवस्था का ज्ञान देता है, और वह उन्हें संकल्प भी देता है, उन्हें परमेश्वर के उत्सुक इरादे और उसकी मनुष्य से वर्तमान अपेक्षाओं के बारे में समझने देता है, वह उन्हें हर तरह से खुलने का संकल्प देता है। यहाँ तक ​​कि जब लोग रक्तपात और बलिदान से गुजरते हैं, उन्हें फिर भी परमेश्वर के लिए कार्य करना चाहिए, और जब वे उत्पीड़न और प्रतिकूल परिस्थितियों से मिलें, तब भी उन्हें परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए, और उन्हें कोई अफ़सोस नहीं होना चाहिए, और परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए। इस तरह का संकल्प पवित्र आत्मा की प्रेरणा है, और पवित्र आत्मा का कार्य है—लेकिन जान लो कि तुम हर गुजरते पल में इस तरह की प्रेरणा से संपन्न नहीं हो।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "अभ्यास (1)" से

      कुछ लोग कहते हैं कि पवित्र आत्मा हर समय उनमें कार्य कर रहा है। यह असंभव है। यदि वे कहते कि पवित्र आत्मा हमेशा उनके साथ है, तो यह यथार्थ पर आधारित होता। यदि वे कहते कि उनकी सोच और उनका बोध हर समय सामान्य है, तो यह भी यथार्थ पर आधारित होता और यह दिखाता कि पवित्र आत्मा उनके साथ है। यदि तुम कहते हो कि पवित्र आत्मा हमेशा तुम्हारे भीतर कार्य कर रहा है, कि तुम परमेश्वर द्वारा प्रबुद्ध किए गए हो और हर पल पवित्र आत्मा द्वारा स्पर्श किए जाते हो, और हर समय नया ज्ञान प्राप्त करते हो, तो यह सामान्य नहीं है। यह नितान्त अलौकिक है! बिना किसी संदेह के, ऐसे लोग बुरी आत्माएँ हैं! यहाँ तक कि जब परमेश्वर का आत्मा देह में आता है, तब ऐसे समय होते हैं जब उसे भी अवश्य आराम करना चाहिए और भोजन करना चाहिए—तुम्हारी तो बात ही छोड़ो। जो लोग बुरी आत्माओं द्वारा ग्रस्त हो गए हैं, वे देह की कमजोरी से रहित प्रतीत होते हैं। वे सब कुछ त्यागने और छोड़ने में सक्षम हैं, वे संयमशील होते हैं, यातना को सहने में सक्षम होते हैं, वे जरा सी भी थकान महसूस नहीं करते हैं, मानो कि वे देहातीत हैं चुके हों। क्या यह नितान्त अलौकिक नहीं है? दुष्ट आत्मा का कार्य अलौकिक है, और ये चीजें मनुष्य के द्वारा अप्राप्य हैं। जो लोग विभेद नहीं कर सकते हैं वे जब ऐसे लोगों को देखते हैं, तो ईर्ष्या करते हैं, और कहते हैं कि परमेश्वर पर उनका विश्वास बहुत मजबूत है, और बहुत अच्छा है, और यह कि वे कभी कमजोर नहीं पड़ते हैं। वास्तव में, यह दुष्ट आत्मा के कार्य की अभिव्यक्ति है। इसका कारण यह है कि एक सामान्य अवस्था के लोगों में अनिवार्य रूप से मानवीय कमजोरियाँ होती हैं; यह उन लोगों की सामान्य अवस्था है जिनमें पवित्र आत्मा की उपस्थिति होती है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "अभ्यास (4)" से

      या तुम अपनी आत्मा को महसूस करने के योग्य हो? क्या तुम अपनी आत्मा को छूने के योग्य हो? क्या तुम सब यह जानने के योग्य हो कि तुम सब की आत्मा क्या कर रही है? तुम सब नहीं जानते हो, है ना? यदि तुम ऐसी बातों को महसूस करने और समझने के योग्य हो, तो यह तुम्हारे भीतर एक अन्य आत्मा बलपूर्वक कुछ करवा रहा है-तुम्हारे कार्यों और शब्दों को नियन्त्रित कर रहा है। तुम में यह कुछ बाहर का है-यह तुम्हारा नहीं है। वे लोग जिनमें दुष्टतात्मा होती है, उन्हें इसका बहुत अनुभव होता है।

      "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "परमेश्वर की देह और आत्मा के एकत्व को कैसे समझें" से

      निश्चित रूप से, आज कुछ दुष्ट आत्माएँ हैं जो मनुष्य को धोखा देने के लिए अलौकिक चीजों के माध्यम से कार्य करती हैं; यह ऐसे कार्य के द्वारा मनुष्य को धोखा देने के लिए जो वर्तमान में पवित्र आत्मा द्वारा नहीं किया जाता है, उनकी ओर से नक़ल के अलावा और कुछ नहीं है। कई बुरी आत्माएँ चमत्कारों के कार्य और बीमारी को चंगा करने की नक़ल करती हैं; वे बुरी आत्माओं के कार्य के अलावा और कुछ नहीं हैं, क्योंकि पवित्र आत्मा वर्तमान में ऐसा कार्य अब और नहीं करता है। वे सभी जो बाद में पवित्र आत्मा के कार्य की नकल करते हैं—वे बुरी आत्माएँ हैं।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (1)" से

मनुष्य की सहभागिता:

      पवित्र आत्मा का कार्य लोगों को सत्य समझने देता है, यह उन्हें शैतान के भ्रष्ट सार को जानने देता है, और यह उन्हें परमेश्वर के स्वभाव के बारे में एक सच्चा ज्ञान देता है। इसके प्रभाव पूरी तरह से सकारात्मक होते हैं। आज, हम जानते हैं कि सत्य क्या है, कि सत्य परमेश्वर से आता है, कि सकारात्मक चीजें परमेश्वर से आती हैं, सामान्य मानवता वाले लोगों के द्वारा क्या धारण किया जाना चाहिए, परमेश्वर की इच्छा क्या है, और सच्चा जीवन क्या है। ये सब सकारात्मक चीजें हैं, और सकारात्मक चीजों की वास्तविकता सत्य है। परमेश्वर के कार्य का प्रभाव ऐसा ही होता है, और हम इसे सिर्फ पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी के कारण समझते हैं। दुष्ट आत्माओं का कार्य लोगों को सकारात्मक चीजों का ज्ञान नहीं दे सकते हैं। तुम्हे स्पष्ट हो जाना चाहिए कि जिन लोगों में दुष्ट आत्माएँ कार्य करती हैं वे किसी भी सत्य को नहीं समझते या उसका अर्थ नहीं समझते है। दुष्ट आत्माओं का कार्य लोगों को केवल अधिकाधिक दुष्ट ही बना सकता है, यह सिर्फ उनके हृदय में बहुत अधिक अंधकार ही ला सकता है, उनके स्वभाव को बहुत अधिक भ्रष्ट, और उनकी अवस्था को बहुत बदतर बना सकता है, अंत में तबाही और विनाश कर देता है। पवित्र आत्मा का कार्य लोगों को बहुत सामान्य बनाता है, यह उन्हें सत्य की एक बहुत अधिक समझ और परमेश्वर में बहुत विश्वास देता है, और वे परमेश्वर का आज्ञापालन करने में बहुत समर्थ हो जाते हैं। अंत में, यह उन्हें परमेश्वर को पूरी तरह से जानने और परमेश्वर की आराधना करने की अनुमति देता है। यह पवित्र आत्मा के कार्य का प्रभाव है, और यह दुष्ट आत्माओं के कार्य के पूरी तरह से विपरीत है।

      जीवन में प्रवेश के विषय में संगति एवं प्रवचन (II) में "पवित्र आत्मा के कार्य को जानना मनुष्य के उद्धार के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है" से

      नीचे, आइये हम दुष्ट आत्माओं के विभिन्न कार्यों और पवित्र आत्मा के कार्य के कुछ और स्पष्ट अंतरों को देखें, और देखें कि कैसे वे विषेश रूप से व्यक्त होते हैं। पवित्र आत्मा उन लोगों का चुनाव करता है जो सत्य को खोजते हैं, जिनके पास अंत: करण और विवेक है, और वे जो सत्यनिष्ठा से संपन्न हैं। वे ऐसे लोग हैं जिनमें वह कार्य करता है। दुष्ट आत्माएँ उन लोगों का चुनाव करती हैं जो कपटी और बेहूदे होते हैं, जिन्हें सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं होता है, और जो अंत:करण या विवेक रहित होते हैं। ये ऐसे लोग हैं जिनमें दुष्ट आत्माएँ कार्य करती हैं। जब हम उन लोगों की तुलना करते हैं जो पवित्र आत्मा के कार्य के लिए चुने जाते हैं, और जो दुष्ट आत्माओं के कार्य के लिए चुने जाते हैं तो हम क्या देखते हैं? हम देख सकते हैं कि परमेश्वर पवित्र, और धार्मिक है, कि जो परमेश्वर के द्वारा चुने जाते हैं वे सत्य को खोजते हैं, और अंत:करण और विवेक से संपन्न होते हैं, कि उनमें सत्यनिष्ठा होती है, और प्रेम होता है जो यूँ ही होता है। जो दुष्ट आत्माओं के द्वारा चुने जाते हैं वे कपटी होते हैं, वे स्वार्थी और नीच होते हैं, उनके पास सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं होता है, वे अंत:करण और विवेक रहित होते हैं, और वे सत्य को नहीं खोजते हैं। दुष्ट आत्माएँ सिर्फ नकारात्मक चीज़ों और उन लोगों को चुनती हैं जो सच्चे नहीं होते हैं, जिससे हम देखते हैं कि दुष्ट आत्माएँ दुष्टता और अंधकार को पसंद करती हैं, और यह कि वे उनसे एक मील दूर भागती हैं जो सत्य को खोजते हैं, और जो अधार्मिकता से आसक्त होते हैं, और आसानी से मोहित किए जा सकते हैं उन पर शीघ्रता से काबू पा लेती हैं। जिनमें दुष्ट आत्माएँ कार्य करना चुनती हैं वे बचाये नहीं जा सकते हैं, और वे परमेश्वर के द्वारा निकाल दिए गए जाते हैं। दुष्ट आत्माएँ कब, और किस पृष्ठभूमि के विरोध में कार्य करती हैं? वे तब कार्य करती हैं जब लोग परमेश्वर से दूर भटक जाते हैं और परमेश्वर के प्रति विद्रोह कर देते हैं। दुष्ट आत्माओं का कार्य लोगों को मोहित कर लेता है, और जब वे पाप करते हैं तब उसका फायदा उठा कर ये ऐसा करती हैं। जब लोग अपने-आप में सबसे अधिक निर्बल होते हैं, विशेष रूप से जब उनके हृदय में बहुत पीड़ा होती है, जब वे व्याकुल और भ्रमित महसूस कर रहे होते हैं, तब दुष्ट आत्मा उन्हें मोहित और भ्रष्ट करने, उनमें और परमेश्वर के बीच में कलह बोने के लिए इस अवसर का उपयोग करती है। पवित्र आत्मा के कार्य का एक समय होता हैः जब लोग परमेश्वर को पुकारते हैं, जब उनके हृदय परमेश्वर की ओर मुड़ते हैं, जब उन्हें परमेश्वर की आवश्यकता होती है, जब वे परमेश्वर के सामने पश्चाताप करते हैं, और जब वे सत्य को खोजते हैं, तब पवित्र आत्मा उनमें कार्य करना शुरू करता है। देखो कि कैसे पवित्र आत्मा के कार्य का प्रत्येक पहलू मनुष्य को बचाने के लिए है, कैसे वह मनुष्य को बचाने के लिए अवसर ढूँढ़ता है, जबकि दुष्ट आत्माएँ लोगों को भ्रष्ट करने और उनके साथ छल करने के लिए अवसरों की खोज में रहती हैं। दुष्ट आत्माएँ नीच और दुष्ट होती हैं, वे घातक और भयावह होती हैं, वे जो कुछ भी करती हैं वह मनुष्य को भ्रष्ट करने, और मनुष्य को नुकसान पहुँचाने, और मनुष्य को निगलने करने के लिए होता है। जब लोगों को आवश्यकता होती है, जब वे परमेश्वर को अत्यावश्यक रूप से पुकारते हैं, जब उन्हें परमेश्वर द्वारा उद्धार की आवश्यकता होती, और जब वे अपने हृदय में परमेश्वर के निकट आने की कामना करते हैं, तब पवित्र आत्मा उन पर प्रकट होता है और उद्धार का कार्य करता है। परमेश्वर प्रेम है, और दुष्ट आत्माएँ घृणा हैं—यह तुम्हें स्पष्ट है, हाँ? दुष्ट आत्माएँ जो कुछ भी करती हैं वह मनुष्य को निगलने और भ्रष्ट करने के लिए होता है, और पवित्र आत्मा जो कुछ भी करता है वह मनुष्य के लिए प्रेम और उद्धार के लिए होता है। पवित्र आत्मा के कार्य के प्रभाव लोगों को शुद्ध करने, उन्हें उनकी भ्रष्टता से बचाने, उन्हें अपने-आप को जानने और शैतान को जानने की अनुमति देने, शैतान के विरुद्ध विद्रोह करने में समर्थ होने, सत्य की खोज करने, और अंततः मनुष्य की सदृशता में जीने में समर्थ बनाने के लिए होते हैं। दुष्ट आत्माएँ लोगों को भ्रष्ट करती हैं, दूषित करती हैं, और जकड़ती हैं, वे उन्हें हमेशा पाप में और गहरा डुबा देती हैं, और हमेशा उनके जीवन में बहुत दर्द लाती हैं, और इसलिए जब दुष्ट आत्माएँ लोगों में कार्य करती हैं, तो वे ख़त्म हो जाते हैं; अंततः, वे शैतान के द्वारा निगल लिए जाते हैं, जो कि दुष्ट आत्माओं के कार्य का परिणाम होता है। पवित्र आत्मा के कार्य का प्रभाव अंततः लोगों को बचाना, उन्हें एक वास्तविक जीवन जीने के योग्य बनाना, पूरी तरह से मुक्त और स्वतंत्र बनाना और परमेश्वर के आशीषों को प्राप्त करना है। देखो: दुष्ट आत्माएँ मनुष्य को अंधकार में ले जाती हैं, वे उसे रसातल में ले जाती हैं; पवित्र आत्मा मनुष्य को अंधकार से प्रकाश में, स्वतंत्रता में ले जाता है। पवित्र आत्मा का कार्य लोगों को प्रबुद्ध करता है और उनका मार्गदर्शन करता है, वह उन्हें अवसर देता है, और जब वे निर्बल होते और पाप करते हैं तब वह उनके लिए सांत्वना लाता है। वह लोगों को अपने-आप को जानने देता है, उन्हें सत्य को खोजने देता है, और वह लोगों को चीज़ों को करने के लिए विवश नहीं करता है, बल्कि उन्हें अपना खुद का मार्ग अपने आप चुनने देता है, और अंततः उन्हें प्रकाश में ले जाता है। दुष्ट आत्माएँ चीज़ों को करने के लिए लोगों को विवश करती हैं और उन पर आदेश चलाती हैं। वे जो कुछ भी कहती हैं वह झूठ होता है और लोगों को मोहित करता हैं, उन्हें धोखा देता है, और उन्हें जकड़ता है; दुष्ट आत्माएँ लोगों को स्वतंत्रता नहीं देती हैं, वे उन्हें चुनने की आजादी नहीं देती हैं, वे उन्हें विनाश के मार्ग पर विवश करती हैं, और अंततः उन्हें पाप में बहुत गहरा डुबो देती हैं, उन्हें मृत्यु तक ले जाती हैं। उन बुरे लोगों को, उन दुष्ट प्रकार के लोगों को देखो: वे दूसरे लोगों को गंदे नाले में खींचते हैं, वे उन्हें अपराध में खींचते हैं, और उन्हें जुए के अड्डों में खींचते हैं। अंततः, जब वे लोगों के परिवारों को बर्बाद कर देते हैं और उनका जीवन ले लेते हैं, तो वे खुश हो जाते हैं, उनका कार्य पूरा हो जाता है, और उन्होंने अपना लक्ष्य पा लिया होता है। क्या वे राक्षस नहीं हैं? जबकि जो सचमुच में अच्छे होते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं वे लोगों को परमेश्वर के निकट लाते हैं, और उन्हें परमेश्वर में विश्वास करवाने, सत्य की समझ प्राप्त करने, एक वास्तविक जीवन की खोज करने, और अंततः उन्हें मनुष्य की सदृशता में जीने की ओर ले जाते हैं। इन सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच में कितना स्पष्ट विरोध है! पवित्र आत्मा के सिद्धांतों, साधनों, और कार्य के अंतिम प्रभाव की दुष्ट आत्माओं के सिद्धांतों, साधनों, और कार्य के अंतिम प्रभाव के साथ तुलना करने पर, हम देखते हैं कि परमेश्वर मनुष्य को बचाता है, उससे प्रेम करता है, और मनुष्य को सत्य देता है, कि वह मनुष्य को प्रकाश में ले जाता है, और अंततः मनुष्य को धन्य बनने और और एक वास्तविक व्यक्ति बनने और सच्चा जीवन जीने देता है। शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है, यह मानवजाति को जकड़ता है, यह मानवजाति को निगलने की कोशिश करता है, और अंततः मानवजाति को तबाही और विनाश तक ले जाता है। पवित्र आत्मा के कार्य को जानने के माध्यम से, हम दुष्ट आत्माओं के कार्य को पहचानने और मानवजाति की शैतान की भ्रष्टता के सत्य को जानने में समर्थ हो जाते हैं। आज, परमेश्वर में हमारे विश्वास में हम यह जानते हैं कि हमें किसकी खोज करनी चाहिए, कि परमेश्वर प्यारा है, और कि हमें परमेश्वर को जानना चाहिए, परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए, और परमेश्वर का आज्ञापालन करना चाहिए। हमारे जीवन में हमारे उद्देश्य हैं, और हमें उद्धार की आशा है। ये पवित्र आत्मा के कार्य के प्रभाव हैं। आज, यदि तुमसे कहा जाता कि बताओ कि शैतान क्या है, तो क्या तुम बता पाते? शैतान का भ्रष्ट स्वभाव किन तरीकों से व्यक्त होता है? शैतान का स्वभाव दुष्ट, अंतर्घाती, पापी, कुरूप, नीच, समस्त बुराई के प्रति कृतज्ञ, और पूरी तरह से विषैला है। वह सब क्या है जो परमेश्वर का स्वरूप है? यह धार्मिकता, पवित्रता, आदर, सर्वशक्ति, बुद्धि, और करुणा और प्रेम है। जो भावना शैतान लोगों को देता है वह घृणित और अभिशप्त होती है। जो भावना परमेश्वर लोगों को देता है वह मिलनसार, प्यारी, और आदरणीय होती है।

      जीवन में प्रवेश के विषय में संगति एवं प्रवचन (II) में "पवित्र आत्मा के कार्य को जानना मनुष्य के उद्धार के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है" से

      मनुष्य में पवित्र आत्मा के कार्य का क्या प्रभाव होता है? यह मनुष्य को परमेश्वर के वचन, और सत्य को समझने की अनुमति देता है, और मनुष्य को परमेश्वर को जानने, और स्वयं को जानने देता है। सत्य का एक दोहरा प्रभाव होता है। एक तरीके से, सत्य को समझना लोगों को परमेश्वर के बारे में ज्ञान देता है, क्योंकि सत्य परमेश्वर के जीवन का सार है, यह वह है जो परमेश्वर का स्वरूप है, यह सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है, और यह परमेश्वर के स्वभाव और जीवन का प्रतिनिधित्व करता है—और इसलिए यह कहना पूरी तरह से सही है कि, सत्य को समझने के द्वारा, हमें परमेश्वर के बारे में कुछ समझ प्राप्त होती है। उसके साथ-साथ, सत्य हमारी भ्रष्टता को भी प्रकट करता है, और इसलिए वे सब जो सत्य को समझते हैं उन्हें अपने बारे में एक सच्चा ज्ञान होता है, और उन्होने स्पष्ट रूप से अपना असली चेहरा और शैतान का असली चेहरा देख लिया होता है। सत्य के द्वारा सब कुछ प्रकट कर दिया जाता है। पवित्र आत्मा के कार्य के द्वारा सत्य को समझने का क्या प्रभाव होता है? एक तरीके से, हम अपने भ्रष्ट सार को जान जाते हैं, हम देखते हैं कि मनुष्य निर्धन, दयनीय, अंधा, नंगा, भ्रष्ट, दुष्ट, स्वार्थी और नीच है, कि वह जरा सा भी असली मनुष्य की सदृशता में नहीं है, कि वह शैतान से भिन्न नहीं है, कि उसका स्वभाव और सार वैसे हैं जैसे शैतान के हैं। क्या यह सत्य को समझने का प्रभाव नहीं है? इस बारे में कुछ भी गलत नहीं है। इतना ही नहीं, इस संबंध में हम पवित्र आत्मा के कार्य के प्रभाव के बारे पूरी तरह से स्पष्ट हैं। पवित्र आत्मा के कार्य के और भी कई प्रभाव हैं। पवित्र आत्मा का कार्य लोगों को सच्चा विश्वास दे सकता हैः परमेश्वर के सम्मुख हमारी हर एक प्रार्थना हमें महसूस करवाती है कि परमेश्वर में हमारा विश्वास बढ़ गया है, और कि यह और भी सच्चा हैं। ...यह कहना थोड़ा सा भी ग़लत नहीं है कि पवित्र आत्मा के कार्य के कई पहलू हैं, और इसके प्रभावों के कई पहलू हैं। ...पवित्र आत्मा का कार्य हमें परमेश्वर के स्वभाव, परमेश्वर की सर्वशक्ति और बुद्धि, हमारे हृदय के बारे में उसके सूक्ष्म परीक्षण की गहराई का एक सच्चा ज्ञान देता है, और यह हमें परमेश्वर के अद्भुत कर्मों और अगाधता का एक ज्ञान देता है। इसलिए भी, यह हमें सभी चीजों पर परमेश्वर की सर्वशक्ति और उसके प्रभुत्व को जानने और देखने देता है।

      जीवन में प्रवेश के विषय में संगति एवं प्रवचन (II) में "पवित्र आत्मा के कार्य को जानना मनुष्य के उद्धार के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है" से

      जिन लोगों में दुष्ट आत्माएँ कार्य करती हैं वे जब लोगों से बात करते हैं और उन्हें बताते हैं कि क्या करना है तो वे विशेष रूप से कुख्यात और दबंग होते हैं। कुछ तो सामान्य मानवता के शिष्टाचार और नैतिकता का भी उल्लंघना करते हैं। उनके वचन और क्रियाएँ लोगों को सम्मोहित करते हैं और उनके साथ हस्तक्षेप करते हैं, उन वचनों और क्रियाओं की प्रकृति कुरूप और क्रूर होती है, और वे लोगों को भ्रष्ट करते हैं, लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं, और उनके लिए किसी लाभ के नहीं होते हैं। जैसे ही कोई दुष्ट आत्मा किसी में प्रकट होती है, वे भयभीत और चिन्तित महसूस करते हैं, और उनकी क्रियाओं की एक बड़ी अत्यावश्यकता होती है, मानो कि वे अधीरता से फूट रहे हों। इसका प्रकटन लोगों को विशेष रूप से अस्वाभाविक महसूस करवाता है, और दूसरों के लिए थोड़ा सा भी लाभ का नहीं होता है। दुष्ट आत्माओं के कार्य की प्राथमिक अभिव्यक्तियाँ: पहली है लोगों को ऐसा या वैसा करने का निर्देश देना, उन्हें चीजों को करने के लिए कहना, या उन्हें झूठी भविष्यवाणियाँ कहने के लिए निर्देश देना। दूसरी है तथाकथित "भाषाएँ" बोलना जिन्हें कोई नही समझता है; यहाँ तक कि बोलने वाले स्वयं भी नहीं समझ सकते हैं कि वे क्या कह रहे हैं, और कुछ इसका "अनुवाद" करने में समर्थ होते हैं। तीसरी है जब लोग हमेशा प्रकाशन प्राप्त करते हैं, जो विशेष आवृत्ति के साथ होता है। एक क्षण तो उन्हें एक चीज करने के लिए निर्देश दिया जाएगा, दूसरे ही क्षण उन्हें कुछ और करने के लिए कहा जाएगा, और वे लगातार घबराहट में रहते हैं। चौथी: जिन लोगों में दुष्ट आत्माएँ कार्य कर रही होती है वे ऐसा या वैसा करने के लिए व्यग्र होते हैं, और प्रतीक्षा करना सहन नहीं कर सकते हैं—इस बात की परवाह किए बिना कि उनके माहौल में इसकी अनुमति है या नहीं। यहाँ तक कि वे गहन रात्रि में भी बाहर चले जाते हैं; उनका आचरण बहुत असामान्य होता है। पाँचवीं: जिन लोगों में दुष्ट आत्मा कार्य कर रही होती है वे खासकर अहंकारी और दंभी होते हैं, वे जो कुछ भी करते हैं वह दूसरों को नीचा दिखाने वाला और दंभपूर्ण होता है, वे कोई भी सत्य बोलने में अक्षम होते हैं, यह लोगों को किंकर्तव्यविमूढ़ छोड़ देती है, और लोगों को एक राक्षस के समान समस्या में विवश कर देती है। छठी: जिन लोगों में दुष्ट आत्मा कार्य कर रही होती है उन्हें ऊपर की व्यवस्थाओं के बारे में थोड़ी सी भी समझ नहीं होती है, कार्य के सिद्धांतों की तो उन्हें बिल्कुल भी नहीं समझ नहीं होती है; वे परमेश्वर की हँसी उड़ाते हैं, वे लोगों को धोखा देने की कोशिश करते हैं, और उनके दुराचार कलीसिया की सामान्य व्यवस्था को अस्तव्यस्त कर देते हैं। सातवीं: जिन लोगों में दुष्ट आत्मा कार्य कर रही होती है वे अक्सर बिना किसी कारण के किसी विशेष आकृति का रूप धारण कर लेते हैं, या अन्यथा, लोगों को अपने वचनों को सुनवाने के लिए, किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा भेजे गए होते हैं, और कोई भी नहीं जान सकता कि वे यहाँ तक कैसे पहुँचे। आठवीं: जिन लोगों में दुष्ट आत्मा कार्य कर रही होती है वे अक्सर अविवेकी होते हैं, और सत्य को नहीं समझते हैं; साधारणतया, उनमें समझ के लिए योग्यताओं की कमी होती है, और वे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता से रहित होते हैं। लोगों को पता लगता है कि वे जो समझते हैं विशेष रूप से अनर्गल, और पूरी तरह से गलत होता है। नौवीं: जिन लोगों में दुष्ट आत्मा कार्य कर रही होती है वे बहुत आडंबरपूर्ण और अविवेकी होते हैं, वे कभी भी परमेश्वर को ऊँचा नहीं उठाते हैं या परमेश्वर के लिए गवाही नहीं देते हैं, किसी भी सत्य को बोलने में अक्षम होते हैं, और वे जो कुछ भी करते और कहते हैं वह लोगों पर तब तक आक्रमण करता है, उन्हें जकड़ता है, और उन्हें सीमित करता है, जब तक कि उनके हृदय चूर-चूर नहीं हो जाते हैं, और वे नकारात्मकता में हरा नहीं दिए जाते हैं और अपने आप को उठाने के अयोग्य नहीं हो जाते हैं, जब वे गुप्त रूप से खुश होते हैं—जो कि दुष्ट आत्माओं के कार्य का मुख्य लक्ष्य है। दसवीं: जो लोग दुष्ट आत्माओं के द्वारा ग्रस्त होते हैं—उनके जीवन पूरी तरह से पथभ्रष्ट होते हैं, उनकी चमक भीषण होती है, और उनके वचन विशेष रूप से भावशून्य होते हैं, मानो कि वे एक राक्षस हो जिसने संसार में प्रवेश कर लिया है। उनके दैनिक जीवन में कोई भी अनुशासन नहीं होता है, वे अत्यधिक अस्थिर होते हैं, वे एक बेलगाम, जंगली जानवर के समान अपूर्वानुमेय होते हैं, और लोग उन्हें अत्यधिक आपत्तिजनक पाते हैं। दुष्टात्माओं के द्वारा जकड़े गए लोगों की अभिव्यक्तियाँ ऐसी ही होती हैं। जो लोग दुष्ट आत्माओं से ग्रस्त होते हैं वे अक्सर उन लोगों के प्रति विशेष रूप से घृणास्पद और पृथक रहते हैं जिन में पवित्र आत्मा कार्य करता है और जो सत्य बोलने में समर्थ होते हैं। ऐसा अक्सर होता कि जितना बेहतर लोग होते हैं, उतना अधिक वे उन पर आक्रमण करते हैं और उनकी निंदा करते हैं, जबकि लोग जितना अधिक अव्यवस्थित और भ्रमित होते हैं, उतना ही अधिक वे फुसलाते और चापलूसी करते हैं, और विशेष रूप से उनके साथ संलग्न होने के इच्छुक होते हैं। दुष्ट आत्माओं का कार्य काले को सफेद में मरोड़ देता है, और सकारात्मक को नकारात्मक और नकारात्मक को सकारात्मक बनाता है। दुष्ट आत्माओं के कार्य ऐसे ही होते हैं।

      "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "दुष्ट आत्माओं के कार्य के मुख्य प्रकटीकरण" से

      कोई भी आत्मा जिस का कार्य प्रकट रूप से अलौकिक है वह एक दुष्ट आत्मा है, और किसी भी आत्मा के कार्य और कथन जो लोगों में अलौकिक कार्य करती है एक दुष्ट आत्मा का कार्य है; सभी साधन जिनके द्वारा दुष्ट आत्माएँ कार्य करती हैं असामान्य और अलौकिक होते हैं, और मुख्य रूप से निम्नलिखित छह तरीकों से व्यक्त होते हैं:

1. लोगों की बोली पर सीधा नियंत्रण, जो स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि दुष्ट आत्मा बात कर रही है, न कि लोग स्वयं सामान्य रूप से बोल रहे हैं;

2. यह भावना कि दुष्ट आत्मा लोगों को निर्देश दे रही है और उन्हें यह और वह करने का आदेश दे रही है;

3. लोग जो, जब वे किसी कमरे में होते हैं, बता सकते हैं कि कब कोई व्यक्ति अंदर आने ही वाला है;

4. लोग जो प्रायः उनसे बात करती हुई आवाजे सुनते हैं जिसे दूसरे सुनने में नहीं सुन सकते हैं;

5. लोग जो ऐसी चीजों को देखने और सुनने में समर्थ हैं जो कि दूसरे नहीं देख और सुन सकते हैं;

6. लोग जो हमेशा उत्तेजित रहते हैं, और अपने-आप से बात करते रहते हैं, और लोगों के साथ सामान्य वार्तालाप या बातचीत करने में असमर्थ होते हैं।

      जिन सभी में दुष्ट आत्मा कार्य कर रही होती है उनमें अनिवार्य रूप से ये छह अभिव्यक्तियाँ पायी जाती हैं। वे अविवेकी होते हैं, असमंजस में रहते हैं, लोगों के साथ सामान्य बातचीत करने में अक्षम होते हैं, ऐसा लगता है मानो कि वे तर्क के प्रति उत्तरदायी नहीं होते हैं, और उनके बारे में कुछ अनासक्त और पारलौकिक होता है। ऐसे लोग दुष्ट आत्मा के द्वारा ग्रस्त होते हैं या उनमें दुष्ट आत्मा कार्य कर रही होती है, दुष्ट आत्माओं का समस्त कार्य प्रत्यक्ष और अलौकिक होता है। दुष्ट आत्माओं का यह सबसे अधिक आसानी से पहचाना जाने वाला कार्य होता है। जब कोई दुष्ट आत्मा किसी पर कब्जा करती है, तो यह उनके साथ खेलती है ताकि वे पूरी तरह से गड़बड़ हो जाएँ। वे, एक प्रेत के जैसे, अविवेकी बन जाते हैं, जो साबित करता है कि सार रूप में, दुष्ट आत्माएँ बुरी आत्माएँ होती हैं जो लोगों को भ्रष्ट करती है और निगल जाती हैं। दुष्ट आत्माओं के कथनों तो पहचानना आसान है: उनके कथन पूरी तरह से उनके बुरे सार का प्रतीक हैं, वे निष्क्रिय, गंदे और बदबूदार होते हैं, उनसे मृत्यु की दुर्गन्ध टपकती है। उन लोगों के लिए जो अच्छी योग्यता के होते हैं, दुष्ट आत्माओं के वचन खोखले और अरुचिकर, अशोभनीय होते हैं, बस केवल झूठ और खोखली बातें होते हैं, वे निरर्थक वचनो के ढेर के समान अव्यवस्थित और पेचीदा महसूस होते हैं। यह दुष्ट आत्माओं के अनापशनाप में से कुछ सबसे अधिक पहचानने लायक होता है। लोगों को भरमाने के लिए, कुछ अधिक "ऊँचे स्तर" की दुष्ट आत्माएँ जब बोलती हैं तो परमेश्वर या मसीह होने का दिखावा करती हैं, जबकि दूसरी स्वर्गदूत या प्रसिद्ध व्यक्ति होने का दिखावा करती हैं। जब वे बोलती हैं, तो ये दुष्ट आत्माएँ परमेश्वर के कई वचनों और वाक्यांशों की या परमेश्वर की आवाज की नकल करने में निपुण होती हैं, और जो लोग सत्य को नहीं समझते हैं वे आसानी से "ऊँचे स्तर" की दुष्ट आत्माओं के झाँसे में आ जाते हैं। परमेश्वर के चुने लोगों को स्पष्ट होना चाहिए कि, सार रूप में, दुष्ट आत्माएँ बुरी और बेशर्म होती हैं, और कि भले ही वे "ऊँचे स्तर" की दुष्ट आत्माएँ हों, वे सत्य से सर्वथा विहीन होती हैं। दुष्ट आत्माएँ, आखिरकार, दुष्ट आत्माएँ ही होती हैं, दुष्ट आत्माओं का सार बुरा होता है, और वे एक तरह से शैतान के साथ जैसा होता हैं।

      कलीसिया के कार्य की सहभागिता और प्रबन्धों के वार्षिक वृतांत (II) में "दुष्ट आत्माओं की निर्थकता और भ्रमों, झूठे मसीहों, और मसीह विरोधियों को कैसे पहचानें" से

      दुष्ट आत्माएँ जो कुछ भी करती हैं बहुत ही अलौकिक होता है, ये लोगों को प्रत्यक्ष रूप से ऐसा या वैसा करने का निर्देश देती हैं, ये उन्हें प्रत्यक्ष रूप से आदेश देती हैं, प्रत्यक्ष रूप से उन्हें चीजों को करने के लिए विवश करती हैं—यह दुष्ट आत्माओं के कार्य की अभिव्यक्ति है। पवित्र आत्मा के कार्य ने लोगों को कभी भी ऐसा या वैसा करने के लिए विवश नहीं किया है, इसने आसपास लोगों को कभी भी आदेश नहीं दिया है, यह कभी भी अलौकिक नहीं रहा है, इसने चीजों को करने हेतु लोगों को निर्देश देने के लिए कभी भी अलौकिक साधनों का उपयोग नहीं किया है, यह हमेशा लोगों में गहरा छुपा रहता है, और सत्य और परमेश्वर के वचनों के समझाने के लिए उनके अंत: करण के माध्यम से स्पर्श करता है, जिसके बाद यह सत्य को अभ्यास में लाने के लिए अंत: करण का उपयोग करता है। यही वह साधन है जिसके द्वारा पवित्र आत्मा कार्य करता है। पवित्र आत्मा ने लोगों को कभी भी विवश या बाध्य नहीं किया है, उसने कभी भी कुछ भी अलौकिक या प्रत्यक्ष नहीं किया है, और वह लोगों को प्रकट रूप से निर्देश नहीं देता है। हम इससे क्या जानते हैं? हम जानते हैं कि पवित्र आत्मा का कार्य विनम्र और छुपा हुआ होता है, यह विशेष रूप से छुपा हुआ होता है, और इसका कुछ भी प्रकट नहीं होता है। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और सभी चीजों पर प्रभुत्व रखता है, किन्तु पवित्र आत्मा मनुष्य को प्रत्यक्ष रूप से नहीं कहता है कि, "अरे, तुम्हें ऐसा या वैसा करना चाहिए।" पवित्र आत्मा ने कभी भी इस तरीके से कार्य नहीं किया है; वह तुम्हें स्पर्श करता है, प्रेम का उपयोग करते हुए तुम्हें स्पर्श करता है, और वह बहुत कोमल है, इतना कोमल कि तुम्हें महसूस भी नहीं होता कि कोई तुम्हें स्पर्श कर रहा है—किन्तु अपने हृदय की गहराईयों में तुम महसूस करते हो कि तुम्हें किसी विशेष ढंग से कार्य करना चाहिए है, और कि ऐसा करना सही है और उचित है। देखो परमेश्वर कितना ही प्यारा है! फिर उन लोगों की कुरूपता और दयनीय रूप को देखो जो दुष्ट आत्माओं के द्वारा ग्रस्त हैं, देखो कि कैसे, जैसे ही वे लोगों से मिलते हैं, वे कहते हैं, "आज आत्मा ने मुझे यह कहने का निर्देश दिया है, इसने मुझे वह करने के लिए कहा, इसने मुझसे ऐसा का ऐसा ही करवाया है," देखो वे सुसमाचार प्रचार करने, या प्रार्थना करने, या यह कहने के लिए कैसे कभी-कभी घोर रात में जाग जाते हैं कि वे कैसे स्पर्श किए गए हैं और उन्हें अपना कर्तव्य अवश्य पूरा करना है। देखो कि कैसे, जैसे ही लोग दुष्ट आत्मा के द्वारा जकड़े जाते हैं, यह उन्हें भयानक पीड़ा देती है, और उन्हें हड़बड़ी में डाल देती हैं, देखो कि कैसे उन्हें यह भी नहीं पता होता है कि कब खाना है या चीजों को करना है, कैसे उनका जीवन उलटा हो जाता है। जब दुष्ट आत्माएँ लोगों में कार्य करती हैं, तो वे उन्हें आगे-पीछे खींचती हैं, उन्हें थका हुआ और निढाल बना देती हैं। अंततः, उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता है: उनके जीवन स्वभाव में कोई भी बदलाव नहीं होता है, वे अभी भी उतने ही भ्रष्ट होते हैं जितने वे हुआ करते थे, वे जो पहले अहंकारी और दंभी हुआ करते थे अब भी अहंकारी और दंभी होते हैं, और वे जो पहले कपटी और साँठगाँठ करने वाले हुआ करते थे अब भी कपटी और साँठगाँठ करने वाले ही रहते हैं। दुष्ट आत्माओं का कार्य लोगों को भ्रष्ट करता है, और उन्हें मानसिक रूप से अपसामान्य बना देता है। दुष्ट आत्माओं की कार्य-प्रणाली से, हम देखते हैं कि वे केवल कितनी नीच, बुरी, अधम, और बुद्धिहीन होती हैं। वे लोगों को सताने और भ्रष्ट करने के अलावा और कुछ नही करती हैं, और इस वजह से वे लोगों के द्वारा घृणा और अभिशप्त की जाती हैं, जो कहते हैं कि वे नीच हैं। इस प्रकार, दुष्ट आत्माओं का कार्य शैतान का प्रतिनिधित्व करता है—इसमें कुछ भी त्रुटि नहीं है। जिस किसी ने उन लोगों को देखा है जिनमें दुष्ट आत्माएँ कार्य करती हैं, या जो किसी दुष्टात्मा के द्वारा ग्रस्त हैं, वे जानते हैं कि दुष्ट आत्माएँ कितनी घृणास्पद, अधम, दुष्ट, और भ्रष्ट होती हैं। क्या तुम लोग इसे देखते हो? तुम लोग इसमें से कुछ देखते हो, हाँ? क्या तुम लोगों ने देखा है कि दुष्ट आत्माएँ सत्य को धारण करती हैं? क्या दुष्ट आत्माओं को मनुष्य के लिए कोई प्रेम होता है? दुष्ट आत्माओं के कार्य से, यह देखा जा सकता है कि उनमें थोड़ा सा भी सत्य नहीं होता है, और कि उनकी प्रकृति वास्तव में बुरी होती है। यह देख कर कि दुष्ट आत्माएँ लोगों को कैसे भ्रष्ट करती हैं, तुमने देखा है कि कैसे शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है—यह पूरी तरह से सही है। क्योंकि सभी दुष्ट आत्माएँ शैतान के साथ मिलीभगत में होती हैं, क्योंकि वे सब शैतान का अनुसरण करती हैं, और शैतान की सहभागी, मित्र, और सहयोगी हैं, इसलिए वे अति प्राचीन समय से ही शैतान के साथ हैं। परमेश्वर का विद्रोह करने में शैतान ने इन सब दुष्ट आत्माओं की अगुवाई की और इसे पृथ्वी पर गिरा दिया गया था। क्या कोई दुष्ट आत्मा—कोई दुष्ट आत्मा जो सत्य से रहित है और स्वभाववश पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति विद्रोहशील है—किसी व्यक्ति में कोई भी सत्य ला सकती है जब यह उन्हें ग्रस्त करती है? क्या यह उनके स्वभाव में बदलाव ला सकती है? बिल्कुल नहीं।

      जीवन में प्रवेश के विषय में संगति एवं प्रवचन (II) में "पवित्र आत्मा के कार्य को जानना मनुष्य के उद्धार के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है" से


रोत


शुक्रवार, 3 मई 2019

तुम्हें परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में कैसे विभेद करना चाहिए?

अध्याय 6 विभेदन के कई रूप जिन्हें परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में तुम्हें धारण करना चाहिए

1.तुम्हें परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में कैसे विभेद करना चाहिए?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

      अनुग्रह के युग में, यीशु ने भी काफ़ी बातचीत की और काफ़ी कार्य किया। वह यशायाह से किस प्रकार भिन्न था? वह दानिय्येल से किस प्रकार भिन्न था? क्या वह कोई भविष्यद्वक्ता था? ऐसा क्यों कहा जाता है कि वह मसीहा है? उनके मध्य क्या भिन्न्ताएँ हैं? वे सभी मनुष्य थे जिन्होंने वचन बोले थे, और मनुष्य को उनके वचन लगभग एक से प्रतीत होते थे। उन सभी ने बातें की और कार्य किए। पुराने विधान के भविष्यवद्क्ताओं ने भविष्यवाणियाँ की, और उसी तरह से, यीशु भी वैसा ही कर सका। ऐसा क्यों है? यहाँ कार्य की प्रकृति के आधार पर भिन्नता है। इस मामले को समझने के लिए, तुम देह की प्रकृति पर विचार नहीं कर सकते हो और तुम्हें किसी व्यक्ति के वचनों की गहराई या सतहीपन पर विचार नहीं करना चाहिए। तुम्हें अवश्य हमेशा सबसे पहले उसके कार्य पर और उन प्रभावों पर विचार करना चाहिए जिसे उसका कार्य मनुष्य में प्राप्त करता है। उस समय यशायाह के द्वारा कही गई भविष्यवाणियों ने मनुष्य का जीवन प्रदान नहीं किया, और दानिय्येल जैसे लोगों द्वारा प्राप्त किए गए संदेश मात्र भविष्यवाणियाँ थीं न कि जीवन का मार्ग थीं। यदि यहोवा की ओर से प्रत्यक्ष प्रकाशन नहीं होता, तो कोई भी इस कार्य को नहीं कर सकता था, क्योंकि यह नश्वरों के लिए सम्भव नहीं है। यीशु, ने भी, बहुत बातें की, परन्तु वे वचन जीवन का मार्ग थे जिसमें से मनुष्य अभ्यास का मार्ग प्राप्त कर सकता था। कहने का अर्थ है, कि सबसे पहले, वह लोगों में जीवन प्रदान कर सकता था, क्योंकि यीशु जीवन है; दूसरा, वह मनुष्यों के विचलनों को पलट सकता था; तीसरा, युग को आगे बढ़ाने के लिए उसका कार्य यहोवा के कार्य का उत्तरवर्ती हो सकता था; चौथा, वह मनुष्य के भीतर की आवश्यकता को समझ सकता था और समझ सकता था कि मनुष्य में किस चीज का अभाव है; पाँचवाँ, वह नए युग का सूत्रपात कर सकता था और पुराने का समापन कर सकता था। यही कारण है कि उसे परमेश्वर और मसीहा कहा जाता है; वह न सिर्फ़ यशायाह से भिन्न है परन्तु अन्य भविष्यवद्क्ताओं से भी भिन्न है। भविष्यवद्क्ताओं के कार्य के लिए तुलना के रूप में यशायाह को लें। सबसे पहले, वह मानव का जीवन प्रदान नहीं कर सकता था; दूसरा, वह नए युग का सूत्रपात नहीं कर सकता था। वह यहोवा की अगुआई के अधीन और न कि नए युग का सूत्रपात करने के लिए कार्य कर रहा था। तीसरा, उसने जिसके बारे में स्वयं बोला वह उसकी ही समझ से परे था। वह परमेश्वर के आत्मा से प्रत्यक्षतः प्रकाशनों को प्राप्त कर रहा था, और दूसरे उन्हें सुन कर भी, उसे नहीं समझे होंगे। ये कुछ ही बातें अकेले यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि उसके वचन भविष्यवाणियों की अपेक्षा अधिक नहीं थे, यहोवा के बदले किए गए कार्य के एक पहलू की अपेक्षा अधिक नहीं थे। हालाँकि, वह यहोवा का प्रतिनिधित्व पूरी तरह से नहीं कर सकता था। वह यहोवा का नौकर था, यहोवा के काम में एक उपकरण था। वह केवल व्यवस्था के युग के भीतर और यहोवा के कार्य के क्षेत्र के भीतर ही कार्य कर रहा था; उसने व्यवस्था के युग से परे कार्य नहीं किया। इसके विपरीत, यीशु का कार्य भिन्न था। उसने यहोवा के कार्य क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य किया; उसने देहधारी परमेश्वर के रूप में कार्य किया और सम्पूर्ण मानवजाति का उद्धार करने के लिए सलीब पर चढ़ गया। अर्थात्, उसने यहोवा के द्वारा किए गए कार्य से परे नया कार्य किया। यह नए युग का सूत्रपात करना था। दूसरी स्थिति यह है कि वह उस बारे में बोलने में समर्थ था जिसे मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता था। उसका कार्य परमेश्वर के प्रबंधन के भीतर कार्य था और सम्पूर्ण मानवजाति को समाविष्ट करता था। उसने मात्र कुछ ही मनुष्यों में कार्य नहीं किया, न ही उसका कार्य कुछ सीमित संख्या के लोगों की अगुआई करना था। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि कैसे परमेश्वर मनुष्य बनने के लिए देहधारी हुआ था, कैसे उस समय पवित्र आत्मा ने प्रकाशनों को दिया, और कैसे पवित्रात्मा ने कार्य करने के लिए मनुष्य पर अवरोहण किया, ये ऐसी बातें हो जिन्हें मनुष्य देख नहीं सकता है या स्पर्श नहीं कर सकता है। इन सत्यों के लिए इस बात के साक्ष्य के रूप में कार्य करना सर्वथा असंभव है कि वही देहधारी परमेश्वर है। वैसे तो, परमेश्वर के केवल उन वचनों और कार्य पर ही अंतर किया जा सकता है, जो मनुष्य के लिए स्पर्शगोचर हो। केवल यही वास्तविक है। यह इसलिए है क्योंकि पवित्र आत्मा के मामले तुम्हारे लिए दृष्टिगोचर नहीं हैं और केवल परमेश्वर स्वयं को ही स्पष्ट रूप से ज्ञात हैं, और यहाँ तक कि परमेश्वर का देहधारी देह भी सब बातों को नहीं जानता है; तुम सिर्फ़ उसके द्वारा किए गए कार्य से इस बात की पुष्टि कर सकते हो कि वह परमेश्वर है[क]। उसके कार्यों से, यह देखा जा सकता है, सबसे पहले, वह एक नए युग का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ है; दूसरा, वह मनुष्य का जीवन प्रदान करने और अनुसरण करने का मार्ग मनुष्य को दिखाने में समर्थ है। यह इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि वह परमेश्वर स्वयं है। कम से कम, जो कार्य वह करता है वह पूरी तरह से परमेश्वर का आत्मा का प्रतिनिधित्व कर सकता है, और ऐसे कार्य से यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर का आत्मा उस के भीतर है। चूँकि देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य मुख्य रूप से नए युग का सूत्रपात करना, नए कार्य की अगुआई करना और नई परिस्थितियों को पैदा करना था, इसलिए ये कुछ स्थितियाँ अकेले ही यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि वह परमेश्वर स्वयं है। इस प्रकार यह उसे यशायाह, दानिय्येल और अन्य महान भविष्यद्वक्ताओं से भिन्नता प्रदान करता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर" से

      देहधारी परमेश्वर का कार्य एक नये विशेष युग (काल) को प्रारम्भ करता है, और ऐसे लोग जो उसके कार्य को निरन्तर जारी रखते हैं वे ऐसे मनुष्य हैं जिन्हें उसके द्वारा उपयोग किया जाता है। मनुष्य के द्वारा किया गया समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर की सेवकाई के अन्तर्गत होता है, और इस दायरे के परे जाने में असमर्थ होता है। यदि देहधारी परमेश्वर अपने कार्य को करने के लिए नहीं आता, तो मनुष्य पुराने युग को समापन की ओर लाने में समर्थ नहीं होता, और नए विशेष युग की शुरुआत करने के समर्थ नहीं होता। मनुष्य के द्वारा किया गया कार्य महज उसके कर्तव्य के दायरे के भीतर होता है जो मानवीय रूप से संभव है, और परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। केवल देहधारी परमेश्वर ही आ सकता है और उस कार्य को पूरा कर सकता है जो उसे करना चाहिए, और उसके अलावा, कोई भी उसके स्थान पर इस कार्य को नहीं कर सकता है। निश्चित रूप से, जो कुछ मैं कहता हूँ वह देधारण के कार्य के सम्बन्ध में है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से

      कुछ लोग आश्चर्य कर सकते हैं, युग का सूत्रपात स्वयं परमेश्वर के द्वारा क्यों किया जाना चाहिए? क्या उसके स्थान पर कोई सृजित प्राणी नहीं खड़ा हो सकता है? तुम लोग अच्छी तरह से अवगत हो कि एक नए युग का सूत्रपात करने के उद्देश्य से स्पष्ट रूप से परमेश्वर देह बनता है, और, वास्तव में, जब वह नए युग का सूत्रपात करता है, तो वह उसके साथ-साथ ही पूर्व युग का समापन करता है। परमेश्वर आदि और अंत है; यही वह स्वयं है जो अपने कार्य को चलाता है और इसलिए यह अवश्य वह स्वयं होना चाहिए जो पहले के युग का समापन करता है। यही वह प्रमाण है कि वह शैतान को पराजित करता है और संसार को जीत लेता है। प्रत्येक बार जब वह स्वयं मनुष्य के बीच कार्य करता है, तो यह एक नए युद्ध की शुरुआत होती है। नए कार्य की शुरुआत के बिना, प्राकृतिक रूप से पुराने का कोई समापन नहीं होगा। और पुराने का समापन न होना इस बात का प्रमाण है कि शैतान के साथ युद्ध अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। यदि स्वयं परमेश्वर मनुष्यों के बीच में आता है और एक नया कार्य करता है केवल तभी मनुष्य शैतान के अधिकार क्षेत्र को तोड़कर पूरी तरह से स्वतन्त्र हो सकता है और एक नया जीवन एवं नई शुरुआत प्राप्त कर सकता है। अन्यथा, मनुष्य सदैव ही पुराने युग में जीएगा और हमेशा शैतान के पुराने प्रभाव के अधीन रहेगा। परमेश्वर के द्वारा अगुवाई किए गए प्रत्येक युग के साथ, मनुष्य के एक भाग को स्वतन्त्र किया जाता है, और इस प्रकार परमेश्वर के कार्य के साथ-साथ मनुष्य एक नए युग की ओर आगे बढ़ता है। परमेश्वर की विजय उन सबकी विजय है जो उसका अनुसरण करते हैं। यदि सृष्टि की मानवजाति को युग के समापन का कार्यभार दिया जाता, तब चाहे यह मनुष्य के दृष्टिकोण से हो या शैतान के, यह एक ऐसे कार्य से बढ़कर नहीं है जो परमेश्वर का विरोध या परमेश्वर के साथ विश्वासघात करता है, न कि परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का एक कार्य है, और इस प्रकार मनुष्य का कार्य शैतान को अवसर देगा। मनुष्य केवल परमेश्वर के द्वारा सूत्रपात किए गए एक युग में परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन और अनुसरण करता है केवल तभी शैतान पूरी तरह से आश्वस्त होगा, क्योंकि यह सृजित प्राणी का कर्तव्य है। और इसलिए मैं कहता हूँ कि तुम लोगों को केवल अनुसरण और आज्ञापालन कंरने की आवश्यकता है, और इससे अधिक तुम लोगों से नहीं कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा अपने कर्तव्य का पालन करने और अपने कार्य को क्रियान्वित करने का अर्थ यही है। परमेश्वर स्वयं अपना काम करता है और उसे मनुष्य की कोई आवश्यकता नहीं है कि उसके स्थान पर काम करे, और न ही वह सृजित प्राणियों के काम में अपने आपको शामिल करता है। मनुष्य अपना स्वयं का कर्तव्य करता है और परमेश्वर के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है, और यही सच्ची आज्ञाकारिता है और सबूत है कि शैतान पराजित है। जब परमेश्वर स्वयं ने नए युग का आरम्भ कर दिया उसके पश्चात्, वह मानवों के बीच अब और कार्य नहीं करता है। यह तभी है कि एक सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य अपने कर्तव्य को करने और अपने ध्येय को सम्पन्न करने के लिए आधिकारिक रूप से नए युग में कदम रखता है। कार्य करने के सिद्धान्त ऐसे ही हैं जिनका उल्लंघन किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता है। केवल इस तरह से कार्य करना ही विवेकपूर्ण और तर्कसंगत है। परमेश्वर का कार्य परमेश्वर स्वयं के द्वारा किया जाता है। यह वही है जो अपने कार्य को चलाता है, और साथ ही वही उसका समापन करता है। यह वही है जो कार्य की योजना बनाता है, और साथ ही वही है जो उसका प्रबंधन करता है, और उससे भी बढ़कर, यह वही है जो उस कार्य को सफल करता है। यह ऐसा ही है जैसा बाइबल में कहा गया है "मैं ही आदि और अंत हूँ; मैं ही बोनेवाला और काटनेवाला हूँ।" सब कुछ जो उसके प्रबंधन के कार्य से संबंधित है स्वयं उसी के द्वारा किया जाता है। वह छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना का शासक है; कोई भी उसके स्थान पर उसका काम नहीं कर सकता है या उसके कार्य का समापन नहीं कर सकता है, क्योंकि यह वही है जो सबको नियन्त्रण में रखता है। चूँकि उसने संसार का सृजन किया है, वह संपूर्ण संसार की अगुवाई करेगा ताकि सब उसके प्रकाश में जीवन जीएँ, और वह अपनी सम्पूर्ण योजना को सफल करने के लिए संपूर्ण युग का समापन करेगा!

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (1)" से

      कई प्रकार के लोगों और अनेक विभिन्न परिस्थितियों के माध्यम से पवित्र आत्मा के कार्य को सम्पन्न एवं पूरा किया जाता है। हालाँकि देहधारी परमेश्वर का कार्य एक समूचे युग के कार्य का प्रतिनिधित्व कर सकता है, और एक समूचे युग में लोगों के प्रवेश का प्रतिनिधित्व कर सकता है, फिर भी मनुष्यों के विस्तृत प्रवेश के कार्य को अभी भी पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों के द्वारा किए जाने की आवश्यकता है और इसे देहधारी परमेश्वर के द्वारा किए जाने की आवश्यकता नहीं है। अतः, परमेश्वर का कार्य, या परमेश्वर के स्वयं की सेवकाई, परमेश्वर के देहधारी शरीर का कार्य है और इसे उसके स्थान पर मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। पवित्र आत्मा के कार्य को विभिन्न प्रकार के मनुष्यों के द्वारा पूरा किया गया है और इसे केवल एक ही व्यक्ति विशेष के द्वारा पूर्ण नहीं किया जा सकता है या एक ही व्यक्ति विशेष के द्वारा पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। ऐसे लोग जो कलीसियाओं की अगुवाई करते हैं वे भी पूरी तरह से पवित्र आत्मा के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं; वे सिर्फ अगुवाई का कुछ कार्य ही कर सकते हैं। इस रीति से, पवित्र आत्मा के कार्य को तीन भागों में बांटा जा सकता हैः परमेश्वर का स्वयं का कार्य, उपयोग में लाए गए मनुष्यों का कार्य, और उन सभी लोगों पर किया गया कार्य जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में हैं। इन तीनों में, परमेश्वर का स्वयं का कार्य सम्पूर्ण युग की अगुवाई करने के लिए है; जिन्हें उपयोग किया जाता है उन मनुष्यों का काम परमेश्वर के स्वयं के कार्य के पश्चात् भेजे जाने या महान आदेशों को प्राप्त करने के द्वारा सभी अनुयायियों की अगुवाई करने के लिए है, और ये मनुष्य ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करते हैं; वह कार्य जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा उन लोगों पर किया जाता है जो इस मुख्य धारा में हैं वह उसके स्वयं के कार्य को बनाए रखने के लिए है, अर्थात्, सम्पूर्ण प्रबंधन को बनाए रखने के लिए है और अपनी गवाही को बनाए रखने के लिए है, जबकि ठीक उसी समय उन लोगों को सिद्ध किया जाता है जिन्हें सिद्ध किया जा सकता है। ये तीनों भाग पवित्र आत्मा के सम्पूर्ण कार्य हैं, किन्तु स्वयं परमेश्वर के कार्य के बिना, सम्पूर्ण प्रबंधकीय कार्य रूक जाएगा। स्वयं परमेश्वर के कार्य में सम्पूर्ण मानवजाति का कार्य सम्मिलित है, और यह सम्पूर्ण युग के कार्य का भी प्रतिनिधित्व करता है। कहने का तात्पर्य है, परमेश्वर का स्वयं का कार्य पवित्र आत्मा के सभी कार्य की गति एवं प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि प्रेरितों का कार्य परमेश्वर के स्वयं के कार्य का अनुसरण करता है और युग की अगुवाई नहीं करता है, न ही यह सम्पूर्ण युग में पवित्र आत्मा के कार्य करने की प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है। वे केवल वही कार्य करते हैं जिसे मनुष्य को अवश्य करना चाहिए, जो प्रबंधकीय कार्य को बिलकुल भी शामिल नहीं करता है। परमेश्वर का स्वयं का कार्य प्रबंधकीय कार्य के भीतर एक परियोजना है। मनुष्य का कार्य केवल उन मनुष्यों का कर्तव्य है जिन्हें उपयोग किया जाता है और इसका प्रबंधकीय कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। कार्य के विभिन्न पहचान एवं विभिन्न प्रतिनिधित्व के कारण, तथा इस तथ्य के बावजूद कि वे दोनों ही पवित्र आत्मा के कार्य हैं, परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के काम के मध्य स्पष्ट एवं ठोस अन्तर हैं। इसके अतिरिक्त, विभिन्न पहचानों के साथ पवित्र आत्मा के द्वारा कार्य के विषयों पर किए गए कार्य का विस्तार भिन्न होता है। ये पवित्र आत्मा के कार्य के सिद्धान्त एवं दायरे हैं।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से

      परमेश्वर के द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले व्यक्ति के द्वारा किए जाने वाले कार्य का इस्तेमाल परमेश्वर, मसीह और पवित्र आत्मा के कार्य के साथ सहयोग करने के लिए करता है। यह मनुष्य परमेश्वर के द्वारा मनुष्य के बीच में खड़ा किया गया है, वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों का नेतृत्व करने के लिए है, और परमेश्वर ने उसे मानवीय सहयोग का कार्य करने के लिए भी खड़ा किया है। इस तरह का व्यक्ति, जो मानवीय सहयोग का कार्य करने में सक्षम है, मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं और जो कार्य पवित्र आत्मा के द्वारा किया जाना चाहिए, वह उसके माध्यम से पूरा किया जाता है। इसे दूसरे शब्दों में कहने का तरीका यह है: इस मनुष्य को इस्तेमाल करने में परमेश्वर का उद्देश्य यह है कि वे सब जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं परमेश्वर की इच्छा को और अच्छी तरह समझ सकें, और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर सकें। क्योंकि लोग परमेश्वर के वचन को या परमेश्वर की इच्छा को स्वयं समझने में असमर्थ हैं, इसलिए परमेश्वर ने किसी एक को खड़ा किया है जो इस तरह का कार्य करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह व्यक्ति जो परमेश्वर के द्वारा इस्तेमाल किया गया है, इसकी व्याख्या एक माध्यम के रूप में की जा सकती है जिसके द्वारा परमेश्वर लोगों का मार्गदर्शन करता है, जैसे "अनुवादक" जो परमेश्वर और लोगों के बीच में संप्रेषण बनाए रखता है। इस प्रकार, यह व्यक्ति उनकी तरह नहीं है जो परमेश्वर के घराने में काम करते हैं या जो उसके प्रेरित हैं। यह कहा जा सकता है कि वह उनकी तरह परमेश्वर की सेवा करता है, फिर भी परमेश्वर के द्वारा उसकी पृष्ठभूमि के उपयोग में और उसके कार्य के विषय में वह दूसरे कार्यकर्ताओं और प्रेरितों से बिलकुल अलग है। जो व्यक्ति उसके कार्य और उसकी पृष्ठभूमि के उपयोग के विषय में परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किया जाता है, वह उसी के द्वारा खड़ा किया जाता है, वह परमेश्वर के कार्य के लिए परमेश्वर के द्वारा तैयार किया जाता है, और वह परमेश्वर के कार्य में सहयोग करता है। कोई भी व्यक्ति उसके कार्य के लिए कभी खड़ा नहीं हो सकता, यह मनुष्य का सहयोग है जो दैवीय कार्य का अभिन्न अंग है। इस दौरान, दूसरे कार्यकर्ताओं या प्रेरितों द्वारा किया गया कार्य कुछ और नहीं बल्कि हर अवधि के दौरान कलीसियाओं के लिए व्यवस्थाओं के कई पहलुओं को लाना और उन्हें पूरा करना है, या फिर कलीसियाई जीवन को बनाए रखने के लिए जीवन की मूलभूत चीजों की उपलब्धता के लिए कार्य करना है। ये कार्यकर्ता और प्रेरित परमेश्वर द्वारा नियुक्त नहीं किए जाते हैं, न ही यह कहा जा सकता है कि वे पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए जाते हैं। वे कलीसिया में से चुने गए और, कुछ समय की अच्छी शिक्षा और प्रशिक्षण के बाद, जो उपयुक्त होतेहैं उन्हें रखा जाता, जबकि जो उपयुक्त नहीं होते उन्हें वहीं वापस भेज दिया जाता है जहाँ से वे आए थे। क्योंकि ये लोग कलीसिया में से चुने जाते हैं, कुछ अपना असली रंग अगुवा बनने के बाद दिखाते हैं, और कुछ तो बहुत बुरे काम करते हैं और अंत में निकाल दिए जाते हैं। दूसरी ओर, जो परमेश्वर के द्वारा इस्तेमाल किया जाता है वह परमेश्वर के द्वारा तैयार किया जाता है, और जिसके भीतर कुछ योग्यता और मानवता होती है। उसेपहले से पवित्र आत्मा द्वारा तैयार औरसिद्ध कर दिया जाता हैऔर पूर्णरूप से पवित्र आत्मा द्वारा चलाया जाता है, और विशेषकर तब जब उसके कार्य की बारी आती है, उसे पवित्र आत्मा द्वारा निर्देश और आदेश दिए जाते हैं – परिणामस्वरुप परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुवाई के मार्ग में कोई परिवर्तन नही आता, क्योंकि परमेश्वर निश्चित रूप से अपने कार्य का उत्तरदायित्व लेता है, और परमेश्वर हर समय अपना कार्य करता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा मनुष्य को इस्तेमाल करने के विषय में" से

      भविष्यद्वक्ताओं के और जिन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया गया है उनके वचन और कार्य सभी मनुष्य का कर्तव्य कर रहे थे, एक सृजन किए गए प्राणी के रूप में अपना कार्य कर रहे थे और वह कर रहे थे जो मनुष्य को करना चाहिए। हालाँकि, देहधारी परमेश्वर के वचन और कार्य उसकी सेवकाई को करने के लिए थे। यद्यपि उसका बाहरी स्वरूप एक सृजन किए गए प्राणी का था, किन्तु उसका कार्य अपने प्रकार्य को नहीं बल्कि अपनी सेवकाई को पूरा करना था। "कर्तव्य" शब्द सृजन किए गए प्राणियों के सम्बन्ध में उपयोग किया जाता है, जबकि "सेवकाई" देहधारी परमेश्वर की देह के संबंध में है। इन दोनों के बीच एक महत्वपूर्ण अन्तर है, और ये दोनों परस्पर विनिमय करने योग्य नहीं हैं। मनुष्य का कार्य केवल अपना कर्तव्य करना है, जबकि परमेश्वर का कार्य अपनी सेवकाई का प्रबंधन करना, और उसे पूरा करना है। इसलिए, यद्यपि पवित्र आत्मा के द्वारा कई प्रेरितों का उपयोग किया गया और उसके साथ कई भविष्यद्वक्ता भरे गए थे, किन्तु उनका कार्य और उनके वचन केवल सृजन किए गए प्राणी के रूप में केवल अपना कर्तव्य करने के लिए थे। यद्यपि उनकी भविष्यवाणियाँ देहधारी परमेश्वर के द्वारा कहे गए जीवन के मार्ग की अपेक्षा बढ़कर हो सकती थीं, और उनकी मानवता देहधारी परमेश्वर की अपेक्षा अधिक उत्युत्तम थी, किन्तु वे अभी भी अपना कर्तव्य निभा रहे थे, और अपनी सेवकाई को पूर्ण नहीं कर रहे थे। मनुष्य का कर्तव्य उसके प्रकार्य को संदर्भित करता है, और कुछ ऐसा है जो मनुष्य के लिए प्राप्य है। हालाँकि, देहधारी परमेश्वर के द्वारा की जाने वाली सेवकाई उसके प्रबंधन से संबंधित है, और यह मनुष्य के द्वारा अप्राप्य है। चाहे देहधारी परमेश्वर बोले, कार्य करे, या चमत्कार प्रकट करे, वह अपने प्रबंधन के अंतर्गत महान कार्य कर रहा है, और इस प्रकार का कार्य उसके बदले मनुष्य नहीं कर सकता है। मनुष्य का कार्य केवल सृजन किए गए प्राणी के रूप में परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य के किसी दिए गए चरण में सिर्फ़ अपना कर्तव्य करना है। इस प्रकार के प्रबंधन के बिना, अर्थात्‌, यदि देहधारी परमेश्वर की सेवकाई खो जाती है, तो यह भी सृजन किए गए प्राणी का ही कर्तव्य है। अपनी सेवकाई को करने में परमेश्वर का कार्य मनुष्य का प्रबंधन करना है, जबकि मनुष्य का कर्तव्य करना सृष्टा की माँगों को पूरा करने के लिए अपने स्वयं के दायित्वों का प्रदर्शन है और किसी भी तरह से किसी की सेवकाई करना नहीं माना जा सकता है। परमेश्वर, अर्थात्‌, पवित्र आत्मा के अंतर्निहित सार के लिए, परमेश्वर का कार्य उसका प्रबंधन है, किन्तु एक सृजन किए गए प्राणी का बाह्य स्वरूप पहने हुए देहधारी परमेश्वर के लिए, उसका कार्य अपनी सेवकाई को पूरा करना है। वह जो कुछ भी कार्य करता है वह अपनी सेवकाई को करने के लिए करता है, और मनुष्य केवल उसके प्रबंधन के क्षेत्र के भीतर और उसकी अगुआई के अधीन ही अपना सर्वोत्तम कर सकता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर" से

      यहाँ तक कि कोई मनुष्य जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया जाता है वह भी परमेश्वर स्वयं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। और न केवल यह व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है, बल्कि उसका काम भी सीधे तौर पर परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। करने का अर्थ है, कि मनुष्य के अनुभव को सीधे तौर पर परमेश्वर के प्रबंधन के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है, और यह परमेश्वर के प्रबंधन का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। वह समस्त कार्य जिसे परमेश्वर स्वयं करता है वह ऐसा कार्य है जिसे वह अपनी स्वयं की प्रबंधन योजना में करने का इरादा करता है और बड़े प्रबंधन से संबंधित है। मनुष्य (पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया गया मनुष्य) के द्वारा किया गया कार्य उसके व्यक्तिगत अनुभव की आपूर्ति करता है। वह उस मार्ग से अनुभव का एक नया मार्ग पाता है जिस पर उससे पहले के लोग चले थे और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के अधीन अपने भाईयों और बहनों की अगुवाई करता है। जो कुछ ये लोग प्रदान करते हैं वह उनका व्यक्तिगत अनुभव या आध्यात्मिक मनुष्यों की आध्यात्मिक रचनाएँ हैं। यद्यपि पवित्र आत्मा के द्वारा उनका उपयोग किया जाता है, फिर भी ऐसे मनुष्यों का कार्य छ:-हज़ार-वर्षों की योजना के बड़े प्रबंधन कार्य से असम्बद्ध है। उन्हें सिर्फ तब तक पवित्र आत्मा की मुख्यधारा में लोगों की अगुवाई करने के लिए विभिन्न अवधियों में पवित्र आत्मा के द्वारा उभारा गया है जब तक कि वे अपने कार्य को पूरा न कर लें या उनकी ज़िन्दगियों का अंत न हो जाए। जिस कार्य को वे करते हैं वह केवल परमेश्वर स्वयं के लिए एक उचित मार्ग तैयार करने के लिए है या पृथ्वी पर परमेश्वर स्वयं की प्रबंधन योजना में एक अंश को निरन्तर जारी रखने के लिए है। ऐसे मनुष्य उसके प्रबंधन में बड़े-बड़े कार्य करने में असमर्थ होते हैं, और वे नए मार्गों की शुरुआत नहीं कर सकते हैं, और वे पूर्व युग के परमेश्वर के सभी कार्यों का समापन तो बिलकुल भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए, जिस कार्य को वे करते हैं वह केवल एक सृजित प्राणी का प्रतिनिधित्व करता है जो अपने कार्यों को क्रियान्वित कर रहा है और स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है जो अपनी सेवकाई को कार्यान्वित कर रहा हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिस कार्य को वे करते हैं वह परमेश्वर स्वयं के द्वारा किए जाने वाले कार्य के असदृश है। एक नए युग के सूत्रपात का कार्य परमेश्वर के स्थान पर मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। इसे परमेश्वर स्वयं के अलावा किसी अन्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। मनुष्य के द्वारा किया गया समस्त कार्य सृजित प्राणी के रूप में उसके कर्तव्य का निर्वहन है और तब किया जाता है जब पवित्र आत्मा के द्वारा प्रेरित या प्रबुद्ध किया जाता है। ऐसे मनुष्य द्वारा प्रदान किया जाने वाला मार्गदर्शन यह होता है कि मनुष्य के दैनिक जीवन में किस प्रकार अभ्यास किया जाए और मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर की इच्छा के साथ समरसता में कार्य करना चाहिए। मनुष्य का कार्य न तो परमेश्वर की प्रबंधन योजना को सम्मिलित करता है और न ही पवित्रात्मा के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। एक उदाहरण के रूप में, गवाह ली और वॉचमैन नी का कार्य मार्ग की अगुआई करना था। चाहे मार्ग नया हो या पुराना, कार्य बाइबल के सिद्धांतों से अधिक नहीं के आधार पर किया गया था। चाहे स्थानीय कलीसियाओं को पुनर्स्थापित किया गया था अथवा बनाया गया था, उनका कार्य कलीसियाओं की स्थापना करना था। जो कार्य उन्होंने किया उसने उस कार्य को आगे बढ़ाया जिसे यीशु और उसके प्रेरितों ने समाप्त नहीं किया था या अनुग्रह के युग में आगे विकसित नहीं किया था। उन्होंने अपने कार्य में जो कुछ किया, वह उसे बहाल करना था जिसे यीशु ने अपने कार्य में अपने बाद की पीढ़ियों से कहा था, जैसे कि अपने सिरों को ढक कर रखना, बपतिस्मा, रोटी साझा करना या वाइन पीना। यह कहा जा सकता है कि उनका कार्य केवल बाइबल को बनाए रखना था और केवल बाइबल के भीतर से मार्ग तलाशना था। उन्होंने कोई भी नई प्रगति बिल्कुल नहीं की। इसलिए, कोई उनके कार्य में केवल बाइबल के भीतर ही नए मार्गों की खोज सकता है, और साथ ही बेहतर और अधिक यथार्थवादी अभ्यासों को देख सकता है। किन्तु कोई उनके कार्य में परमेश्वर की वर्तमान इच्छा को नहीं खोज सकता है, उस कार्य को तो बिल्कुल नहीं खोज सकता है जिसे परमेश्वर अंत के दिनों में करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिस मार्ग पर वे चलते थे वह तब भी पुराना था; उसमें कोई प्रगति नहीं थी और कुछ नया नहीं था। उन्होंने "यीशु को सलीब पर चढ़ाना" की वास्तविकता को, "लोगों को पश्चाताप करने और अपने पापों को स्वीकार करने के लिए कहने", और इस उक्ति "जो अन्त तक सहन करता है बचा लिया जाएगा" और इस उक्ति "पुरुष स्त्री का सिर है" और "स्त्री को अपने पति का आज्ञापालन करना चाहिए" के अभ्यास को जारी रखा। इसके अलावा, उन्होंने परंपरागत धारणा को बनाए रखा कि "बहनें उपदेश नहीं दे सकती हैं, और वे केवल आज्ञापालन कर सकती हैं।" यदि इस तरह की अगुआई जारी रही होती, तो पवित्र आत्मा कभी भी नए कार्य को करने, पुरुषों को सिद्धांत से मुक्त करने, या पुरुषों को स्वतंत्रता और सुंदरता के क्षेत्र में ले जाने में समर्थ नहीं होता। इसलिए, युगों के परिवर्तन के लिए कार्य का यह चरण स्वयं परमेश्वर के द्वारा किया और बोला जाना चाहिए, अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसके स्थान पर ऐसा नहीं कर सकता है। अभी तक, इस धारा के बाहर पवित्र आत्मा का समस्त कार्य एकदम रुक गया है, और जिन्हें पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया गया था वे दिग्भ्रमित हो गए हैं। इसलिए, चूँकि पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों का कार्य परमेश्वर स्वयं के द्वारा किए गए कार्य के असदृश है, इसलिए उनकी पहचान और वे जिनकी ओर से कार्य करते हैं वे भी उसी तरह से भिन्न हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि पवित्र आत्मा जिस कार्य को करने का इरादा करता है वह भिन्न है, फलस्वरूप कार्य करने वाले सभी को अलग-अलग पहचानें और हैसियतें प्रदान की जाती है। पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए लोग भी कुछ कार्य कर सकते हैं जो नया हो और वे पूर्व युग में किये गए कुछ कार्य को हटा भी सकते हैं, किन्तु उनका कार्य नए युग में परमेश्वर के स्वभाव और इच्छा को व्यक्त नहीं कर सकता है। वे केवल पूर्व युग के कार्य को हटाने के लिए कार्य करते हैं, और सीधे तौर पर परमेश्वर स्वयं के स्वभाव का प्रतिनिधित्व करने के लिए कोई नया कार्य नहीं करते हैं। इस प्रकार, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे पुरानी पड़ चुके कितने अभ्यासों का उन्मूलन करते हैं या वे नए अभ्यासों को आरंभ करते हैं, वे तब भी मनुष्य और सृजित प्राणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। फिर भी, जब परमेश्वर स्वयं कार्य को करता है, तो भी, वह प्राचीन युग के अभ्यासों के उन्मूलन की खुलकर घोषणा नहीं करता है या सीधे तौर पर नए युग की शुरुआत की घोषणा नहीं करता है। वह अपने कार्य में प्रत्यक्ष और स्पष्ट है। वह उस कार्य को करने में निष्कपट है जिसका उसने इरादा किया है; अर्थात्, वह उस कार्य को सीधे तौर पर व्यक्त करता है जिसे उसने घटित किया है, वह सीधे तौर पर अपना कार्य करता है जैसा उसने मूलतः इरादा किया था, और अपने अस्तित्व एवं स्वभाव को व्यक्त करता है। जैसा मनुष्य इसे देखता है, उसका स्वभाव और उसी प्रकार उसका कार्य भी बीते युगों के लोगों के असदृश है। हालाँकि, परमेश्वर स्वयं के दृष्टिकोण से, यह मात्र उसके कार्य की निरन्तरता और आगे का विकास है। जब परमेश्वर स्वयं कार्य करता है, तो वह अपने वचन को व्यक्त करता है और सीधे तौर पर नया कार्य लाता है। इसके विपरीत, जब मनुष्य काम करता है, तो यह विचार-विमर्श एवं अध्ययन के माध्यम से होता है, या यह दूसरों के कार्य की बुनियाद पर निर्मित ज्ञान का विकास और अभ्यास का व्यवस्थापन है। कहने का अर्थ है, कि मनुष्य के द्वारा किए गए कार्य का सार प्रथा को बनाए रखना और "नए जूतों में पुराने मार्ग पर चलना" है। इसका अर्थ है कि यहाँ तक कि पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों द्वारा चला गया मार्ग भी उस पर बनाया गया है जिसे स्वयं परमेश्वर के द्वारा खोला गया था। अतः मनुष्य आख़िरकर मनुष्य है, और परमेश्वर परमेश्वर है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (1)" से

      आप सभी को जानना होगा कि परमेश्वर के कार्य से मनुष्य के काम को कैसे अलग किया जाता है। आप मनुष्य के काम से क्या देख सकते हैं? मनुष्य के काम में मनुष्य के अनुभव के बहुत सारे तत्व होते हैं; मनुष्य जैसा अभिव्यक्त करता है वह वैसा ही होता है। परमेश्वर का स्वयं का कार्य भी उसे ही अभिव्यक्त करता है, परन्तु जो वह है वह मनुष्य से अलग है। मनुष्य जो कुछ है वह मनुष्य के अनुभव एवं जीवन का प्रतिनिधि है (जो कुछ मनुष्य अपने जीवन में अनुभव एवं सामना करता है, या जो उसके जीवन-दर्शन हैं), और विभिन्न वातावरणों में रहने वाले लोग विभिन्न प्राणियों को व्यक्त करते हैं। आपके पास सामाजिक अनुभव हैं या नहीं और आप वास्तव में किस प्रकार अपने परिवार में रहते एवं अनुभव करते हैं उसे जो कुछ आप अभिव्यक्त करते हैं उसमें देखा जा सकता है, जबकि आप देहधारी परमेश्वर के कार्य से यह नहीं देख सकते हैं कि उसके पास सामाजिक अनुभव हैं या नहीं। वह मनुष्य के सार-तत्व से अच्छी तरह से परिचित है, वह सभी प्रकार के अभ्यास को प्रगट कर सकता है जो सब प्रकार के लोगों से सम्बन्धित होते हैं। वह मानव के भ्रष्ट स्वभाव एवं विद्रोही आचरण को भी बेहतर ढंग से प्रगट कर सकता है। वह सांसारिक लोगों के मध्य नहीं रहता है, परन्तु वह नश्वर मनुष्यों के स्वभाव और सांसारिक लोगों की समस्त भ्रष्टता से भली भांति अवगत है। वह ऐसा ही है। हालाँकि वह संसार के साथ व्यवहार नहीं करता है, फिर भी वह संसार के साथ व्यवहार करने के नियमों को जानता है, क्योंकि वह मानवीय स्वभाव को पूरी तरह से समझता है। वह वर्तमान एवं अतीत दोनों के आत्मा के कार्य के विषय में जानता है जिसे मनुष्य की आंखें नहीं देख सकती हैं जिसे मनुष्य के कान नहीं सुन सकते हैं। इसमें बुद्धि शामिल है जो जीवन का दर्शनशास्त्र एवं आश्चर्य नहीं है जिसकी गहराई नापना मनुष्य को कठिन जान पड़ता है। वह ऐसा ही है, लोगों के लिए खुला और साथ ही लोगों से छिपा हुआ भी है। जो कुछ वह अभिव्यक्त करता है वह ऐसा नहीं है जैसा एक असाधारण मनुष्य होता है, परन्तु अंतर्निहित गुण एवं आत्मा का अस्तित्व है। वह संसार भर में यात्रा नहीं करता है परन्तु उसके विषय में हर एक चीज़ को जानता है। वह "वन-मानुषों" के साथ सम्पर्क करता है जिनके पास कोई ज्ञान या अंतर्दृष्टि नहीं है, परन्तु वह ऐसे शब्दों को व्यक्त करता है जो ज्ञान से ऊँचे और महान मनुष्यों से ऊपर हैं। वह कम समझ एवं सुन्न लोगों के समूह के मध्य रहता है जिनके पास मानवता नहीं है और जो मानवीय परम्पराओं एवं जीवनों को नहीं समझते हैं, परन्तु वह मानवजाति से सामान्य मानवता को जीने के लिए कह सकता है, ठीक उसी समय वह मानवजाति के नीच एवं घटिया मनुष्यत्व को प्रगट करता है। यह सब कुछ वही है जो वह है, वह किसी भी मांस और लहू के व्यक्ति की अपेक्षा अधिक ऊँचा है। उसके लिए, यह जरुरी नहीं है कि वह उस काम को करने के लिए जिसे उसे करने की आवश्यक है जटिल, बोझिल एवं पतित सामाजिक जीवन का अनुभव करे और भ्रष्ट मानवजाति के सार-तत्व को पूरी तरह से प्रगट करे। ऐसा पतित सामाजिक जीवन उसकी देह को उन्नत नहीं करता है। उसके कार्य एवं वचन मनुष्य केआज्ञालंघन को ही प्रगट करते हैं और संसार के साथ निपटने के लिए मनुष्य को अनुभव एवं शिक्षाएं प्रदान नहीं करते हैं। जब वह मनुष्य को जीवन की आपूर्ति करता है तो उसे समाज या मनुष्य के परिवार की जांच पड़ताल करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। मनुष्य का खुलासा एवं न्याय करना उसकी देह के अनुभवों की अभिव्यक्ति नहीं है; यह लम्बे समय तक मनुष्य के आज्ञालंघन को जानने के बाद उसकी अधार्मिकता को प्रगट करने और मानवता के भ्रष्ट स्वभाव से घृणा करने के लिए है। वह कार्य जिसे परमेश्वर करता है वह मनुष्य पर अपने स्वभाव को पूरी तरह से प्रगट करने और अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त करने के लिए है। केवल वही इस कार्य को कर सकता है, यह ऐसी चीज़ नहीं है जिसे मांस और लहू का व्यक्ति हासिल कर सकता है। परमेश्वर के कार्य के लिहाज से, मनुष्य यह नहीं बता सकता कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है। मनुष्य परमेश्वर के कार्य के आधार पर भी उसे एक सृजे गए व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत करने में असमर्थ है। जो वह है उससे भी उसे एक सृजे गए प्राणी के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। मनुष्य उसे केवल एक ग़ैर-मानव मान सकता है, किन्तु वह यह नहीं जानता है कि उसे किस श्रेणी में रखा जाए, अतः मनुष्य उसे परमेश्वर की श्रेणी में सूचीबद्ध रखने के लिए मजबूर है। मनुष्य के लिए ऐसा करना असंगत नहीं है, क्योंकि परमेश्वर ने लोगों के मध्य बहुत सारा कार्य किया है जिसे मनुष्य करने में असमर्थ है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से

      वह कार्य जिसे परमेश्वर करता है वह उसकी देह के अनुभव का प्रतिनिधित्व नहीं करता है; वह कार्य जिसे मनुष्य करता है वह मनुष्य के अनुभव का प्रतिनिधित्व करता है। हर कोई अपने व्यक्तिगत अनुभव के विषय में बातचीत करता है। परमेश्वर सीधे तौर पर सत्य को अभिव्यक्त कर सकता है, जबकि मनुष्य केवल सत्य का अनुभव करने के पश्चात् ही उससे सम्बन्धित अनुभव को अभिव्यक्त कर सकता है। परमेश्वर के कार्य में कोई नियम नहीं होते हैं और यह समय या भौगोलिक अवरोधों के अधीन नहीं होता है। वह जो है उसे वह किसी भी समय, कहीं पर भी प्रगट कर सकता है। जो वह है उसे वह किसी भी समय एवं किसी भी स्थान पर व्यक्त कर सकता है। जैसा उसे अच्छा लगता है वह वैसा कार्य करता है। मनुष्य के काम में परिस्थितियां एवं सन्दर्भ होते हैं; अन्यथा, वह काम करने में असमर्थ होता है और वह परमेश्वर के विषय में अपने ज्ञान को व्यक्त करने या सत्य के विषय में अपने अनुभव को व्यक्त करने में असमर्थ होता है। आपको बस यह बताने के लिए उनके बीच के अन्तर की तुलना करनी है कि यह परमेश्वर का अपना कार्य है या मनुष्य का काम है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से

      केवल युग की अगुवाई करने और एक नए कार्य को गतिमान करने के लिए परमेश्वर देह बनता है। तुम लोगों को इस बिन्दु को समझना होगा। यह मनुष्य के प्रकार्य से बहुत अलग है, और दोनों को लगभग एक साथ नहीं कहा जा सकता है। इससे पहले कि कार्य करने के लिए मनुष्य का उपयोग किया जाए, मनुष्य को विकसित होने एवं पूर्णता की एक लम्बी समयावधि की आवश्यकता है और एक विशेष रूप में बड़ी मानवता की आवश्यकता है। न केवल मनुष्य को अपनी सामान्य मानवीय समझ को बनाए रखने के योग्य अवश्य होना चाहिए, बल्कि मनुष्य को दूसरों के सामने व्यवहार के अनेक सिद्धान्तों और नियमों को अवश्य और भी अधिक समझना चाहिए, और इसके अतिरिक्त उसे अवश्य मनुष्य की बुद्धि और नैतिकता को और अधिक सीखना चाहिए। यह वह है जिससे मनुष्य को सुसज्जित अवश्य होना होगा। हालाँकि, परमेश्वर देह बनता है के लिए ऐसा नहीं है, क्योंकि उसका कार्य न तो मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता है और न ही मनुष्यों का है; इसके बजाए, यह उसके अस्तित्व की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है और उस कार्य का प्रत्यक्ष कार्यान्वयन है जो उसे अवश्य करना चाहिए। (प्राकृतिक रूप से, उसका कार्य तब किया जाता है जब उसे किया जाना चाहिए, और इच्छानुसार यादृच्छिक रूप से नहीं किया जाता है। बल्कि, उसका कार्य तब शुरू होता है जब उसकी सेवकाई को पूरा करने का समय होता है।) वह मनुष्य के जीवन में या मनुष्य के कार्य में भाग नहीं लेता है, अर्थात्, उसकी मानवता इन में से किसी भी चीज़ से सुसज्जित नहीं है (परन्तु इससे उसका कार्य प्रभावित नहीं होता है)। वह केवल अपनी सेवकाई को पूरा करता है जब उसके लिए ऐसा करने का समय होता है; उसकी हैसियत कुछ भी हो, वह बस उस कार्य के साथ आगे बढ़ता है जो उसे अवश्य करना चाहिए। मनुष्य उसके बारे में जो कुछ भी जानता है या उसके बारे में उसकी जो कुछ भी राय हों, इससे उसके कार्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (3)" से

      मसीह का कार्य तथा अभिव्यक्ति उसके सार को निर्धारित करते हैं। वह अपने सच्चे हृदय से उस कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है जो उसे सौंपा गया है। वह सच्चे हृदय से स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है, तथा सच्चे हृदय से परमपिता परमेश्वर की इच्छा खोजने में सक्षम है। यह सब उसके सार द्वारा निर्धारित किया जाता है। और इसी प्रकार से उसका प्राकृतिक प्रकाशन भी उसके सार द्वारा निर्धारित किया जाता है; उसके स्वाभाविक प्रकाशन का ऐसा कहलाना इस वजह से है कि उसकी अभिव्यक्ति कोई नकल नहीं है, या मनुष्य द्वारा शिक्षा का परिणाम, या मनुष्य द्वारा अनेक वर्षों संवर्धन का परिणाम नहीं है। उसने इसे सीखा या इससे स्वयं को सँवारा नहीं; बल्कि, यह उसके अन्दर अंतर्निहित है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का वास्तविक सार है" से

      अगर मनुष्य को यह कार्य करना पड़ता, तो यह बहुत ही सीमित हो जाता; यह मनुष्य को एक निश्चित बिन्दु तक ले जा सकता था, परन्तु यह मनुष्य को अनंत मंज़िल पर ले जाने में सक्षम नहीं होता। मनुष्य की नियति को निर्धारित करने के लिए मनुष्य समर्थ नहीं है, इसके अतिरिक्त, न ही वह मनुष्य के भविष्य की संभावनाओं एवं भविष्य की मंज़िल को सुनिश्चित करने में सक्षम है। फिर भी, परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य भिन्न होता है। चूँकि उसने मनुष्य को सृजा था, इसलिए वह मनुष्य की अगुवाई करता है; चूँकि वह मनुष्य को बचाता है, इसलिए वह उसे पूरी तरह से बचाएगा, और उसे पूरी तरह प्राप्त करेगा; चूँकि वह मनुष्य की अगुवाई करता है, इसलिए वह उसे उस उपयुक्त मंज़िल पर पहुंचाएगा, और चूँकि उसने मनुष्य को सृजा था और उसका प्रबंध करता है, इसलिए उसे मनुष्य की नियति एवं उसकी भविष्य की संभावनाओं की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। यही वह कार्य है जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा किया गया है। हालाँकि विजय के कार्य को भविष्य की संभावनाओं से मनुष्य को शुद्ध करने के द्वारा हासिल किया जाता है, फिर भी अन्ततः मनुष्य को उस उपयुक्त मंज़िल पर पहुंचाया जाना चाहिए जिसे परमेश्वर के द्वारा उसके लिए तैयार किया गया है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "मनुष्य के सामान्य जीवन को पुनःस्थापित करना और उसे एक बेहतरीन मंज़िल पर लेचलना" से

      मनुष्य के काम में एक दायरा एवं सीमाएं होती हैं। कोई व्यक्ति केवल एक ही निश्चित अवस्था के कार्य को करने के लिए योग्य होता है और सम्पूर्ण युग के कार्य को नहीं कर सकता हैं - अन्यथा, वह लोगों को नियमों के भीतर ले जाएगा। मनुष्य के काम को केवल एक विशेष समय या अवस्था पर ही लागू किया जा सकता है। यह इसलिए है क्योंकि मनुष्य के अनुभव में एक दायरा होता है। कोई व्यक्ति परमेश्वर के कार्य के साथ मनुष्य के काम की तुलना नहीं कर सकता है। मनुष्य के अभ्यास करने के तरीके और सत्य के विषय में उसके समस्त ज्ञान को एक विशेष दायरे में लागू किया जाता है। आप नहीं कह सकते हैं कि वह मार्ग जिस पर कोई मनुष्य चलता है वह पूरी तरह से पवित्र आत्मा की इच्छा है, क्योंकि मनुष्य को केवल पवित्र आत्मा के द्वारा ही प्रकाशित किया जा सकता है और उसे पवित्र आत्मा से पूरी तरह से भरा नहीं जा सकता है। ऐसी चीज़ें जिन्हें मनुष्य अनुभव कर सकता है वे सभी सामान्य मानवता के दायरे के भीतर हैं और वे सामान्य मानवीय मस्तिष्क में विचारों की सीमाओं से आगे नहीं बढ़ सकती हैं। वे सभी जिनके पास व्यावहारिक अभिव्यक्ति है वे इस सीमा के अंतर्गत अनुभव करते हैं। जब वे सत्य का अनुभव करते हैं, तो यह हमेशा ही पवित्र आत्मा के अद्भुत प्रकाशन के अधीन सामान्य मानवीय जीवन का एक अनुभव है, और यह ऐसी रीति से अनुभव करना नहीं है जो सामान्य मानवीय जीवन से दूर हट जाता है। अपने मानवीय जीवन को जीने के आधार पर वे उस सच्चाई का अनुभव करते हैं जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा प्रकाशित किया जाता है। इसके अतिरिक्त, यह सत्य एक व्यक्ति से लेकर दूसरे व्यक्ति तक भिन्न होता है, और इसकी गहराई उस व्यक्ति की दशा से सम्बन्धित होती है। कोई व्यक्ति केवल यह कह सकता है कि वह मार्ग जिस पर वे चलते हैं वह किसी मनुष्य का सामान्य जीवन है जो सत्य का अनुसरण कर रहा है, और यह कि यह वह मार्ग जिस पर किसी साधारण व्यक्ति के द्वारा चला गया है जिसके पास पवित्र आत्मा का अद्भुत प्रकाशन है। आप नहीं कह सकते हैं कि वह मार्ग जिस पर वे चलते हैं वह ऐसा मार्ग है जिसे पवित्र आत्मा द्वारा लिया गया है। सामान्य मानवीय अनुभव में, क्योंकि ऐसे लोग जो अनुसरण करते हैं वे एक समान नहीं होते हैं, इसलिए पवित्र आत्मा का कार्य भी एक समान नहीं होता है। इसके साथ ही, क्योंकि ऐसे वातावरण जिनका वे अनुभव करते हैं और उनके अनुभव की सीमाएं एक समान नहीं होती हैं, उनके मस्तिष्क एवं विचारों के मिश्रण के कारण, उनके अनुभव विभिन्न मात्राओं तक मिश्रित हो जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार ही किसी सच्चाई को समझ पाता है। सत्य के वास्तविक अर्थ के विषय में उनकी समझ पूर्ण नहीं है और यह इसका केवल एक या कुछ ही पहलु है। वह दायरा जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के द्वारा उस सच्चाई का अनुभव किया जाता है वह हमेशा ही व्यक्तित्वों की विभिन्न परिस्थितियों पर आधारित होता है और इसलिए यह एक समान नहीं होता है। इस रीति से, वह ज्ञान जिसे विभिन्न लोगों के द्वारा उसी सच्चाई से अभिव्यक्त किया जाता है वह एक समान नहीं है। कहने का तात्पर्य है, मनुष्य के अनुभव में हमेशा सीमाएं होती हैं और यह पवित्र आत्मा की इच्छा को पूरी तरह से दर्शा नहीं सकता है, और मनुष्य के काम को परमेश्वर के कार्य के समान महसूस नहीं किया जा सकता है, भले ही जो कुछ मनुष्य के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है वह परमेश्वर की इच्छा से नज़दीकी से सम्बन्ध रखता हो, भले ही मनुष्य का अनुभव सिद्ध करनेवाले कार्य के बेहद करीब हो जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा किया जाना है। मनुष्य केवल परमेश्वर का सेवक हो सकता है, और उस कार्य को कर सकता है जिसे परमेश्वर ने उसे सौंपा है। मनुष्य केवल पवित्र आत्मा के अद्भुत प्रकाशन के अधीन उस ज्ञान को और उन सच्चाईयों को व्यक्त कर सकता है जिन्हें उसने अपने व्यक्तिगत अनुभवों से अर्जित किया है। मनुष्य अयोग्य है और उसके पास ऐसी स्थितियां नहीं हैं कि वह पवित्र आत्मा की अभिव्यक्ति का साधन बने। वह यह कहने का हकदार नहीं है कि मनुष्य का काम परमेश्वर का कार्य है। मनुष्य के पास मनुष्य के कार्य करने के सिद्धान्त होते हैं, और सभी मनुष्यों के पास विभिन्न अनुभव होते हैं और उनके पास अलग अलग स्थितियां होती हैं। मनुष्य का काम पवित्र आत्मा के अद्भुत प्रकाशन के अधीन उसके सभी अनुभवों को सम्मिलित करता है। ये अनुभव केवल मनुष्य के अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हैं और परमेश्वर के अस्तित्व या पवित्र आत्मा की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। इसलिए, वह मार्ग जिस पर मनुष्य के द्वारा चला जाता है उसे ऐसा मार्ग नहीं कहा जा सकता है जिस पर पवित्र आत्मा के द्वारा चला गया है क्योंकि मनुष्य का काम परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता और मनुष्य का काम एवं मनुष्य का अनुभव पवित्र आत्मा की सम्पूर्ण इच्छा नहीं है। मनुष्य के काम का झुकाव नियम के अंतर्गत आने के लिए होता है, और उसके कार्य करने के तरीके को आसानी से एक सीमित दायरे में सीमित किया जा सकता है और यह स्वतन्त्र रूप से लोगों की अगुवाई करने में असमर्थ है। अधिकांश अनुयायी एक सीमित दायरे में जीवन बिताते हैं, और उनके अनुभव करने का मार्ग भी इसके दायरे तक ही सीमित होता है। मनुष्य का अनुभव हमेशा सीमित होता है; उसके कार्य करने का तरीका भी कुछ प्रकारों तक ही सीमित होता है और पवित्र आत्मा के कार्य से या स्वयं परमेश्वर के कार्य से इसकी तुलना नहीं की जा सकती है - यह इसलिए है क्योंकि अंत में मनुष्य का अनुभव सीमित होता है। फिर भी परमेश्वर अपना कार्य करता है, इसके लिए कोई नियम नहीं है; फिर भी वह पूर्ण होता है, यह एक तरीके पर सीमित नहीं है। परमेश्वर के कार्य के लिए किसी भी प्रकार के नियम नहीं हैं, उसके समस्त कार्य को स्वतन्त्र रूप से मुक्त किया गया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य उसका अनुसरण करते हुए कितना समय बिताता है, वे उसके कार्य करने के तरीकों के विषय में किसी भी प्रकार के नियमों का सार नहीं निकल सकते हैं। हालाँकि उसका कार्य सैद्धांतिक है, और इसे हमेशा नए तरीकों से किया जाता है और इसमें हमेशा नई नई प्रगति होती रहती है, जो मनुष्य की पहुंच से परे है। एक समय काल के दौरान, हो सकता है कि परमेश्वर के पास भिन्न भिन्न प्रकार के कार्य और भिन्न भिन्न प्रकार की अगुवाई हो, जो लोगों को अनुमति देती हो कि उनके पास हमेशा नए नए प्रवेश एवं नए नए परिवर्तन हों। आप उसके कार्य के नियमों का पता नहीं लगा सकते हैं क्योंकि वह हमेशा नए तरीकों से कार्य कर रहा है। केवल इस रीति से ही परमेश्वर के अनुयायी नियमों के अंतर्गत नहीं आते हैं। स्वयं परमेश्वर का कार्य हमेशा लोगों की धारणाओं से परहेज करता है और उनकी धारणाओं का विरोध करता है। ऐसे लोग जो एक सच्चे हृदय के साथ उसके पीछे पीछे चलते हैं और उसका अनुसरण करते हैं केवल उनका स्वभाव ही रूपान्तरित हो सकता है और वे किसी भी प्रकार के नियमों के अधीन हुए बिना या किसी भी प्रकार की धार्मिक धारणाओं के द्वारा अवरुद्ध हुए बगैर स्वतन्त्रता से जीवन जी सकते हैं। ऐसी मांगें जिन्हें मनुष्य का काम लोगों से करता है वे उनके स्वयं के अनुभव और उस चीज़ पर आधारित होते हैं जिन्हें वह स्वयं हासिल कर सकता है। इन अपेक्षाओं का स्तर एक निश्चित दायरे के भीतर सीमित होता है, और अभ्यास के तरीके भी बहुत ही सीमित होते हैं। इस प्रकार अनुयायी सीमित दायरे के भीतर अवचेतन रूप से जीवन बिताते हैं; जैसे जैसे समय गुज़रता है, वे नियम एवं रीति रिवाज बन जाते हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से
मनुष्य की नियति के संबंध में परमेश्वर के कोई भी कार्य या वचन, मनुष्यों के मूलतत्व के आधार पर उचित रीति से प्रत्येक मनुष्य में कार्य करते हैं, वहाँ कोई संयोग नहीं है, और निश्चय ही लेशमात्र भी त्रुटि नहीं है। केवल जब एक मनुष्य कार्य करेगा तब मनुष्य की भावनाएँ या अर्थ उसमें मिश्रित होंगे। परमेश्वर जो कार्य करता है, वह सबसे अधिक उपयुक्त होता है, वह निश्चित तौर पर किसी प्राणी के विरुद्ध झूठे दावे नहीं करेगा।

"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर और मनुष्य एक साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे" से

फुटनोट:

क. मूल पाठ "चाहे वह परमेश्वर हो।" को छोड़ता है

रोत


सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कथन|तुम्हें परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में कैसे विभेद करना चाहिए?

रविवार, 28 अप्रैल 2019

बचाए जाने एवं सिद्ध बनाए जाने के लिए तुम्हें परमेश्वर पर किस प्रकार विश्वास करना चाहिए?

अध्याय 4 तुम्हें अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की सच्चाईयों को अवश्य जानना चाहिए।

      5.बचाए जाने एवं सिद्ध बनाए जाने के लिए तुम्हें परमेश्वर पर किस प्रकार विश्वास करना चाहिए?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

      यद्यपि बहुत से लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, किंतु बहुत कम लोग समझते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने का अर्थ क्या है, और परमेश्वर के मन के अनुरूप बनने के लिये उन्हें क्या करना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि यद्यपि लोग "परमेश्वर" शब्द और "परमेश्वर का कार्य" जैसे वाक्यांश से परिचित हैं, किंतु वे परमेश्वर को नहीं जानते हैं, और उससे भी कम वे उसके कार्य को जानते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि तब वे सभी जो परमेश्वर को नहीं जानते हैं, वे दुविधायुक्त विश्वास रखते हैं। लोग परमेश्वर पर विश्वास करने को गंभीरता से नहीं लेते हैं, क्योंकि परमेश्वर पर विश्वास करना उनके लिये अत्यधिक अनजाना और अजीब है। इस प्रकार, वे परमेश्वर की माँग से कम पड़ते हैं। दूसरे शब्दों में, यदि लोग परमेश्वर को नहीं जानते हैं, तो वे उसके कार्य को भी नहीं जानते हैं, तब वे परमेश्वर के इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं, और उससे भी कम यह कि वे परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं कर सकते हैं। "परमेश्वर पर विश्वास" का अर्थ, यह विश्वास करना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर पर विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे बढ़कर यह बात है कि परमेश्वर है, यह मानना परमेश्वर पर सचमुच विश्वास करना नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक प्रभाव के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर पर सच्चे विश्वास का अर्थ इस विश्वास के आधार पर परमेश्वर के वचनों और कामों का अनुभव करना है कि परमेश्वर सब वस्तुओं पर संप्रभुता रखता है। इस तरह से तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त हो जाओगे, परमेश्वर की इच्छा को पूरा करोगे और परमेश्वर को जान जाओगे। केवल इस प्रकार की यात्रा के माध्यम से ही तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास करने वाला कहा जा सकता है। मगर लोग परमेश्वर पर विश्वास को अक्सर बहुत सरल और तुच्छ मानते हैं। ऐसे लोगों का विश्वास अर्थहीन है और कभी भी परमेश्वर का अनुमोदन नहीं पा सकता है, क्योंकि वे गलत पथ पर चलते हैं। आज, अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं जो अक्षरों में, खोखले सिद्धान्तों में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। वे इस बात से अनजान हैं कि परमेश्वर पर उनके विश्वास में कोई सार नहीं है, और कि वे परमेश्वर का अनुमोदन पाने में असमर्थ हैं, और तब भी वे परमेश्वर से शांति और पर्याप्त अनुग्रह के लिये प्रार्थना करते हैं। हमें रुक कर स्वयं से प्रश्न करना चाहिए: क्या परमेश्वर पर विश्वास करना पृथ्वी पर वास्तव में सबसे अधिक आसान बात है? क्या परमेश्वर पर विश्वास करने का अर्थ, परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने की अपेक्षा कुछ नहीं है? क्या जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं पर उसे नहीं जानते हैं; और जो उस पर विश्वास तो करते हैं पर उसका विरोध करते हैं, सचमुच उसकी इच्छा को पूरा करते है?

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "प्रस्तावना" से

      यह स्वर्ग का नियम और पृथ्वी का सिद्धांत है कि परमेश्वर पर विश्वास किया जाए और उसको जाना जाए, और आज - इस युग के दौरान जब देहधारी परमेश्वर स्वयं अपना कार्य करता है - यह परमेश्वर को जानने के लिए विशेष अच्छा समय है। परमेश्वर को संतुष्ट करना उसकी इच्छा को समझने पर आधारित है, और परमेश्वर की इच्छा को जानने के लिए, परमेश्वर को अच्छी तरह से जानना आवश्यक है। परमेश्वर की यह जानकारी एक दर्शन है जो एक विश्वासी के पास होना चाहिए; यह परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास का आधार है। यदि मनुष्य में यह ज्ञान न हो तो परमेश्वर पर उसका विश्वास अस्पष्ट होता है, और खोखले सिद्धांत में होता है। हालांकि परमेश्वर का अनुसरण करना इस तरह के लोगों का संकल्प है, वे कुछ भी प्राप्त नहीं करते हैं। वे सभी जो इस धारा से कुछ भी प्राप्त नहीं करते हैं, वे हटा दिए जाएंगे, और वे ऐसे लोग हैं जो बहुत ही कम कार्य कर रहे हैं। तुम परमेश्वर के कार्य का कोई सा भी कदम का अनुभव करो, तुम्हारे पास एक सामर्थी दर्शन होना चाहिए। इस प्रकार के दर्शन के बिना, तुम्हारे लिए नए कार्य के प्रत्येक चरण को स्वीकारना कठिन कार्य होगा, क्योंकि मनुष्य परमेश्वर के नए कार्य की कल्पना करने में अयोग्य है, यह मनुष्य की धारणाओं से बाहर है। इसलिए बिना चरवाहे के मनुष्य के द्वारा चलना, बिना चरवाहे की दर्शन के बारे में संगति करना, परमेश्वर नए कार्य को स्वीकारने में अयोग्य है। यदि मनुष्य दर्शन प्राप्त नहीं कर सकता है, तो वह परमेश्वर के नए कार्य को प्राप्त नहीं कर सकता है, और यदि मनुष्य परमेश्वर के नए कार्य का आज्ञापालन नहीं कर सकता है, तो मनुष्य परमेश्वर की इच्छा को समझने में योग्य नहीं होता है, और इसलिए परमेश्वर के संबंध में उसका ज्ञान कुछ भी नहीं है। इससे पहले कि मनुष्य परमेश्वर के वचनों का पालन करे, उसे परमेश्वर के वचनों को जानना होगा, यानि परमेश्वर की इच्छा को जानना होगा; केवल इसी प्रकार से परमेश्वर के वचनों को यथार्थ तौर पर और परमेश्वर के हृदय के अनुसार किया जा सकता है। इसे हर उस व्यक्ति के द्वारा किया जाना चाहिए जो सत्य को खोजता है, और यही वह प्रक्रिया है जिसका अनुभव हर उस व्यक्ति को करना चाहिए जो परमेश्वर को जानने की कोशिश करता है। परमेश्वर के वचन को जानने की प्रक्रिया, परमेश्वर को जानने की प्रक्रिया है, और परमेश्वर के कार्य को जानने की भी प्रक्रिया है। इसलिए दर्शन को जानना न केवल देहधारी परमेश्वर की मानवता को जानने से संबंध रखता है, बल्कि इसमें परमेश्वर के वचनों और कार्यों को जानना भी सम्मिलित है। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से लोग परमेश्वर की इच्छा को समझते हैं, और परमेश्वर के कार्य के माध्यम से वे परमेश्वर के स्वभाव को जानते हैं और कि परमेश्वर क्या है। परमेश्वर पर विश्वास करना परमेश्वर को जानने की ओर पहला कदम है। परमेश्वर में प्रारम्भिक विश्वास से परमेश्वर पर सबसे गहरा विश्वास तक आगे बढ़ने की प्रक्रिया परमेश्वर को जानने की प्रक्रिया है, और परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करने की प्रक्रिया है। यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास केवल विश्वास दिखाने के लिए करते हो, न कि परमेश्वर को जानने के लिए उस पर विश्वास करते हो, तो तुम्हारे विश्वास में कुछ भी सत्य नहीं है, और यह शुद्ध नहीं होसकता है - इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। यदि परमेश्वर का अनुभव करने की प्रक्रिया में, मनुष्य धीरे-धीरे परमेश्वर को जानने लगता है, तो उसका स्वभाव भी धीरे-धीरे बदलेगा, और उसका विश्वास उत्तरोत्तर सत्य होगा। इस प्रकार से, जब मनुष्य परमेश्वर पर विश्वास करने में सफलता प्राप्त करता है, वह पूरी तरह से परमेश्वर को प्राप्त कर लेगा। परमेश्वर इस हद तक चला गया कि वह दूसरी बार देहधारण करके आया और व्यक्तिगत तौर पर अपने कार्य को किया ताकि मनुष्य उसे जान सके, और उसे देख सके। परमेश्वर को जानना[क] परमेश्वर के कार्य के अंत में अंतिम प्रभाव को प्राप्त करना है; यही परमेश्वर की मानवजाति से अंतिम अपेक्षा है। यह उसने अपनी निर्णायक गवाही की खातिर करता है, ताकि मनुष्य अंततः और पूरी तरह से उसकी ओर फिरे। मनुष्य परमेश्वर से प्रेम केवल परमेश्वर को जान करके ही कर सकता है और परमेश्वर को प्रेम करने के लिए उसे परमेश्वर को जानना होगा। इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता कि वह कैसे खोजता है या क्या प्राप्त करने के लिए खोज करता है, उसे परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के योग्य बनना आवश्यक है। केवल इसी प्रकार से मनुष्य परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट कर सकता है। केवल परमेश्वर को जान कर ही मनुष्य सचमुच परमेश्वर पर विश्वास कर सकता है और केवल परमेश्वर को जान कर ही वह परमेश्वर का सचमुच आदर और आज्ञापालन कर सकता है। जो लोग परमेश्वर को नहीं जानते हैं वे उसका वास्तव में आदर और आज्ञापालन कभी नहीं कर सकते हैं। परमेश्वर को जानने में परमेश्वर के स्वभाव को जानना, परमेश्वर की इच्छा को समझना, और यह जानना शामिल है कि परमेश्वर क्या है। फिर भी परमेश्वर को जानने का जो कोई भी पहलु वह हो, प्रत्येक के लिए मनुष्य को एक मूल्य चुकाना होगा, और उसकी इच्छा को मानना आवश्यक है, जिसके बिना अंत तक कोई भी परमेश्वर का अनुसरण करने के योग्य नहीं होगा। मनुष्य की धारणाओं के सामने परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से असंगत नज़र आता है, परमेश्वर का स्वभाव और परमेश्वर क्या है यह मनुष्य के लिए जानना बहुत ही कठिन है, और जो कुछ परमेश्वर कहता और करता है वह भी मनुष्य की समझ से परे है; यदि मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण करना चाहता है, परन्तु परमेश्वर की आज्ञापालन करने की इच्छा नहीं रखता है, तो मनुष्य कुछ भी प्राप्त नहीं करेगा। उत्पत्ति से लेकर आज तक, परमेश्वर ने बहुत कार्य किया है जो मनुष्य की समझ से बाहर है और जिसे मनुष्य ग्रहण करने में कठिनाई महसूस करता है, और परमेश्वर ने बहुत कुछ कहा है जो मनुष्य की धारणाओं को ठीक होने में कठिनाई प्रस्तुत करता है। फिर भी वह अपना कार्य करना कभी भी बंद नहीं करता है क्योंकि मनुष्य के पास कई सारी समस्याएं हैं; वह कार्य करने और बोलने का कार्य जारी रखा है और हालांकि किनारे पर बहुत सारे "योद्धा" गिरे हैं, वह फिर भी अपना कार्य करता जाता है और लोगों के ऐसे समूहों एक के बाद एक चुनना जारी रखता है जो उसके नए कार्य का पालन करने की इच्छा जताते हैं। वह उन गिरे हुए "नायकों" पर दया नहीं दिखाता है, परन्तु उन्हें सम्भाल कर रखता है जो उसके वचन और नए कार्य को स्वीकार करते हैं। लेकिन किस उद्देश्य के लिए वह इस तरह कार्य को कदम दर कदम करता है? वह क्यों हमेशा लोगों को ख़त्म करता और चुनता रहता है? वह क्यों हमेशा इस प्रकार के तरीकों का इस्तेमाल करता रहता है? उसके कार्य का लक्ष्य यह है कि मनुष्य उसे जानें, और इस प्रकार से उसके द्वारा प्राप्त किए जाएं। उसके कार्य का नियम उन लोगों पर कार्य करना है जो आज उसके किए गए कार्य को मानने के लिए तैयार हैं, और उन पर कार्य नहीं करता जो उसके अतीत के कार्य का मानते हैं, परन्तु आज उसके कार्य का विरोध करते हैं। यही मुख्य कारण है कि उसने इतने सारे लोगों को ख़त्म कर दिया है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल वही जो परमेश्वर को जानते हैं, उसकी गवाही दे सकते हैं" से
स्पष्ट करने के लिए: यह परमेश्वर में विश्वास है जिसकी वजह से तुम परमरेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते हो, उससे प्रेम कर सकते हो, और उस कर्तव्य को कर सकते हो जो एक परमेश्वर के प्राणी द्वारा की जानी चाहिए। यही परमेश्वर पर विश्वास करने का लक्ष्य है। तुम्हें परमेश्वर के प्रेम का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए है, या यह ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए कि परमेश्वर कितने आदर के योग्य हैं, कैसे अपने सृजन किए गए प्राणियों में परमेश्वर उद्धार का कार्य करता है और उन्हें पूर्ण बनाता है—यह वह न्यूनतम है जो तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास में धारण करना चाहिए। परमेश्वर पर विश्वास मुख्यतः देह के जीवन से परमेश्वर से प्रेम करने वाले जीवन में बदलना है, प्राकृतिकता के भीतर जीवन से परमेश्वर के अस्तित्व के भीतर जीवन में बदलना है, यह शैतान के अधिकार क्षेत्र से बाहर आना और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में जीवन जीना है, यह परमेश्वर की आज्ञाकारिता को, और न कि देह की आज्ञाकारिता को, प्राप्त करने में समर्थ होना है, यह परमेश्वर को तुम्हारा संपूर्ण हृदय प्राप्त करने की अनुमति देना है, परमेश्वर को तुम्हें पूर्ण बनाने और तुम्हें भ्रष्ट शैतानिक स्वभाव से मुक्त करने की अनुमति देना है। परमेश्वर में विश्वास मुख्यतः इस वजह से है ताकि परमेश्वर की सामर्थ्य और महिमा तुममें प्रकट हो सके, ताकि तुम परमेश्वर की इच्छा को पूर्ण कर सको, और परमेश्वर की योजना को संपन्न कर सको, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे सको। परमेश्वर पर विश्वास संकेतों और चमत्कारों को देखने के उद्देश्य से नहीं होना चाहिए, न ही यह तुम्हारी व्यक्तिगत देह के वास्ते होना चाहिए। यह परमेश्वर को जानने की तलाश के लिए, और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने, और पतरस के समान, मृत्यु तक परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम होने के लिए, होना चाहिए। यही वह सब है जो मुख्यतः प्राप्त करने के लिए है। परमेश्वर के वचन से खाना और पीना परमेश्वर को जानने के उद्देश्य से और परमेश्वर को संतुष्ट करने के उद्देश्य से है। परमेश्वर के वचन को खाना और पीना तुम्हें परमेश्वर का और अधिक ज्ञान देता है, केवल उसके बाद ही तुम उसका आज्ञा पालन कर सकते हो। केवल यदि तुम परमेश्वर को जानते हो तभी तुम उससे प्रेम कर सकते हैं, और इस लक्ष्य को प्राप्त करना ही वह एकमात्र लक्ष्य है जो परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में मनुष्य को रखना चाहिए। यदि, परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास में, तुम सदैव संकेतों और चमत्कारों की देखने का प्रयास करते रहते हो, तब परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास का यह दृष्टिकोण गलत है। परमेश्वर पर विश्वास मुख्य रूप में परमेश्वर के वचन को जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना है। केवल उसके मुख से निकले वचनों को अभ्यास में लाना और उन्हें अपने स्वयं के भीतर पूरा करना, परमेश्वर के लक्ष्य की प्राप्ति है। परमेश्वर पर विश्वास करने में, मनुष्य को परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में समर्थ होने की, और परमेश्वर के प्रति संपूर्ण आज्ञाकारिता की तलाश करनी चाहिए। यदि तुम बिना कोई शिकायत किए परमेश्वर का आज्ञापालन कर सकते हो, परमेश्वर की अभिलाषाओं का विचार कर सकते हो, पतरस के समान हैसियत प्राप्त कर सकते हो, और परमेश्वर द्वारा कही गई पतरस की शैली को धारण कर सकते हो, तो यह तब होगा जब तुमने परमेश्वर पर विश्वास में सफलता प्राप्त कर ली है, और यह इस बात की द्योतक होगी कि तुम परमेश्वर द्वारा जीत लिए गए हो।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के वचन के द्वारा सब कुछ प्राप्त हो जाता है" से

      क्योंकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तुम्हें उसके वचन को खाना-पीना चाहिये, उसका अनुभव करना चाहिये, और उसे जीना चाहिये। केवल यही परमेश्वर पर विश्वास करना है! यदि तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, परंतु उसके किसी वचन को बोल नहीं सकते, या उन पर अमल नहीं कर सकते, तो यह नहीं माना जा सकता कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। ऐसा करना भूख शांत करने के लिये रोटी की खोज करने जैसा है।…परमेश्वर पर विश्वास करने वालों का कम से कम बाहरी तौर पर आचरण अच्छा होना चाहिये, और सबसे महत्वपूर्ण बात परमेश्वर का वचन रखना है। तब चाहे कुछ भी हो तुम उसके वचन से भी दूर नहीं जा सकते। परमेश्वर के प्रति तुम्हारा ज्ञान और उसकी इच्छा को पूरा करना, सब उसके वचन के द्वारा हासिल किया जाता है। सभी देश, भाग, कलीसियायें, और प्रदेश भी भविष्य में वचन के द्वारा जीते जायेंगे। परमेश्वर सीधे बात करेगा, और सभी लोग अपने हाथों में परमेश्वर का वचन थामकर रखेंगे; इसके द्वारा लोग पूर्ण बनाए जाएंगे। परमेश्वर का वचन सब तरफ फैलता जायेगा: लोगों का परमेश्वर के वचन को बोलना, और परमेश्वर के वचन के अनुसार आचरण करना, जब हृदय में भीतर रखा जाए तब भी परमेश्वर का वचन है। भीतर और बाहर दोनों तरफ वे परमेश्वर के वचन से भरे हैं और इस प्रकार वे पूर्ण बनाए जाते हैं। परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने वाले और वे जो उसकी गवाही देते हैं, वे हैं जिन्होंने परमेश्वर के वचन को वास्तविकता बनाया है।
वचन के युग अर्थात् सहस्राब्दिक राज्य के युग में प्रवेश करना वह कार्य है जो अभी पूरा किया जा रहा है। अब से वचन की सहभागिता करने का अभ्यास करो। केवल परमेश्वर के वचन को खाने-पीने और अनुभव करने से तुम परमेश्वर के वचन को प्रदर्शित कर सकते हो। केवल तुम्हारे अनुभव के वचनों के द्वारा दूसरे लोग तुम्हारे कायल हो सकते हैं। यदि तुम्हारे पास परमेश्वर का वचन नहीं है तो कोई भी कायल नहीं होगा! परमेश्वर द्वारा उपयोग किये जाने वाले सब लोग परमेश्वर का वचन बोलने में सक्षम होते हैं। यदि तुम परमेश्वर का वचन नहीं बोल सकते, यह दर्शाता है पवित्र आत्मा ने तुममें काम नहीं किया है और तुम पूर्ण नहीं बनाए गये हो। यह परमेश्वर के वचन का महत्व है।

     "वचन देह में प्रकट होता है" से "राज्य का युग वचन का युग है" से

      मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के वचन को अनुभव करने की प्रक्रिया असल में परमेश्वर के वचनों के देह में प्रकट होने के बारे में जानने की प्रक्रिया के समान है। मनुष्य जितना अधिक परमेश्वर के वचनों को अनुभव करता है, उतना ही अधिक परमेश्वर के आत्मा के बारे में जानता है। परमेश्वर के वचनों के अपने अनुभव के द्वारा, मनुष्य आत्मा के कार्य के सिद्धांतों को समझता है और स्वयं व्यावहारिक परमेश्वर के बारे में जानता है। वास्तविकता में, जब परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण बनाता और लाभ प्रदान करता है, तो वह उन्हें व्यावहारिक परमेश्वर के कामों के बारे में बता रहा होता है। वह व्यावहारिक परमेश्वर के कार्य का उपयोग लोगों को देह धारण का महत्व दिखाने और यह दिखाने के लिए कर रहा होता है कि परमेश्वर का आत्मा मनुष्य के सामने वास्तव में प्रकट हुआ है। जब लोग परमेश्वर के द्वारा लाभ प्राप्त करते हैं और उसके द्वारा पूर्ण बनाए जाते हैं, व्यावहारिक परमेश्वर का प्रकटीकरण उन्हें जीत लेता है, व्यावहारिक परमेश्वर के वचन उन्हें बदल देते हैं, और उनके भीतर अपना जीवन डाल देते हैं, उन लोगों को उस चीज से भर देते हैं जो वह है (चाहे वह उनकी मानवीयता का अस्तित्व हो या उसकी ईश्वरीयता का), उन लोगों को अपने वचनों के तत्व से भर देता है, और लोगों को उसके वचन के अनुसार जीने देता है। जब परमेश्वर लोगों को लाभ प्रदान करता है, वह ऐसा मुख्य रूप से व्यावहारिक परमेश्वर के वचनों और वाणियों का उपयोग करके करता है ताकि लोगों की कमियों से निपट सकें, और उनके विद्रोही स्वभाव को पहचान सके और उन्हें प्रकट कर सकें, इस प्रकार उन्हें वह चीजें प्रदान करता है जिनकी उन्हें जरूरत है, और उन्हें दिखाता है कि परमेश्वर उनके बीच आया है। सबसे महत्वपूर्ण बात, व्यावहारिक परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला कार्य प्रत्येक मनुष्य को शैतान के प्रभाव से बचाना है, उन्हें गंदगी वाली जगह से दूर ले जाना है, और मनुष्य को उनके भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा दिलाना है। व्यावहारिक परमेश्वर के द्वारा लाभ हासिल किये जाने का सबसे गहरा महत्व यह है कि इस योग्य बने कि उन्हें एक आदर्श, एक नमूने के जैसे माने, और एक सामान्य मानवीयता को जीए, और इस योग्य बने कि व्यावहारिक परमेश्वर के वचनों और मांगों को बिना किसी विचलन या उल्लंघन के क्रिया में लागू कर सके, ऐसे कि वे जो कुछ भी कहें तुम उसे अभ्यास में लाओ, और तुम इस योग्य होते हो कि जो कुछ भी वह कहता है तुम उसे प्राप्त कर सको। फिर तुम परमेश्वर के द्वारा लाभ हासिल कर चुके होगे।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "तुम्हें पता होना चाहिए कि व्यावहारिक परमेश्वर ही स्वयं परमेश्वर है" से
परमेश्वर के वचनों की तुम्हारी समझ जितनी अधिक विशाल होगी और जितना अधिक तुम उन्हें अभ्यास में लाते हो, उतनी ही जल्दी तुम परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाए जाने के पथ में प्रवेश कर सकते हो। प्रार्थना के द्वारा, तुम्हें प्रार्थनाओं के मध्य पूर्ण बनाया जा सकता है; परमेश्वर के वचनों को खाने एवं पीने के द्वारा, परमेश्वर के वचनों के तत्व को समझने के द्वारा, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को जीने के द्वारा, तुम्हें पूर्ण बनाया जा सकता है; दैनिक आधार पर परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने के द्वारा, तू यह जान पाता है कि तुझमें किस बात की कमी है, और, इसके अतिरिक्त, तू अपनी दुखती रग एवं कमज़ोरियों को जान पाता है, और तू परमेश्वर को प्रार्थना अर्पित करता है, जिसके जरिए तुम्हें धीरे धीरे पूर्ण बनाया जाएगा। पूर्ण किए जाने के रास्तेः प्रार्थना करना, परमेश्वर के वचनों को खाना एवं पीना, परमेश्वर के वचनों के तत्वों को समझना, परमेश्वर के वचनों के अनुभव में प्रवेश करना, तुझमें जिस बात की कमी है उसे जानना, परमेश्वर के कार्य का पालन करना, परमेश्वर के बोझ के प्रति सचेत रहना एवं अपने प्रेममय हृदय के द्वारा देह का त्याग करना, और अपने भाईयों एवं बहनों के साथ निरन्तर सहभागिता करना, जो तेरे अनुभवों को समृद्ध करता है। चाहे यह सामुदायिक जीवन हो या तेरा व्यक्तिगत जीवन, और चाहे यह बड़ी सभाएँ हों या छोटी हों, सभी तुम्हें अनुभव एवं प्रशिक्षण प्राप्त करने दे सकते हैं, ताकि तुम्हारा हृदय परमेश्वर के सामने शांति से रहे और परमेश्वर के पास वापस आ जाए। यह सब कुछ पूर्ण बनाए जाने की प्रक्रिया है। परमेश्वर के बोले गए वचनों का अनुभव करने का अर्थ परमेश्वर के वचनों का वास्तव में स्वाद ले पाना है और उन्हें तुममें जीए जाने देना है ताकि तुझमें परमेश्वर के प्रति कहीं अधिक बड़ा विश्वास एवं प्रेम हो। इस तरीके से, तू धीरे धीरे भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को निकाल देगा, तू अपने आपको अनुचित इरादों से वंचित करेगा, और सामान्य मनुष्य की समानता में जीवन बिताएगा। तेरे भीतर परमेश्वर का प्रेम जितना ज़्यादा होता है—दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के द्वारा तुम्हें जितना अधिक पूर्ण बनाया गया है—तू शैतान के द्वारा उतना ही कम भ्रष्ट किया जाता है। अपने व्यावहारिक अनुभवों के द्वारा, तू धीरे धीरे पूर्ण बनाए जाने के पथ में प्रवेश करेगा। इसलिए, यदि तू सिद्ध किए जाने की लालसा करता है, तो परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखना एवं परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना अति आवश्यक है।
   
      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर की इच्छा के प्रति सावधान रहना और पूर्णता को प्राप्त करना" से
अगर लोग जीवित प्राणी बनना चाहते हैं, और परमेश्वर के गवाह बनना चाहते हैं, और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करना होगा, उन्हें आनंदपूर्वक उसके न्याय व ताड़ना के प्रति समर्पित होना होगा, और आनंदपूर्वक परमेश्वर की काट-छांट और बर्ताव को स्वीकार करना होगा। केवल तब ही परमेश्वर द्वारा जरूरी तमाम सत्य को अपने आचरण में ला सकेंगे, और तब ही परमेश्वर के उद्धार को पा सकेंगे, और सचमुच जीवित प्राणी बन सकेंगे।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "क्या आप जाग उठे हैं?" से
     
      परमेश्वर लोगों को उनकी आज्ञाकारिता के माध्यम से, परमेश्वर के वचन को उनके द्वारा खाए, पीए एवं उसका आनन्द उठाए जाने के माध्यम से, और उनके जीवन में कष्ट एवं शुद्धिकरण के माध्यम से पूर्ण बनाता है। केवल इस तरह के विश्वास के माध्यम से ही लोगों का स्वभाव परिवर्तित हो सकता है, केवल तभी वे परमेश्वर के सच्चे ज्ञान को धारण कर सकते हैं। परमेश्वर के अनुग्रहों के बीच रह कर सन्तुष्ट न होना, सत्य के लिए सक्रियता से प्यासे होना, और सत्य की खोज करना, और परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने खोज करना—सचेतनता से परमेश्वर की आज्ञा मानने का यही अर्थ है; यह ठीक उसी प्रकार का विश्वास है जो परमेश्वर चाहता है।

      "वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर में अपने विश्वास में तुम्हें परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करना चाहिए" से

      तुझे जीवन की खोज करनी ही होगी। आज, ऐसे लोग जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे पतरस के ही समान हैं: वे ऐसे लोग हैं जो अपने स्वयं के स्वभाव में परिवर्तनों की कोशिश करते हैं, और वे परमेश्वर के लिए गवाही देने, और परमेश्वर के प्राणी के रुप में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार हैं। केवल ऐसे ही लोगों को पूर्ण बनाया जाएगा। यदि तू केवल प्रतिफलों की ओर ही देखता है, और अपने स्वयं के जीवन स्वभाव को परिवर्तित करने की कोशिश नहीं करता है, तो तेरे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—और यह एक अटल सत्य है!
"वचन देह में प्रकट होता है" से "सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" से

स्रोत


सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कथन | बचाए जाने एवं सिद्ध बनाए जाने के लिए तुम्हें परमेश्वर पर किस प्रकार विश्वास करना चाहिए?

सदोम की भ्रष्टताः मुनष्यों को क्रोधित करने वाली, परमेश्वर के कोप को भड़काने वाली

सर्वप्रथम, आओ हम पवित्र शास्त्र के अनेक अंशों को देखें जो "परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश" की व्याख्या करते हैं। (उत्पत्ति 19...