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शनिवार, 17 अगस्त 2019

सदोम की भ्रष्टताः मुनष्यों को क्रोधित करने वाली, परमेश्वर के कोप को भड़काने वाली

सर्वप्रथम, आओ हम पवित्र शास्त्र के अनेक अंशों को देखें जो "परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश" की व्याख्या करते हैं।
(उत्पत्ति 19:1-11) सांझ को वे दो दूत सदोम के पास आए और लूत सदोम के फाटक के पास बैठा था। उनको देखकर वह उनसे भेंट करने के लिए उठा और मुंह के बल झुककर दण्डवत कर कहा "हे मेरे प्रभुओं, अपने दास के घर में पधारिये और रात भर विश्राम कीजिये और अपने पांव धोइये, फिर भोर को उठकर अपने मार्ग पर जाइये।" उन्होंने कहा, "नहीं हम चौक ही में रात बिताएंगे।" पर उसने उनसे बहुत विनती करके उन्हें मनाया, इसलिए वे उसके साथ चलकर उसके घर में आए और उसने उनके लिए भोजन तैयार किया और बिना खमीर की रोटियां बनाकर उनको खिलाई; उनके सो जाने से पहले, सदोम नगर के पुरुषों ने, जवानों से लेकर बूढ़ों तक, वरन चारों ओर के सब लोगों ने आकर उस घर को घेर लिया और लूत को पुकारकर कहने लगे, "जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहां हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।" तब लूत उनके पास द्वार के बाहर गया और किवाड़ को अपने पीछे बंद करके कहा "हे मेरे भाइयों ऐसे बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियां हैं जिन्होंने अब तक पुरुष का मुंह नहीं देखा, इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊं और तुम को जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो, पर इन पुरुषों से कुछ न करो, क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।" उन्होंने कहा "हट जा!" फिर वे कहने लगे, "तू एक परदेशी होकर यहां रहने के लिये आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा है, इसलिये अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।" और वे उस पुरुष लूत को बहुत दबाने लगे और किवाड़ तोड़ने के लिये निकट आए।तब उन अतिथियों ने हाथ बढ़ाकर लूत को अपने पास घर में खींच लिया और किवाड़ को बंद कर दिया और उन्होंने क्या छोटे, क्या बड़े, सब पुरूषों को जो द्वार पर थे, अंधा कर दिया, अतः वे द्वार को टटोलते टटोलते थक गए।

(उत्पत्ति 19:24-25) "तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्ट कर दिया।"
इन अंशों से, यह देखना कठिन नहीं है कि सदोम का अधर्म और भ्रष्टता पहले से ही उस मात्रा तक पहुँच चुका था जो परमेश्वर और मुनष्यों दोनों के लिए घृणास्पद था, और इसलिए परमेश्वर की दृष्टि में नगर नाश किए जाने के लायक था। परन्तु नगर के नाश किए जाने से पहले उसके भीतर क्या हुआ था? हम इन घटनाओं से क्या सीख सकते हैं? इन घटनाओं के प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति उसके स्वभाव के विषय में हमें क्या दिखाती है? सम्पूर्ण कहानी को समझने के लिए, जो कुछ पवित्र शास्त्र में लिखा गया था आओ हम उसे सावधानीपूर्वक पढ़ें।
सदोम की भ्रष्टताः मुनष्यों को क्रोधित करने वाली, परमेश्वर के कोप को भड़काने वाली
उस रात, लूत ने परमेश्वर के दो दूतों का स्वागत किया और उनके लिए एक भोज तैयार किया। रात्रि के भोजन पश्चात्, उनके लेटने से पहले, नगर के चारों ओर से लोगों की भीड़ ने लूत के घर को घेर लिया और लूत को बाहर बुलाने लगे। पवित्र शास्त्र उन्हें दर्ज करता है यह कहते हुए, "जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहां हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।" इन शब्दों को किसने कहा था? इन्हें किन से कहा गया था? ये सदोम के लोगों के शब्द थे, जो लूत के घर के बाहर चिल्लाते थे और ये लूत के लिए थे। इन शब्दों को सुनकर कैसा महसूस होता है? क्या तुम क्रोधित हो? क्या इन शब्दों से तुम्हें घिन आती है? क्या तुम क्रोध के मारे आगबबूला हो रहे हो? क्या ये शब्द शैतान की तीखी दुर्गन्ध नहीं है? उनके जरिए, क्या तुम इस नगर की बुराई और अन्धकार का एहसास कर सकते हो? क्या तुम उनके शब्दों के जरिए इन लोगों के व्यवहार की क्रूरता और असभ्यता का एहसास कर सकते हो? क्या तुम उनके आचरण के जरिए उनकी भ्रष्टता की गहराई का एहसास कर सकते हो? उनकी बोली की विषयवस्तु के जरिए, यह देखना कठिन नहीं है कि उनकी बुरी प्रवृत्ति और हिंसक स्वभाव एक ऐसे स्तर तक पहुँच गया था जो उनके खुद के नियन्त्रण से परे था। लूत को छोड़कर, नगर का हर अंतिम व्यक्ति शैतान से अलग नहीं था; अन्य व्यक्तियों की मात्र झलक से ही ये लोग उन्हें नुकसान पहुंचना और निगल जाना चाहते थे…. ये चीज़ें न केवल एक व्यक्ति को नगर के भयंकर और डरावने स्वभाव, साथ ही साथ इस के चारों ओर मौत के घेरे का एहसास कराती हैं; बल्कि वे एक व्यक्ति को उसकी बुराई एवं खूनी प्रवृत्ति का भी एहसास कराती हैं।

जब उसने स्वयं को अमानवीय ठगों के गिरोह के आमने-सामने पाया, ऐसे लोग जो प्राणों को निगल जाने की लालसा से भरे हुए थे, तो लूत ने कैसा प्रत्युत्तर दिया था? पवित्र शास्त्र के अनुसार: "हे भाइयों ऐसी बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियां है जिन्होंने अब तक पुरुष का मुंह नहीं देखा, इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊं और तुमको जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो, पर इन पुरुषों से कुछ न करो, क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।" लूत के शब्दों का अभिप्राय निम्नलिखित था: वह दूतों को बचाने के लिए अपनी दो बेटियों को त्यागने के लिए तैयार हो गया था। इस कारण से, इन लोगों को लूत की शर्तों से सहमत हो जाना चाहिए था और दोनों दूतों को अकेला छोड़ देना चाहिए था; बहरहाल, वे दूत उनके लिए पूरी तरह से अजनबी थे, ऐसे लोग जिनका उनके साथ कोई लेना देना नहीं था; इन दोनों दूतों ने उनके हितों को कभी भी नुकसान नहीं पहुंचाया था। फिर भी, अपनी बुरी प्रवृत्ति से प्रेरित होकर, उन्होंने उस मुद्दे को यहाँ पर नहीं छोड़ा। उसके बजाए, उन्होंने केवल अपने प्रयासों को और अधिक तेज कर दिया। यहां उनकी एक और अदला-बदली बिना किसी सन्देह के एक व्यक्ति को इन लोगों के असली पापपूर्ण स्वभाव की और अधिक अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकती है; उसी समय यह किसी व्यक्ति को उस कारण को जानने और बूझने की अनुमति भी देती है कि क्यों परमेश्वर इस नगर को नाश करना चाहता था।
अत: उन्होंने आगे क्या कहा? जैसा बाइबल में पढ़ते है: "हट जा!" फिर वे कहने लगे, "तू एक परदेशी होकर यहां रहने के लिए आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा, इसलिए अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।" और वे उस पुरुष को बहुत दबाने लगे और किवाड़ तोड़ने के लिए निकट आए। वे किवाड़ को क्यों तोड़ना चाहते थे? वजह यह है कि वे उन दोनों दूतों को नुकसान पहुँचाने के लिए बहुत उत्सुक थे। वे दोनों दूत सदोम में क्या कर रहे थे? वहां आने का उनका उद्देश्य था लूत एवं उसके परिवार को बचाना; फिर भी, नगर के लोगों ने ग़लत रीति से सोचा कि वे आधिकारिक पदों पर हक़ जमाने के लिए आए थे। उनके उदेश्य को पूछे बिना, यह मात्र अनुमान ही था जिससे नगरवासियों ने असभ्यता से उन दोनों दूतों को नुकसान पहुंचाना चाहा; वे ऐसे दो जनों को चोट पहुंचाना चाहते थे जिनका उनके साथ किसी भी प्रकार का लेना देना नहीं था। यह स्पष्ट है कि नगर के लोगों ने पूरी तरह से अपनी मानवता और तर्कशक्ति को गंवा दिया था। उनके पागलपन और असभ्यता का स्तर पहले से ही मनुष्यों को नुकसान पहुँचाने वाले और निगल जानेवाले शैतान के दुष्ट स्वभाव से अलग नहीं था।
जब उन्होंने लूत से इन लोगों को मांगा, तब लूत ने क्या किया? पाठ से हमें ज्ञात होता है कि लूत ने उन्हें नहीं सौंपा। क्या लूत परमेश्वर के इन दोनों दूतों को जानता था? बिलकुल भी नहीं! परन्तु वह इन दोनों लोगों को बचाने में समर्थ क्यों था? क्या उसे मालूम था कि वे क्या करने आए थे? यद्यपि वह उनके आने के कारण से अनजान था, फिर भी वह जानता था कि वे परमेश्वर के सेवक हैं, और इस प्रकार उसने उनका स्वागत किया। सदोम के भीतर के अन्य लोगों से अलग, वह परमेश्वर के इन दासों को स्वामी कहकर बुला सकता था जो यह दिखाता है कि लूत आम तौर पर परमेश्वर का एक अनुयायी था। इसलिए, जब परमेश्वर के दूत उसके पास आए, तो इन दोनों सेवकों का स्वागत करने के लिए उसने अपने स्वयं के जीवन को जोखिम में डाल दिया था, उससे बढ़कर, इन दोनों सेवकों की सुरक्षा करने के लिए उसने अपनी बेटियों की अदला-बदली भी की थी। यह लूत का धर्मी कार्य है; साथ ही यह लूत के स्वभाव और उसकी हस्ती का एक स्पृश्य प्रकटीकरण है, और साथ ही यह वह कारण भी है कि परमेश्वर ने लूत को बचाने के लिए अपने सेवकों को भेजा था। जोखिम का सामना करते समय, लूत ने किसी भी चीज़ की परवाह किए बगैर इन दोनों सेवकों की सुरक्षा की; यहाँ तक कि उसने सेवकों की सुरक्षा के बदले में अपनी दोनों बेटियों का सौदा करने का भी प्रयास किया था। लूत के अतिरिक्त, क्या नगर के भीतर कोई ऐसा था जो कुछ इस तरह का काम कर सकता था? जैसे कि तथ्य साबित करते हैं – नहीं ! इसलिए, कहने की आवश्यकता नहीं है कि लूत को छोड़कर सदोम के भीतर हर कोई विनाश का एक लक्ष्य था साथ ही साथ एक ऐसे लक्ष्य के समान था जो विनाश के योग्य था।
                                                                      "वचन देह में प्रकट होता है" से
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शनिवार, 10 अगस्त 2019

परमेश्वर सदोम को नष्ट कर देते हैं

(उत्पत्ति 18:26) यहोवा ने कहा, "यदि मुझे सदोम में पचास धर्मी मिलें, तो उनके कारण उस सारे स्थान को छोड़ूँगा।"
(उत्पत्ति 18:29) फिर उसने उससे दोबारा यह कहा, कदाचित् वहाँ चालीस मिलें। और उसने कहा, मैं ऐसा न करूँगा।
(उत्पत्ति 18:30) फिर उसने उससे कहा, कदाचित् वहाँ तीस मिलें। और उसने कहा, मैं ऐसा न करूँगा।
(उत्पत्ति 18:31) और उसने कहा, कदाचित् वहाँ बीस मिलें। और उसने कहा, मैं उसका नाश न करूँगा।
(उत्पत्ति 18:32) और उसने कहा, कदाचित् वहाँ दस मिलें। और उसने कहा, मैं उसका नाश न करूँगा।
ये कुछ उद्धरण हैं जिन्हें मैंने बाइबल से चुना है। वे सम्पूर्ण, एवं मूल अनुवाद नहीं हैं। यदि तुम लोग उन्हें देखना चाहते हो, तो तुम लोग स्वयं ही उन्हें बाइबल में देख सकते हो; समय बचाने के लिए, मैंने मूल विषय-वस्तु के एक भाग को हटा दिया है। मैंने यहाँ पर केवल कुछ मुख्य अंशों और वाक्यों का चयन किया है, और कई वाक्यों को हटा दिया है जिनका आज हमारी सहभागिता से कोई सम्बन्ध नहीं है। सभी अंश एवं विषय-वस्तु जिन के विषय में हम सहभागिता करते हैं, हमारा ध्यान कहानियों के विवरणों के ऊपर से और इन कहानियों में मनुष्य के आचरण के ऊपर से हट जाता है; उसके बजाए, हम केवल परमेश्वर के विचारों एवं युक्तियों के विषय में बात करते हैं जो उस समय थे। परमेश्वर के विचारों एवं युक्तियों में, हम परमेश्वर के स्वभाव को देखेंगे, और सभी चीज़ों से जो परमेश्वर ने किया था, हम सच्चे स्वयं परमेश्वर को देखेंगे—और इस में हम अपने उद्देश्य को हासिल करेंगे।
परमेश्वर केवल ऐसे लोगों के विषय में ही चिंता करता है जो उसके वचनों को मानने और उसकी आज्ञाओं का पालन करने के योग्य हैं।

ऊपर दिए गए अंशों में कई मुख्य शब्द समाविष्ट हैं: संख्या। पहला, यहोवा ने कहा कि यदि उसे नगर में पचास धर्मी मिलें, तो वह उस सारे स्थान को छोड़ देगा, दूसरे शब्दों में, वह नगर का नाश नहीं करेगा। अतः क्या वहाँ सदोम के भीतर वास्तव में पचास धर्मी थे? वहाँ नहीं थे। इसके तुरन्त बाद, अब्राहम ने परमेश्वर से क्या कहा? उसने कहा, कदाचित् वहाँ चालीस मिलें। परमेश्वर ने कहा, मैं नाश नहीं करूंगा। इसके आगे, अब्राहम ने कहा, यदि वहाँ तीस मिलें? परमेश्वर ने कहा, मैं नाश नहीं करूंगा। यदि वहाँ बीस मिलें? मैं नाश नहीं करूंगा। दस? मैं नाश नहीं करूंगा। क्या वहाँ नगर के भीतर वास्तव में दस धर्मी थे? वहाँ पर दस नहीं थे—केवल एक ही था। और वह कौन था? वह लूत था। उस समय, सदोम में मात्र एक ही धर्मी व्यक्ति था, परन्तु क्या परमेश्वर बहुत कठोर था या बलपूर्वक मांग कर रहा था जब बात इस संख्या तक पहुंच गयी? नहीं, वह कठोर नहीं था। और इस प्रकार, जब मनुष्य लगातार पूछता रहा, "चालीस हों तो क्या?" "तीस हों तो क्या?" जब वह "दस हों तो क्या" तक नहीं पहुंच गया? परमेश्वर ने कहा, "यदि वहाँ पर मात्र दस भी होंगे तो मैं उस नगर को नाश नहीं करूंगा; मैं उसे बचा रखूंगा, और इन दस के कारण सभी को माफ कर दूंगा।" दस की संख्या काफी दयनीय होती, परन्तु ऐसा हुआ कि, सदोम में वास्तव में उतनी संख्या में भी धर्मी लोग नहीं थे। तो तू देख, कि परमेश्वर की नज़रों में, नगर के लोगों का पाप एवं दुष्टता ऐसी थी कि परमेश्वर के पास उसे नष्ट करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। परमेश्वर का क्या अभिप्राय था जब उसने कहा कि वह उस नगर को नष्ट नहीं करेगा यदि उस में पचास धर्मी मिलें? परमेश्वर के लिए ये संख्याएं महत्वपूर्ण नहीं थीं। जो महत्वपूर्ण था वह यह कि उस नगर में ऐसे धर्मी हैं या नहीं जिन्हें वह चाहता था। यदि उस नगर में मात्र एक धर्मी मनुष्य होता, तो परमेश्वर उस नगर के विनाश के कारण उनकी हानि की अनुमति नहीं देता। इसका अर्थ यह है कि, इसके बावजूद कि परमेश्वर उस नगर को नष्ट करने वाला था या नहीं, और इसके बावजूद कि उसके भीतर कितने धर्मी थे या नहीं, परमेश्वर के लिए यह पापी नगर श्रापित एवं घिनौना था, और इसे नष्ट किया जाना चाहिए, इसे परमेश्वर की दृष्टि से ओझल हो जाना चाहिए, जबकि धर्मी लोगों को बने रहना चाहिए। युग के बावजूद, मानवजाति के विकास की अवस्था के बावजूद, परमेश्वर की मनोवृत्ति नहीं बदलती है: वह बुराई से घृणा करता है, और अपनी नज़रों में धर्मी की परवाह करता है। परमेश्वर की यह स्पष्ट मनोवृत्ति ही परमेश्वर की हस्ती (मूल-तत्व) का सच्चा प्रकाशन है। क्योंकि वहाँ उस नगर के भीतर केवल एक ही धर्मी व्यक्ति था, इसलिए परमेश्वर और नहीं हिचकिचाया। अंत का परिणाम यह था कि सदोम को आवश्यक रूप से नष्ट किया जाएगा। इस में तुम लोग क्या देखते हो? उस युग में, परमेश्वर ने उस नगर को नष्ट नहीं किया होता यदि उसके भीतर पचास धर्मी होते, और तब भी नष्ट नहीं करता यदि दस धर्मी भी होते, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर ने मानवजाति को क्षमा करने और उसके प्रति सहनशील होने का निर्णय लिया होता, या कुछ लोगों के कारण मार्गदर्शन देने का कार्य किया होता जो उसका आदर करने और उसकी आराधना करने के योग्य होते। परमेश्वर मनुष्य की धार्मिकता में बड़ा विश्वास करता है, ऐसे लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसकी आराधना करने के योग्य हैं, और वह ऐसे लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसके सामने भले कार्यों को करने के योग्य हैं।
परमेश्वर उन लोगों के प्रति अत्यंत दयालु है जिनकी वह परवाह करता है, और उन लोगों के प्रति अत्याधिक क्रोधित है जिनसे वह घृणा करताएवं अस्वीकार करता है
बाइबल के लेखों में, क्या सदोम में परमेश्वर के दस सेवक थे? नहीं, वहाँ नहीं थे! क्या वह नगर परमेश्वर के द्वारा बचाए जाने के योग्य था? उस नगर में केवल एक व्यक्ति—लूत—ने परमेश्वर के संदेशवाहकों को ग्रहण किया था। इसका आशय यह है कि उस नगर में केवल एक ही परमेश्वर का दास था, और इस प्रकार परमेश्वर के पास लूत को बचाने और सदोम के नगर को नष्ट करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं था। हो सकता है कि अब्राहम और परमेश्वर के बीच का संवाद साधारण दिखाई दे, परन्तु वे कुछ ऐसी बात को प्रदर्शित करते हैं जो बहुत ही गम्भीर हैं: परमेश्वर के कार्यों के कुछ सिद्धान्त होते हैं, और किसी निर्णय को लेने से पहले वह अवलोकन एवं चिंतन करते हुए लम्बा समय बिताएगा; इससे पहले कि सही समय आए, वह निश्चित तौर पर कोई निर्णय नहीं लेगा या एकदम से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेगा। परमेश्वर एवं अब्राहम के बीच का संवाद हमें यह दिखाता है कि सदोम को नाश करने का परमेश्वर का निर्णय जरा सा भी ग़लत नहीं था, क्योंकि परमेश्वर पहले से ही जानता था कि उस नगर में चालीस धर्मी नहीं थे, न ही तीस धर्मी थे, या न ही बीस धर्मी थे। वहाँ पर तो दस धर्मी भी नहीं थे। उस नगर में एकमात्र धर्मी व्यक्ति लूत था। वह सब जो सदोम में हुआ था और उसकी परिस्थितियों का परमेश्वर के द्वारा अवलोकन किया गया था, और वे परमेश्वर के लिए उसके हाथ के समान ही चिरपरिचित थे। इस प्रकार, उसका निर्णय ग़लत नहीं हो सकता था। इसके विपरीत, परमेश्वर की सर्वसामर्थता की तुलना में, मनुष्य कितना सुन्न, कितना मूर्ख एवं अज्ञानी, और कितना निकट-दर्शी है। यह वही बात है जिसे हम परमेश्वर एवं अब्राहम के बीच संवादों में देखते हैं। परमेश्वर आरम्भ से लेकर आज के दिन तक अपने स्वभाव को प्रकट करता रहा है। उसी प्रकार यहाँ पर भी परमेश्वर का स्वभाव है जिसे हमें देखना चाहिए। संख्याएँ सरल हैं, और किसी भी चीज़ को प्रदर्शित नहीं करती हैं, परन्तु यहाँ पर परमेश्वर के स्वभाव का अति महत्वपूर्ण प्रकटीकरण है। परमेश्वर पचास धर्मियों के कारण नगर को नाश नहीं करेगा। क्या यह परमेश्वर की दया के कारण है? क्या यह उसके प्रेम एवं सहिष्णुता के कारण है? क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के स्वभाव के इस पहलू को देखाहै? भले ही वहाँ केवल दस धर्मी ही होते, फिर भी परमेश्वर इन दस धर्मियों के कारण उस नगर को नष्ट नहीं करता। यह परमेश्वर की सहनशीलता एवं प्रेम है या नहीं? उन धर्मी लोगों के प्रति परमेश्वर की दया, सहिष्णुता और चिंता के कारण, उसने उस नगर को नष्ट नहीं किया होता। यह परमेश्वर की सहनशीलता है। और अंत में, हम क्या परिणाम देखते हैं? जब अब्राहम ने कहा, "कदाचित् वहाँ दस मिलें," परमेश्वर ने कहा, "मैं उसका नाश न करूँगा।" इसके बाद, अब्राहम ने और कुछ नहीं कहा—क्योंकि सदोम के भीतर ऐसे दस धर्मी नहीं थे जिनकी ओर उसने संकेत किया था, और उसके पास कहने के लिए कुछ भी नहीं था, और उस समय उसने जाना कि परमेश्वर ने क्यों सदोम को नष्ट करने के लिए दृढ़ निश्चय किया था। इस में, तुम लोग परमेश्वर के किस स्वभाव को देखते हो? परमेश्वर ने किस प्रकार का दृढ़ निश्चय किया था? अर्थात्, यदि उस नगर में दस धर्मी नहीं होते, तो परमेश्वर उसके अस्तित्व की अनुमति नहीं देता, और वह अनिवार्य रूप से उसे नष्ट कर देता। क्या यह परमेश्वर का क्रोध नहीं है? क्या यह क्रोध परमेश्वर के स्वभाव को दर्शाता है? क्या यह स्वभाव परमेश्वर की पवित्र हस्ती (मूल-तत्व) का प्रकाशन है? क्या यह परमेश्वर के धर्मी सार का प्रकाशन है, जिसका अपमान मनुष्य को नहीं करना चाहिए? इस बात की पुष्टि के बाद कि सदोम में दस धर्मी भी नहीं थे, परमेश्वर निश्चित था कि नगर का नाश कर दे, और परमेश्वर उस नगर के भीतर के लोगों को कठोरता से दण्ड देगा, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर का विरोध किया था, और वे बहुत ही गन्दे एवं भ्रष्ट थे।
हमने क्यों इन अंशों का इस रीति से विश्लेषण किया है? क्योंकि ये कुछ साधारण वाक्य अत्यंत दया एवं अत्याधिक क्रोध के विषय में परमेश्वर के स्वभाव की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। ठीक उसी समय धर्मियों को सहेजकर रखते हुए, उन पर दया करते हुए, उनको सहते हुए, और उनकी देखभाल करते हुए, परमेश्वर के हृदय में सदोम के सभी लोगों के लिए अत्यंत घृणा थी जो भ्रष्ट हो चुके थे। क्या यह अत्यंत दया एवं अत्याधिक क्रोध था, या नहीं? परमेश्वर ने किस तरह से उस नगर को नष्ट किया था? आग से। और उसने आग का इस्तेमाल करके उसे क्यों नष्ट किया था? जब तू किसी चीज़ को आग के द्वारा जलते हुए देखता है, या जब तू किसी चीज़ को जलाने वाला होता है, तो उसके प्रति तेरी भावनाएं क्या होती हैं? तू इसे क्यों जलाना चाहता है? क्या तू महसूस करता है कि अब तुझे इसकी आवश्यकता नहीं है, यह कि तू इसे अब और नहीं देखना चाहता है? क्या तू इसका परित्याग करना चाहता है? परमेश्वर के द्वारा आग का इस्तेमाल करने का अर्थ है परित्याग, एवं घृणा, और यह कि वह सदोम को अब और देखना नहीं चाहता था। यह वह भावना थी जिसने परमेश्वर से आग द्वारा सदोम का सम्पूर्ण विनाश करवाया। आग का इस्तेमाल दर्शाता है कि परमेश्वर कितना क्रोधित था। परमेश्वर की दया एवं सहनशीलता वास्तव में मौजूद है, किन्तु जब वह अपने क्रोध को तीव्रता से प्रवाहित करता है तो परमेश्वर की पवित्रता एवं धार्मिकता मनुष्य को परमेश्वर का वह पहलु भी दिखाती है जो किसी गुनाह की अनुमति नहीं देता है। जब मनुष्य परमेश्वर की आज्ञाओं को पूरी तरह से मानने में समर्थ होता है और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करता है, तो परमेश्वर मनुष्य के प्रति अपनी दया से भरपूर होता है; जब मनुष्य भ्रष्टता, घृणा एवं उसके प्रति शत्रुता से भर जाता है, तो परमेश्वर बहुत अधिक क्रोधित होता है। और वह किस हद तक अत्यंत क्रोधित होता है? उसका क्रोध तब तक बना रहता है जब तक वह मनुष्य के प्रतिरोध एवं बुरे कार्यों को फिर कभी नहीं देखता है, जब तक वे उसकी नज़रों के सामने से दूर नहीं हो जाते हैं। केवल तभी परमेश्वर का क्रोध दूर होगा। दूसरे शब्दों में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह व्यक्ति कौन है, यदि उनका हृदय परमेश्वर से दूर हो गया है, और परमेश्वर से फिर गया है, कभी वापस नहीं लौटने के लिए, तो इसके बावजूद कि, सभी संभावनाओं या अपनी आत्मनिष्ठ इच्छाओं के अर्थ में वे किस प्रकार अपने शरीर में या अपनी सोच में परमेश्वर की आराधना करने, उसका अनुसरण करने और उसकी आज्ञा मानने की इच्छा करते हैं, जैसे ही उनका हृदय परमेश्वर से दूर हो जाता है, परमेश्वर के क्रोध को बिना रूके तीव्रता से प्रवाहित किया जाएगा। यह कुछ ऐसा होगा कि मनुष्य को पर्याप्त अवसर देने के बाद, जब परमेश्वर अपने क्रोध को प्रचंडता से प्रवाहित करता है, जब एक बार उसके क्रोध को तीव्रता से प्रवाहित किया जाता है तो उसके बाद इसे वापस लेने का कोई मार्ग नहीं होगा, और वह ऐसे मनुष्य के प्रति फिर कभी दयावान एवं सहनशील नहीं होगा। यह परमेश्वर के स्वभाव का ऐसा पहलु है जो किसी गुनाह को बर्दाश्त नहीं करता है। यहाँ, यह लोगों को सामान्य प्रतीत होता है कि परमेश्वर एक नगर को नष्ट करेगा, क्योंकि, परमेश्वर की दृष्टि में, वह नगर जो पाप से भरा हुआ था अस्तित्व में नहीं रह सकता था और निरन्तर बना नहीं रह सकता था, और यह न्यायसंगत था कि इसे परमेश्वर के द्वारा नष्ट किया जाना चाहिए। फिर भी उन बातों में जो परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश के पहले और उसके बाद घटित हुए थे, हम परमेश्वर के स्वभाव की सम्पूर्णता को देखते हैं। वह उन चीज़ों के प्रति सहनशील एवं दयालु है जो उदार, और खूबसूरत, और भली हैं; ऐसी चीज़ें जो बुरी, और पापमय, और दुष्ट हैं, वह उनके प्रति अत्याधिक क्रोधित होता है, कुछ इस तरह कि वह लगातार क्रोध करता है। ये परमेश्वर के स्वभाव के दो सिद्धान्त एवं अति महत्वपूर्ण पहलु हैं, और, इसके अतिरिक्त, उन्हें प्रारम्भ से लेकर अंत तक परमेश्वर के द्वारा प्रकट किया गया है: भरपूर दया एवं अत्यंत क्रोध। तुम लोगों में से अधिकतर लोगों ने परमेश्वर की दया का अनुभव किया है, किन्तु तुम में से बहुत कम लोगों ने परमेश्वर के क्रोध की सराहना की होगी। परमेश्वर की दया एवं करूणा को प्रत्येक व्यक्ति में देखा जा सकता है; अर्थात्, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के प्रति बहुत अधिक दयालु रहा है। फिर भी कभी कभार—या, ऐसा कहा जा सकता है, कभी नहीं—परमेश्वर ने किसी भी व्यक्ति के प्रति या आज तुम लोगों के बीच के किसी भी समूह के प्रति अत्याधिक क्रोध किया है। शान्त हो जाओ! जल्द ही या बाद में, प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा परमेश्वर के क्रोध को देखा और अनुभव किया जाएगा, किन्तु अभी वह समय नहीं आया है। और ऐसा क्यों है? क्योंकि जब परमेश्वर किसी के प्रति लगातार क्रोधित होता है, अर्थात्, जब वह अपने अत्यंत क्रोध को उन पर तीव्रता से प्रवाहित करता है, तो इसका अर्थ है कि उसने काफी समय से उससे घृणा की है और उसे अस्वीकार किया है, यह कि उसने उनके अस्तित्व को तुच्छ जाना है, और यह कि वह उनकी मौजूदगी को सहन नहीं कर सकता है; जैसे ही उसका क्रोध उनके ऊपर आएगा, वे लुप्त हो जाएंगे। आज, परमेश्वर का कार्य अभी तक उस मुकाम पर नहीं पहुंचा है। परमेश्वर के बहुत अधिक क्रोधित हो जाने पर तुम लोगों में से कोई भी उसके सामने खड़े होने के योग्य नहीं होगा। तो तुम लोग देखते हो कि इस समय परमेश्वर तुम सभी के प्रति अत्याधिक दयालु है, और तुम लोगों ने अभी तक उसका अत्यंत क्रोध नहीं देखा है। यदि ऐसे लोग हैं जो अविश्वास की दशा में बने रहते हैं, तो तुम लोग याचना कर सकते हो कि परमेश्वर का क्रोध तुम लोगों के ऊपर आ जाए, ताकि तुम लोग अनुभव कर सको कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का क्रोध और उसका अनुल्लंघनीय स्वभाव वास्तव में अस्तित्व में है या नहीं। क्या तुम लोग ऐसी हिम्मत कर सकते हो?
"वचन देह में प्रकट होता है" से

सोमवार, 5 अगस्त 2019

अब्राम को परमेश्वर का आशीष

(उत्पत्ति 22:16-18) "यहोवा की यह वाणी है, कि मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ कि तू ने जो यह काम किया है कि अपने पुत्र, वरन् अपने एकलौते पुत्र को भी नहीं रख छोड़ा; इस कारण मैं निश्‍चय तुझे आशीष दूँगा; और निश्‍चय तेरे वंश को आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान अनगिनित करूँगा, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा; और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगी: क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।"
यह परमेश्वर के द्वारा अब्राहम को दी हुई आशीषों का बिना कांट-छांट किया हुआ लेख है। यह हालाँकि संक्षेप में है, फिर भी इसकी विषय-वस्तु समृद्ध हैः यह परमेश्वर के द्वारा अब्राहम को दी हुई भेंट के कारण को और उसकी पृष्ठभूमि को, और वह क्या था जो उसने अब्राहम को दिया था उसे सम्मिलित करता है। यह आनन्द एवं उत्साह से तर-बतर है जिसके तहत परमेश्वर ने इन वचनों को कहा, साथ ही साथ यह उन लोगों को हासिल करने के लिए उसकी लालसा की शीघ्रता से भी तर-बतर है जो उसके वचनों को ध्यान से सुनने के योग्य हैं। इस में, हम उन लोगों के प्रति परमेश्वर के लालन पालन एवं कोमलता देखते हैं जो उसके वचनों का पालन करते हैं और उसकी आज्ञाओं का अनुसरण करते हैं। और साथ ही हम उस कीमत को भी देखते हैं जिसे उसने लोगों को हासिल करने के लिए चुकाया है, और उस देखभाल एवं विचार को देखते हैं जो उसने इन लोगों को हासिल करने में लगाया है। इसके अतिरिक्त, वह अंश, जिसमें ये वचन "मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ," है यह हमें परमेश्वर, और सिर्फ परमेश्वर के द्वारा सहे गए उस कड़वाहट एवं दर्द का, और पर्दों के पीछे उसकी प्रबन्धकीय योजना का सामर्थी एहसास कराती है। यह विचारों को उद्वेलित करने वाला एक अंश है, और एक ऐसा अंश है जो उनके लिए विशेष महत्व रखता है, और उन पर दूरगामी प्रभाव डालता है जो बाद में आए थे।
मनुष्य अपनी ईमानदारी और आज्ञाकारिता की वजह से परमेश्वर की आशीषों प्राप्त करता है

क्या परमेश्वर के द्वारा अब्राहम को दी गई आशीष महान थी जिसके विषय में हम यहाँ पढ़ते हैं? यह कितनी महान थी? यहाँ पर एक मुख्य वाक्य हैः "और पृथ्वी की सारी जातियाँ तेरे वंश के कारण अपने को धन्य मानेंगी," जो यह दिखाता है कि अब्राहम ने ऐसी आशीषों को प्राप्त किया था जिन्हें किसी और को नहीं दिया गया जो पहले आए थे या बाद में। चूँकि परमेश्वर के द्वारा माँगा गया था, इसलिए जब अब्राहम ने अपने पुत्र—अपने एकलौते प्रिय पुत्र—को परमेश्वर को लौटा दिया (टिप्पणी: यहाँ पर हम "बलिदान" शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते हैं; हमें यह कहना चाहिए कि उसने अपने पुत्र को परमेश्वर को वापस किया), तब परमेश्वर ने न केवल अब्राहम को इसहाक का बलिदान करने की अनुमति नहीं दी, बल्कि उसने उसे आशीषित भी किया। उसने अब्राहम को किस प्रतिज्ञा से आशीषित किया था? उसके वंश को बहुगुणित करने की प्रतिज्ञा से आशीषित किया था। और उन्हें कितनी मात्रा में बहुगुणित करने की प्रतिज्ञा की गई थी? बाइबल हमें निम्नलिखित लेख प्रदान करती है: "आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा: और पृथ्वी की सारी जातियाँ तेरे वंश के कारण अपने को धन्य मानेंगी।" वह सन्दर्भ क्या था जिसके अंतर्गत परमेश्वर ने इन वचनों को कहा था? कहने का तात्पर्य है, अब्राहम ने परमेश्वर की आशीषों को कैसे प्राप्त किया था? उसने उन्हें प्राप्त किया ठीक वैसे ही जैसे परमेश्वर पवित्र शास्त्र में कहता है: "क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।" अर्थात्, क्योंकि अब्राहम ने परमेश्वर की आज्ञा का अनुसरण किया था, क्योंकि उसने वह सब कुछ किया जो परमेश्वर ने कहा, मांगा और आदेश दिया था, जरा सी भी शिकायत के बगैर इस लिए परमेश्वर ने उस से ऐसी प्रतिज्ञा की थी। इस प्रतिज्ञा में एक बहुत ही महत्वपूर्ण वाक्य है जो उस समय परमेश्वर के विचारों को स्पर्श करता है। क्या तुम लोगों ने इसे देखा है? शायद तुम लोगों ने परमेश्वर के इन वचनों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया है कि "मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ।" उनका मतलब है कि, जब परमेश्वर ने इन वचनों को कहा, तब वह अपनी ही शपथ खा रहा था। जब लोग कसम खाते हैं तो वे किसकी शपथ खाते हैं? वे स्वर्ग की शपथ खाते हैं, कहने का अभिप्राय है, वे ख़ुदा के लिए कसम खाते हैं और परमेश्वर की शपथ खाते हैं। हो सकता है कि लोगों के पास उस घटना की ज़्यादा समझ नहीं है जिसके द्वारा परमेश्वर ने अपनी ही शपथ खाई थी, परन्तु तुम लोग इस बात को समझने के योग्य होगे जब मैं तुम लोगों को सही व्याख्या प्रदान करूंगा। ऐसे मनुष्य से सामना होने पर जो सिर्फ उसके वचनों को सुन सकता है लेकिन उसके हदय को नहीं समझ सकता है उसने एक बार फिर से परमेश्वर को अकेला और खोया हुआ महसूस कराया। निराशा में—और, ऐसा कहा जा सकता है, अवचेतन रूप से—परमेश्वर ने कुछ ऐसा किया जो बहुत ही स्वाभाविक था: परमेश्वर ने अपना हाथ अपने हृदय पर रखा और अब्राहम से स्वयं ही प्रतिज्ञा के फल के विषय में कहा, और इससे मनुष्य ने परमेश्वर को यह कहते हुए सुना "मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ।" परमेश्वर के कार्यां के माध्यम से, तू स्वयं के विषय में सोच सकता है। जब तू अपना हाथ अपने हृदय पर रखता है और स्वयं से कहता है, तो क्या तेरे पास जो कुछ तू कह रहा है उसके विषय में कोई स्पष्ट विचार होता है? क्या तेरी मनोवृत्ति सच्ची है? क्या तू सच्चाई से, और अपने हृदय से बात करता है? इस प्रकार, हम यहाँ देखते हैं कि जब परमेश्वर ने अब्राहम से कहा, तब वह सच्चा एवं ईमानदार था। उसी समय अब्राहम से बात करते और उसे आशीष देते समय, परमेश्वर स्वयं से भी बोल रहा था। वह अपने आप से कह रहा थाः मैं अब्राहम को आशीष दूंगा, और उसके वंश को आकाश के तारों के समान अनगिनित करूंगा, और समुद्र के किनारे की रेत के समान असंख्य कर दूंगा, क्योंकि उसने मेरे वचनों को माना है और यह वही है जिसे मैंने चुना है। जब परमेश्वर ने कहा "मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ," तो परमेश्वर ने दृढ़ निश्चय किया कि वह अब्राहम में इस्राएल के चुने हुए लोगों को उत्पन्न करेगा, जिसके बाद वह शीघ्रता से अपने कार्य के साथ इन लोगों की अगुवाई करेगा। अर्थात्, परमेश्वर अब्राहम के वंशजों से परमेश्वर के प्रबन्धन के कार्य का बोझ उठवाएगा, और परमेश्वर का कार्य और वह जिसे परमेश्वर के द्वारा व्यक्त किया गया था वे अब्राहम के साथ प्रारम्भ होंगे, और वे अब्राहम की सन्तानों में निरन्तर आगे बढेंगे, इस प्रकार वे मनुष्य को बचाने के लिए परमेश्वर की इच्छा को साकार करेंगे। तुम लोग क्या कहते हो, क्या यह एक आशीषित बात नहीं है? मनुष्य के लिए, इससे बड़ी और कोई आशीष नहीं है; ऐसा कहा जा सकता है कि यह अत्यंत ही आशीषित बात है। अब्राहम के द्वारा हासिल की गई आशीष उसके वंश के बहुगुणित होने के लिए नहीं थी, परन्तु अब्राहम के वंशजों में उसके प्रबंधन, उसके आदेश, और उसके कार्य की उपलब्धि के लिए थी। इसका अर्थ है कि अब्राहम के द्वारा हासिल की गई आशीषें अस्थायी नहीं थीं, परन्तु लगातार जारी रहीं जैसे परमेश्वर की प्रबंधकीय योजना बढ़ती गई। जब परमेश्वर ने कहा, और जब परमेश्वर ने अपनी ही शपथ खाई, तब उसने पहले ही एक दृढ़ निश्चय कर लिया था। क्या इस दृढ़ निश्चय की प्रक्रिया सही थी? क्या यह वास्तविक थी? परमेश्वर ने दृढ़ निश्चय किया था कि, उस समय के बाद से, उसकी कोशिशें, वह कीमत जो उसने चुकाई थी, उसका स्वरूप, उसकी हर चीज़, और यहाँ तक कि उसका जीवन भी अब्राहम को और अब्राहम के वंशजों को दे दिया जाएगा। परमेश्वर ने यह भी दृढ़ निश्चय किया कि, इस समूह के लोगों से प्रारम्भ करके, वह अपने कार्यों को प्रदर्शित करेगा, और मनुष्य को अनुमति देगा कि वह उसकी बुद्धि, अधिकार और सामर्थ को देखे।
ऐसे लोग जो परमेश्वर को जानते हैं और जो उसकी गवाही देने के योग्य हैं उन्हें हासिल करना परमेश्वर की अपरिवर्तनीय इच्छा है
जब वह स्वयं से कह रहा था ठीक उसी समय, परमेश्वर ने अब्राहम से भी कहा था, परन्तु उन आशीषों को सुनने के अलावा जिन्हें परमेश्वर ने उसे दिया था, क्या उस समय अब्राहम परमेश्वर के सभी वचनों में उसकी वास्तविक इच्छाओं को समझने में सक्षम था? वह नहीं था! और इस प्रकार, उस समय, जब परमेश्वर ने अपनी ही शपथ खाई, तब भी उसका हृदय सूना सूना और दुख से भरा हुआ था। वहाँ पर अब भी कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो यह समझने या बूझने के योग्य हो कि उसने क्या इरादा किया था एवं क्या योजना बनाई थी। उस समय, कोई भी व्यक्ति—जिसमें अब्राहम भी शामिल है—परमेश्वर से आत्मविश्वास से बात करने के योग्य नहीं था, और कोई भी उस कार्य को करने में उसके साथ सहयोग करने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं था जिसे उसे अवश्य करना था। सतही तौर पर देखें, तो परमेश्वर ने अब्राहम को हासिल किया, और ऐसे व्यक्ति को हासिल किया था जो उसके वचनों का पालन कर सकता था। परन्तु वास्तव में, परमेश्वर के विषय में इस व्यक्ति का ज्ञान बमुश्किल शून्य से अधिक था। भले ही परमेश्वर ने अब्राहम को आशीषित किया था, फिर भी परमेश्वर का हृदय अभी भी संतुष्ट नहीं था। इसका क्या अर्थ है कि परमेश्वर संतुष्ट नहीं था? इसका अर्थ है कि उसका प्रबंधन बस अभी प्रारम्भ ही हुआ था, इसका अर्थ है कि ऐसे लोग जिन्हें वह हासिल करना चाहता था, ऐसे लोग जिन्हें वह देखने की लालसा करता था, ऐसे लोग जिन्हें उसने प्रेम किया था, वे अभी भी उससे दूर थे; उसे समय की आवश्यकता थी, उसे इंतज़ार करने की आवश्यकता थी, और उसे धैर्य रखने की आवश्यकता थी। क्योंकि उस समय पर, स्वयं परमेश्वर को छोड़कर, कोई भी नहीं जानता था कि उसे किस बात की आवश्यकता थी, या उसने क्या हासिल करने की इच्छा की थी, या उसने किस बात की लालसा की थी। और इस प्रकार, ठीक उसी समय अत्याधिक उत्साहित महसूस करते हुए, परमेश्वर ने हृदय में भारी बोझ का भी एहसास किया था। फिर भी उसने अपने कदमों को नहीं रोका, और लगातार अपने उस अगले कदम की योजना बनाता रहा जिसे उसे अवश्य करना था।
अब्राहम से की गई परमेश्वर की प्रतिज्ञा में तुम लोग क्या देखते हो? परमेश्वर ने अब्राहम को महान आशीषें प्रदान की थीं सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने परमेश्वर के वचन को सुना था। हालाँकि, सतही तौर पर, यह सामान्य दिखाई देता है, और एक सहज मामला प्रतीत होता है, इस में हम परमेश्वर के हृदय को देखते हैं: परमेश्वर विशेष तौर पर मनुष्य की आज्ञाकारिता को सहेजकर रखता है, और अपने विषय में मनुष्य की समझ और अपने प्रति मनुष्य की ईमानदारी उसे अच्छी लगती है। परमेश्वर को यह ईमानदारी कितनी अच्छी लगती है? तुम लोग नहीं समझ सकते हो कि उसे कितना अच्छा लगता है, और शायद ऐसा कोई भी नहीं है जो इसे समझ सके। परमेश्वर ने अब्राहम को एक पुत्र दिया, और जब वह पुत्र बड़ा हो गया, परमेश्वर ने अब्राहम से अपने पुत्र को बलिदान करने के लिए कहा। अब्राहम ने अक्षरशः परमेश्वर की आज्ञा का पालन किया, उसने परमेश्वर के वचन का पालन किया, और उसकी ईमानदारी ने परमेश्वर को द्रवित किया और उसकी ईमानदारी को परमेश्वर के द्वारा संजोकर रखा गया था। परमेश्वर ने इसे कितना संजोकर रखा? और उसने क्यों इसे संजोकर रखा था? एक समय पर जब किसी ने भी परमेश्वर के वचनों को नहीं बूझा था या उसके हृदय को नहीं समझा था, तब अब्राहम ने कुछ ऐसा किया जिस ने स्वर्ग को हिला दिया और पृथ्वी को कंपा दिया, तथा इस से परमेश्वर को अभूतपूर्व संतुष्टि का एहसास हुआ, और परमेश्वर के लिए ऐसे व्यक्ति को हासिल करने के आनन्द को लेकर आया जो उसकी आज्ञाओं का पालन करने के योग्य था। यह संतुष्टि एवं आनन्द उस प्राणी से आया जिसे परमेश्वर के हाथ से रचा गया था, और जब से मनुष्य की सृष्टि की गई थी, यह पहला "बलिदान" था जिसे मनुष्य ने परमेश्वर को अर्पित किया था और जिसको परमेश्वर के द्वारा अत्यंत सहेजकर रखा गया था। इस बलिदान का इंतज़ार करते हुए परमेश्वर ने बहुत ही कठिन समय गुज़ारा था, और उसने इसे मनुष्य की ओर से दिए गए प्रथम महत्वपूर्ण भेंट के रूप में लिया, जिसे उसने सृजा था। इसने परमेश्वर को उसके प्रयासों और उस कीमत के प्रथम फल को दिखाया जिसे उसने चुकाया था, और इससे वह मानवजाति में आशा देख सका। इसके बाद, परमेश्वर के पास ऐसे लोगों के समूह के लिए और भी अधिक लालसा थी जो उसका साथ दें, उसके साथ ईमानदारी से व्यवहार करें, ईमानदारी के साथ उसकी परवाह करें। परमेश्वर ने यहाँ तक आशा की थी कि अब्राहम निरन्तर जीवित रहता, क्योंकि वह चाहता था कि ऐसा हृदय उसके साथ संगति करे उसके साथ रहे जैसे वह उसके प्रबंधन में निरन्तर बना रहा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर क्या चाहता था, यह सिर्फ एक इच्छा थी, सिर्फ एक विचार था—क्योंकि अब्राहम मात्र एक मनुष्य था जो उसकी आज्ञाओं का पालन करने के योग्य था, और उसके पास परमेश्वर की थोड़ी सी भी समझ या ज्ञान नहीं था। वह ऐसा व्यक्ति था जो मनुष्य के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानकों से पूरी तरह रहित थाः परमेश्वर को जानना, परमेश्वर को संतुष्ट करने के योग्य होना, और परमेश्वर के साथ एक मन होना। और इस लिए, वह परमेश्वर के साथ नहीं चल सका। अब्राहम के द्वारा इसहाक के बलिदान में, परमेश्वर ने उस में ईमानदारी एवं आज्ञाकारिता को देखा था, और यह देखा था कि उसने परमेश्वर के द्वारा अपनी परीक्षा का स्थिरता से सामना किया था। भले ही परमेश्वर ने उसकी आज्ञाकारिता एवं ईमानदारी को स्वीकार किया था, किन्तु वह अब भी परमेश्वर का विश्वासपात्र बनने में अयोग्य था, ऐसा व्यक्ति बनने में अयोग्य था जो परमेश्वर को जानता था, और परमेश्वर को समझता था, और उसे परमेश्वर के स्वभाव के विषय में सूचित किया गया था; वह परमेश्वर के साथ एक मन होने और परमेश्वर की इच्छा को सम्पन्न करने से बहुत दूर था। और इस प्रकार, परमेश्वर अपने हृदय में अभी भी अकेला एवं चिंतित था। परमेश्वर जितना अधिक अकेला एवं चिंतित होता गया, उतना ही अधिक उसे आवश्यकता थी कि वह जितना जल्दी हो सके अपने प्रबंधन के साथ निरन्तर आगे बढ़े, और अपनी प्रबंधकीय योजना को पूरा करने के लिए और जितना जल्दी हो सके उसकी इच्छा को प्राप्त करने के लिए लोगों के ऐसे समूह को हासिल करने और चुनने के योग्य हो जाए। यह परमेश्वर की हार्दिक अभिलाषा थी, और यह शुरुआत से लेकर आज तक अपरिवर्तनीय बनी हुई है। जब से उसने आदि में मनुष्य की सृष्टि की थी, तब से परमेश्वर ने विजयी लोगों के समूह की लालसा की है, ऐसा समूह जो उसके साथ चलेगा और जो उसके स्वभाव को समझने, बूझने और जानने के योग्य है। परमेश्वर की इच्छा कभी नहीं बदली है। इसके बावजूद कि उसे अब भी कितना लम्बा इंतज़ार करना है, इसके बावजूद कि आगे का मार्ग कितना कठिन है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे उद्देश्य कितने दूर हैं जिनकी वह लालसा करता है, परमेश्वर ने मनुष्य के लिए अपनी अपेक्षाओं को कभी पलटा नहीं है या हिम्मत नहीं हारा है। अब मैंने यह कह दिया है, तो क्या तुम लोग परमेश्वर की इच्छा की कुछ बातों का एहसास कर सकते हो? शायद जो कुछ तुम लोगों ने एहसास किया है वह बहुत गहरा नहीं है—परन्तु वह धीरे-धीरे आएगा!
"वचन देह में प्रकट होता है" से

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

परमेश्वर इसहाक के प्रति अर्पण करने के लिए अब्राम को आज्ञा देता है

अब्राहम को एक पुत्र देने के बाद, वे वचन जिन्हें परमेश्वर ने अब्राहम से कहा था वे पूरे हो गए थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि परमेश्वर की योजना यहाँ पर रूक जाती है; इसके विपरीत, मानवजाति के प्रबन्धन एवं उद्धार के लिए परमेश्वर की बहुत ही शोभायमान योजना का बस प्रारम्भ ही हुआ था, और अब्राहम के लिए सन्तान की उसकी आशीष उसकी सम्पूर्ण प्रबन्धकीय योजना की मात्र एक प्रस्तावना थी। उस घड़ी, कौन जानता था कि शैतान के साथ परमेश्वर का युद्ध ख़ामोशी से प्रारम्भ हो चुका था जब अब्राहम ने इसहाक का बलिदान किया था।
परमेश्वर परवाह नहीं करता है यदि मनुष्य मूर्ख है—वह केवल यह मांग करता है कि मनुष्य सच्चा हो

आगे, आओ देखें कि परमेश्वर ने अब्राहम के साथ क्या किया था। उत्पत्ति 22:2 में, परमेश्वर ने अब्राहम को निम्नलिखित आज्ञा दी: "अपने पुत्र को अर्थात् अपने एकलौते पुत्र इसहाक को, जिस से तू प्रेम रखता है, संग लेकर मोरिय्याह देश में चला जा; और वहाँ उसको एक पहाड़ के ऊपर जो मैं तुझे बताऊँगा होमबलि करके चढ़ा।" परमेश्वर का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट था: परमेश्वर अब्राहम से अपने एकलौते पुत्र को जिससे वह प्रेम करता था होमबलि के रूप में देने के लिए कह रहा था। आज के परिप्रेक्ष्य में देखें, क्या परमेश्वर की आज्ञा अभी भी मनुष्य की धारणाओं से भिन्न है? हाँ! वह सब जिसे परमेश्वर ने उस समय किया था वह मनुष्य की धारणाओं के बिलकुल विपरीत और मनुष्य की समझ से बाहर था। उनकी धारणाओं में, लोग निम्नलिखित पर विश्वास करते हैं: जब किस मनुष्य ने विश्वास नहीं किया था, और सोचा था कि यह असम्भव है, तब परमेश्वर ने उसे एक पुत्र दिया, और जब उसे पुत्र प्राप्त हो गया उसके बाद, परमेश्वर ने उससे अपने पुत्र को बलिदान करने के लिए कहा—कितना अविश्वसनीय है! परमेश्वर ने वास्तव में क्या करने का इरादा किया था? परमेश्वर का वास्तविक उद्देश्य क्या था? उसने अब्राहम को बिना शर्त एक पुत्र प्रदान किया था, फिर उसने कहा कि अब्राहम बिना किसी शर्त के बलिदान करे। क्या यह बहुत अधिक था? तीसरे समूह के दृष्टिकोण से, यह न केवल बहुत अधिक था बल्कि कुछ कुछ "बिना किसी बात के मुसीबत खड़ा करने" का मामला था। परन्तु अब्राहम ने स्वयं यह नहीं सोचा कि परमेश्वर बहुत ज़्यादा मांग रहा है। हालाँकि उसमें कुछ ग़लतफहमियां थीं, और वह परमेश्वर के विषय में थोड़ा सन्देहास्पद था, फिर भी वह बलिदान करने के लिए अभी भी तैयार था। इस मुकाम पर, तू क्या देखता है जो यह साबित करता है कि अब्राहम अपने पुत्र का बलिदान करने के लिए तैयार था? इन वाक्यों में क्या कहा जा रहा है? मूल पाठ निम्नलिखित लेख प्रदान करता है: "अतः अब्राहम सबेरे तड़के उठा और अपने गदहे पर काठी कसकर अपने दो सेवक, और अपने पुत्र इसहाक को संग लिया, और होमबलि के लिये लकड़ी चीर ली; तब निकल कर उस स्थान की ओर चला, जिसकी चर्चा परमेश्‍वर ने उससे की थी।" (उत्पत्ति 22:3)। "जब वे उस स्थान को जिसे परमेश्‍वर ने उसको बताया था पहुँचे; तब अब्राहम ने वहाँ वेदी बनाकर लकड़ी को चुन चुनकर रखा, और अपने पुत्र इसहाक को बाँध कर वेदी पर की लकड़ी के ऊपर रख दिया। फिर अब्राहम ने हाथ बढ़ाकर छुरी को ले लिया कि अपने पुत्र को बलि करे।" (उत्पत्ति 22:9-10)। जब अब्राहम ने अपने हाथ को आगे बढ़ाया, और अपने बेटे को मारने के लिए छुरा लिया, तो क्या उसके कार्यों को परमेश्वर के द्वारा देखा गया था? परमेश्वर के द्वारा उन्हें देखा गया था। सम्पूर्ण प्रक्रिया से—आरम्भ से लेकर, जब परमेश्वर ने कहा कि अब्राहम इसहाक का बलिदान करे, उस समय तक जब अब्राहम ने अपने पुत्र का वध करने के लिए वास्तव में छुरा उठा लिया था—परमेश्वर ने अब्राहम के हृदय को देखा था, और उसकी पहले की मूर्खता, अज्ञानता एवं परमेश्वर को ग़लत समझने के बावजूद भी, उस समय अब्राहम का हृदय परमेश्वर के प्रति सच्चा, और ईमानदार था, और वह सचमुच में इसहाक को परमेश्वर को वापस करने वाला था, जो पुत्र परमेश्वर के द्वारा उसे दिया गया था, वापस परमेश्वर को। परमेश्वर ने उस में आज्ञाकारिता को देखा—वही आज्ञाकारिता जिसकी उसने इच्छा की थी।
मनुष्य के लिए, परमेश्वर बहुत कुछ करता है जो समझ से बाहर है और यहाँ तक कि अविश्वसनीय भी है। जब परमेश्वर किसी को आयोजित करने की इच्छा करता है, तो ये आयोजन प्रायः मनुष्य की धारणाओं से भिन्न होते हैं, और उसकी समझ से परे होते हैं, फिर भी बिलकुल यही असहमति एवं अबोधगम्यता ही है जो परमेश्वर का परिक्षण एवं मनुष्य की परीक्षाएं हैं। इसी बीच, अब्राहम अपने आप में ही परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता को प्रदर्शित करने के योग्य हो गया, जो परमेश्वर की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के योग्य होने के लिए सबसे महत्वपूर्ण शर्त थी। जब अब्राहम परमेश्वर की मांग को मानने के योग्य हुआ, जब उसने इसहाक का बलिदान किया, केवल तभी परमेश्वर को सचमुच में मानवजाति के प्रति—अब्राहम के प्रति—पुनःआश्वासन एवं स्वीकृति का एहसास हुआ, जिसे उसने चुना था। केवल तभी परमेश्वर को निश्चय हुआ कि यह व्यक्ति जिसे उसने चुना था वह एक अत्यंत महत्वपूर्ण अगुवा था जो उसकी प्रतिज्ञा एवं आगामी प्रबंधकीय योजना को आरम्भ कर सकता था। हालाँकि यह सिर्फ एक परीक्षण एवं परीक्षा थी, परमेश्वर को प्रसन्नता का एहसास हुआ, उसने अपने लिए मनुष्य के प्रेम को महसूस किया, और उसे मनुष्य के द्वारा ऐसा सुकून मिला जैसा उसे पहले कभी नहीं मिला था। जिस घड़ी अब्राहम ने इसहाक को मारने के लिए अपना छूरा उठाया था, क्या परमेश्वर ने उसे रोका? परमेश्वर ने अब्राहम को इसहाक का बलिदान करने नहीं दिया, क्योंकि परमेश्वर की इसहाक का जीवन लेने की कोई मनसा नहीं थी। इस प्रकार, परमेश्वर ने अब्राहम को बिलकुल सही समय पर रोक दिया था। परमेश्वर के लिए, अब्राहम की आज्ञाकारिता ने पहले ही उस परीक्षा को उत्तीर्ण कर लिया था, जो कुछ उसने किया वह पर्याप्त था, और परमेश्वर ने उस परिणाम को पहले ही देख लिया था जिसका उसने इरादा किया था। क्या यह परिणाम परमेश्वर के लिए संतोषजनक था? ऐसा कहा जा सकता है कि यह परिणाम परमेश्वर के लिए संतोषजनक था, कि यह वह परिणाम था जो परमेश्वर चाहता था, और जिसे परमेश्वर ने देखने की लालसा की थी। क्या यह सही है? हालाँकि, अलग-अलग संदर्भों में, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को परखने के लिए भिन्न-भिन्न तरीकों का उपयोग करता है, अब्राहम में परमेश्वर ने वह देखा जो वह चाहता था, उसने देखा कि अब्राहम का हृदय सच्चा था, और यह कि उसकी आज्ञाकारिता बिना किसी शर्त के थी, और यह बिलकुल वही "बिना किसी शर्त" की आज्ञाकारिता थी जिसकी परमेश्वर ने इच्छा की थी। …
                                                                      "वचन देह में प्रकट होता है" से
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मंगलवार, 23 जुलाई 2019

परमेश्वर अब्राहम से एक पुत्र देने की प्रतिज्ञा करता है

1. परमेश्वर अब्राहम से एक पुत्र देने की प्रतिज्ञा करता है
(उत्पत्ति 17:15-17) फिर परमेश्‍वर ने अब्राहम से कहा, "तेरी जो पत्नी सारै है, उसको तू अब सारै न कहना, उसका नाम सारा होगा। मैं उसको आशीष दूँगा, और तुझ को उसके द्वारा एक पुत्र दूँगा; और मैं उसको ऐसी आशीष दूँगा कि वह जाति जाति की मूलमाता हो जाएगी; और उसके वंश में राज्य-राज्य के राजा उत्पन्न होंगे।" तब अब्राहम मुँह के बल गिर पड़ा और हँसा, और मन ही मन कहने लगा, "क्या सौ वर्ष के पुरुष के भी सन्तान होगी और क्या सारा जो नब्बे वर्ष की है पुत्र जनेगी?"
(उत्पत्ति 17:21-22) परन्तु मैं अपनी वाचा इसहाक ही के साथ बाँधूँगा जो सारा से अगले वर्ष के इसी नियुक्‍त समय में उत्पन्न होगा। तब परमेश्‍वर ने अब्राहम से बातें करनी बन्द की और उसके पास से ऊपर चढ़ गया।
2. अब्राहम इसहाक को बलिदान करता है
(उत्पत्ति 22:2-3) उसने कहा, "अपने पुत्र को अर्थात् अपने एकलौते पुत्र इसहाक को, जिस से तू प्रेम रखता है, संग लेकर मोरिय्याह देश में चला जा; और वहाँ उसको एक पहाड़ के ऊपर जो मैं तुझे बताऊँगा होमबलि करके चढ़ा।" अतः अब्राहम सबेरे तड़के उठा और अपने गदहे पर काठी कसकर अपने दो सेवक, और अपने पुत्र इसहाक को संग लिया, और होमबलि के लिये लकड़ी चीर ली; तब निकल कर उस स्थान की ओर चला, जिसकी चर्चा परमेश्‍वर ने उससे की थी।
(उत्पत्ति 22:9-10) जब वे उस स्थान को जिसे परमेश्‍वर ने उसको बताया था पहुँचे; तब अब्राहम ने वहाँ वेदी बनाकर लकड़ी को चुन चुनकर रखा, और अपने पुत्र इसहाक को बाँध कर वेदी पर की लकड़ी के ऊपर रख दिया। फिर अब्राहम ने हाथ बढ़ाकर छुरी को ले लिया कि अपने पुत्र को बलि करे।
कोई भी उस कार्य को बाधित नहीं कर सकता है जिसे करने का परमेश्वर ने दृढ़ निश्चय करता है

तो, तुम लोगों ने अभी अभी अब्राहम की कहानी को सुना है। जब बाढ़ ने संसार को नष्ट कर दिया उसके पश्चात् परमेश्वर के द्वारा उसे चुना गया था, उसका नाम अब्राहम था, और जब वह सौ वर्ष का था, और उसकी पत्नी सारा नब्बे वर्ष की थी, तब परमेश्वर की प्रतिज्ञा उसे मिली। परमेश्वर ने उससे क्या प्रतिज्ञा की? परमेश्वर ने वह प्रतिज्ञा की जिसका संकेत हमें पवित्र शास्त्र में मिलता हैः "मैं उसको आशीष दूँगा, और तुझ को उसके द्वारा एक पुत्र दूँगा।" परमेश्वर के द्वारा उसे पुत्र दिए जाने के पीछे क्या पृष्ठभूमि थी? पवित्र शास्त्र निम्नलिखित लेख प्रदान करता हैः "तब अब्राहम मुँह के बल गिर पड़ा और हँसा, और मन ही मन कहने लगा, क्या सौ वर्ष के पुरुष के भी सन्तान होगी और क्या सारा जो नब्बे वर्ष की है पुत्र जनेगी?" दूसरे शब्दों में, ये दम्पत्ति इतने बूढ़े थे कि सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकते थे। जब परमेश्वर ने अब्राहम से अपनी प्रतिज्ञा की उसके पश्चात् उसने क्या किया? वह हँसता हुआ अपने मुंह के बल गिरा, और अपने आप से कहा, "क्या सौ वर्ष के पुरुष के भी सन्तान होगी?" अब्राहम ने विश्वास किया कि यह असम्भव था—जिसका अर्थ है कि परमेश्वर की प्रतिज्ञा उसके लिए एक मज़ाक के अलावा और कुछ नहीं थी। मनुष्य के दृष्टिकोण से, इसे मनुष्य के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है, और उसी तरह परमेश्वर के द्वारा भी हासिल नहीं किया जा सकता था और यह परमेश्वर के लिए असम्भव था। कदाचित्, अब्राहम के लिए यह हास्यास्पद बात थी: परमेश्वर ने मनुष्य को बनाया, फिर भी ऐसा लगता है कि वह यह नहीं जानता है कि कोई व्यक्ति जो इतना वृद्ध है वह सन्तान उत्पन्न करने में असमर्थ है; वह सोचता है कि वह मुझे सन्तान उत्पन्न करने की अनुमति देगा, वह कहता है कि वह मुझे एक पुत्र देगा—वास्तव में यह असम्भव है! और इस प्रकार, अब्राहम मुँह के बल गिरा और हँसने लगा, और अपने आप में सोचने लगा: असम्भव—परमेश्वर मुझ से मज़ाक कर रहा है, यह सही नहीं हो सकता है! उसने परमेश्वर के वचनों को गम्भीरता से नहीं लिया था। अतः, परमेश्वर की दृष्टि में, अब्राहम किस प्रकार का व्यक्ति था? (धर्मी)। कहाँ यह कहा गया था कि वह एक धर्मी मनुष्य था? तुम लोग सोचते हो कि वे सभी जिन्हें परमेश्वर बुलाता है वे धर्मी, एवं पूर्ण, और ऐसे लोग होते हैं जो परमेश्वर के साथ चलते हैं। तुम लोग सिद्धान्तों में बने रहते हो! तुम लोगों को स्पष्ट रूप से देखना होगा कि जब परमेश्वर किसी को परिभाषित करता है, तो वह ऐसा मनमाने ढंग से नहीं करता है। यहाँ, परमेश्वर ने यह नहीं कहा कि अब्राहम एक धर्मी मनुष्य है। अपने हृदय में, परमेश्वर के पास प्रत्येक व्यक्ति को मापने के लिए एक मानक होता है। हालाँकि परमेश्वर यह नहीं कहता है कि अब्राहम किस प्रकार का व्यक्ति था, फिर भी अपने आचरण के लिहाज से, अब्राहम के पास परमेश्वर में किस प्रकार का विश्वास था? क्या यह एक छोटा सी कल्पना थी? या वह एक बड़े विश्वास वाला व्यक्ति था? नहीं, वह नहीं था! उसकी हँसी एवं विचारों ने यह प्रकट किया कि वह कौन था, अतः तुम लोगों का विश्वास कि वह एक धर्मी व्यक्ति था यह सिर्फ तुम लोगों की कल्पना की उपज है, यह सिद्धान्तों का आँख बन्द कर के पालन करना है, यह एक गैरज़िम्मेदार मूल्यांकन है। क्या परमेश्वर ने अब्राहम की हँसी और उसकी भावभंगिमाओं[क] को देखा था, क्या वह उसके बारे में जानता था? परमेश्वर जानता था। परन्तु क्या परमेश्वर उस कार्य को बदल देता जिसे करने के लिए उसने दृढ़ निश्चय किया था? नहीं! जब परमेश्वर ने योजना बनाई और दृढ़ निश्चय किया कि वह इस मनुष्य को चुनेगा, तो उस मामले को पहले से ही पूर्ण किया जा चुका था। न तो मनुष्य के विचार और न ही उसका व्यवहार परमेश्वर को जरा सा भी प्रभावित करेंगे, या परमेश्वर के साथ हस्तक्षेप करेंगे; परमेश्वर अपनी योजना को मनमाने ढंग से नहीं बदलेगा, न ही वह बदलेगा या मनुष्य के बर्ताव के कारण अपनी योजना में उलट-फेर करेगा, जो मूर्खतापूर्ण भी हो सकता है। तो उत्पत्ति 17:21-22 में क्या लिखा है? "परन्तु मैं अपनी वाचा इसहाक ही के साथ बाँधूँगा जो सारा से अगले वर्ष के इसी नियुक्‍त समय में उत्पन्न होगा। तब परमेश्‍वर ने अब्राहम से बातें करनी बन्द की और उसके पास से ऊपर चढ़ गया।" जो कुछ अब्राहम ने सोचा या कहा था परमेश्वर ने उन पर जरा सा भी ध्यान नहीं दिया। और उसकी उपेक्षा का कारण क्या था? यह इसलिए था क्योंकि उस समय परमेश्वर ने यह मांग नहीं की थी कि मनुष्य को बड़ा विश्वास रखना है, या वह परमेश्वर के अत्याधिक ज्ञान को रखने के योग्य हो, या इसके अतिरिक्त, जो कुछ परमेश्वर के द्वारा किया गया और कहा गया वह उसे पूरी तरह से समझने के योग्य हो। इस प्रकार, उसने यह मांग नहीं की थी कि जो कुछ उसने करने का दृढ़ निश्चय किया था, या वे लोग जिन्हें उसने चुनने का निर्णय किया था, या उसके कार्यों के सिद्धान्तों को मनुष्य पूरी तरह से समझे, क्योंकि मनुष्य का डीलडौल साधारणतः पर्याप्त नहीं था। परमेश्वर ने उस समय, अब्राहम ने जो कुछ भी किया और जिस प्रकार उसने अपने आप में व्यवहार किया उसे सामान्य माना। उसने उसकी निंदा नहीं की, या उसे फटकार नहीं लगाई, परन्तु सिर्फ़ यह कहाः "सारा से अगले वर्ष इसी नियुक्त समय में इसहाक उत्पन्न होगा।" जब उसने इन वचनों की घोषणा की उसके पश्चात्, परमेश्वर के लिए यह मामला कदम दर कदम सत्य होता गया; परमेश्वर की नज़रों में, जिसे उसकी योजना के द्वारा पूरा किया जाना था उसे पहले से ही हासिल कर लिया गया था। और इसके लिए प्रबंधों को पूरा करने के बाद, परमेश्वर वहाँ से चला गया। जो कुछ मनुष्य करता या सोचता है, जो कुछ मनुष्य समझता है, मनुष्य की योजनाएं—इनमें से किसी का भी परमेश्वर से कोई रिश्ता नहीं है। हर एक चीज़ परमेश्वर की योजनाओं के अनुसार आगे बढ़ती है, उन समयों एवं चरणों के साथ साथ जिन्हें परमेश्वर के द्वारा तय किया गया है। परमेश्वर के कार्य का सिद्धान्त ऐसा ही है। मनुष्य जो कुछ भी सोचता है या जानता है परमेश्वर इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता है, फिर भी न तो वह अपनी योजनाओं को यों ही जाने देता है, या न ही अपने कार्यों को त्यागता है, क्योंकि मनुष्य विश्वास नहीं करता है या समझता नहीं है। तथ्य इस प्रकार से परमेश्वर की योजना एवं विचारों के अनुसार पूरे होते हैं। यह बिलकुल वही है जिसे हम बाइबल में देखते हैं; परमेश्वर ने इसहाक को ऐसे समय में जन्म लेने दिया जिसे उसने निर्धारित किया था। क्या ये तथ्य साबित करते हैं कि मनुष्य के व्यवहार एवं आचरण ने परमेश्वर के कार्य में बाधा डाला था? उन्होंने परमेश्वर के कार्य में बाधा नहीं डाला था! क्या परमेश्वर में मनुष्य के थोड़े से विश्वास ने, और परमेश्वर के विषय में उसकी अवधारणाओं एवं कल्पनाओं ने परमेश्वर के कार्य पर असर डाला था? नहीं, उन्होंने कोई असर नहीं डाला था! थोड़ा सा भी नहीं! परमेश्वर की प्रबन्धकीय योजना किसी भी मनुष्य, मामले, या पर्यावरण के द्वारा अप्रभावित है। वह सब कुछ जिसे करने के लिए उसने दृढ़ निश्चय किया है वह समय पर एवं उसकी योजना के अनुसार खत्म एवं पूर्ण होगा, और उसके कार्य के साथ किसी भी मनुष्य के द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर मनुष्य की कुछ मूर्खताओं एवं अज्ञानताओं पर ध्यान नहीं देता है, और यहाँ तक उसके प्रति मनुष्य के कुछ प्रतिरोध एवं अवधारणाओं को भी नज़रअंदाज़ करता है; इसके बदले, वह बिना किसी संकोच के उस कार्य को करता है जो उसे करना चाहिए। यह परमेश्वर का स्वभावहै, और उसकी सर्वसामर्थता का प्रतिबिम्ब है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से
पदटिप्पणियां:
क. मूल पाठ पढ़ता है "कार्य"

शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

परमेश्वर मनुष्य के साथ अपनी वाचा के लिए मेघधनुष को चिन्ह के रूप में ठहराता है

(उत्पत्ति 9:11-13) और मैं तुम्हारे साथ अपनी यह वाचा बाँधता हूँ कि सब प्राणी फिर जल-प्रलय से नष्ट न होंगे: और पृथ्वी का नाश करने के लिये फिर जल-प्रलय न होगा। फिर परमेश्वर ने कहा, जो वाचा मैं तुम्हारे साथ, और जितने जीवित प्राणी तुम्हारे संग हैं उन सब के साथ भी युग-युग की पीढ़ियों के लिए बाँधता हूँ, उसका यह चिन्ह है: मैंने बादल में अपना धनुष रखा है वह मेरे और पृथ्वी के बीच में वाचा का चिह्न होगा।
……
अधिकांश लोग जानते हैं कि धनुष क्या है और उन्होंने धनुष से जुड़ी कुछ कहानियों को सुना है। जहाँ तक बाइबल में धनुष के बारे में उस कहानी की बात है, कुछ लोग इसका विश्वास करते हैं, कुछ दंतकथा के रूप में इससे व्यवहार करते हैं, जबकि अन्य लोग इस पर बिलकुल भी विश्वास नहीं करते हैं। चाहे कुछ भी हो, सब कुछ जो धनुष के सम्बन्ध में घटित हुआ था वह सब ऐसी चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर ने किसी समय किया था, और ऐसी चीज़ें हैं जो मनुष्य के लिए परमेश्वर की प्रबंधकीय योजना की प्रक्रिया के दौरान घटित हुई थीं। इन चीज़ें को बाइबल में हू-बहू लिखा गया है। ये लेख हमें यह नहीं बताते हैं कि उस समय परमेश्वर किस मनोदशा में था या इन वचनों के पीछे उसके क्या इरादे थे जिन्हें परमेश्वर ने कहा था। इसके अतिरिक्त, कोई भी इसकी सराहना नहीं कर सकता है कि परमेश्वर कैसा महसूस कर रहा था जब उसने उन्हें कहा था। फिर भी, इस समूचे हालात के लिहाज से परमेश्वर के मन की दशा को पाठ की पंक्तियों के बीच प्रकट किया गया है। यह ऐसा है मानो उस समय उसके विचारों ने परमेश्वर के वचन के प्रत्येक शब्द एवं वाक्यांश के जरिए एकदम से ध्यान आकर्षित किया।
……

मूल रूप से, परमेश्वर ने ऐसी मानवता की सृष्टि की थी जो उसकी दृष्टि में बहुत ही अच्छी और उसके बहुत ही निकट थी, किन्तु उसके विरुद्ध विद्रोह करने के पश्चात् जलप्रलय के द्वारा उनका विनाश कर दिया गया था। क्या इसने परमेश्वर को कष्ट पहुँचाया कि एक ऐसी मानवता तुरन्त ही इस तरह विलुप्त हो गई थी? हाँ वास्तव में इसने कष्ट पहुँचाया था! अतः इस दर्द के विषय में उसके हाव-भाव क्या थे? बाइबल में इसे कैसे लिखा गया था? इसे बाइबल में इस रूप से लिखा गया: "और मैं तुम्हारे साथ अपनी यह वाचा बाँधता हूँ कि सब प्राणी फिर जल-प्रलय से नष्ट न होंगे: और पृथ्वी के नाश करने के लिये फिर जल-प्रलय न होगा।" यह साधारण वाक्य परमेश्वर के विचारों को प्रकट करता है। संसार के इस विनाश ने उसे बहुत अधिक दुःख पहुँचाया। मनुष्य के शब्दों में, वह बहुत ही दुःखी था। हम कल्पना कर सकते हैं: जलप्रलय के द्वारा नाश किए जाने के बाद पृथ्वी जो किसी समय जीवन से भरी हुई थी वह कैसी दिखाई देती थी? वह पृथ्वी जो किसी समय मानव प्राणियों से भरी हुई थी अब कैसी दिखती थी? कोई मानवीय निवास-स्थान नहीं, कोई जीवित प्राणी नहीं, हर जगह पानी ही पानी और जल की सतह पर सब कुछ अस्तव्यस्त था। जब परमेश्वर ने संसार को बनाया तो क्या उसका मूल इरादा ऐसा कोई दृश्य था? बिलकुल भी नहीं! परमेश्वर का मूल इरादा था कि समूची धरती के आर पार जीवन को देखे, कि उन मानव प्राणियों को देखे जिन्हें उसने अपनी आराधना करने के लिए बनाया था, सिर्फ नूह के लिए ही नहीं कि वह वह उसकी आराधना करनेवाला एकमात्र व्यक्ति हो या ऐसा एकमात्र व्यक्ति जो उसकी बुलाहट का उत्तर दे सके ताकि जो कुछ उसे सौंपा गया था उसे पूर्ण करे। जब मानवता विलुप्त हो गई, तो परमेश्वर ने वह नहीं देखा जो उसने मूल रूप से इरादा किया था लेकिन पूर्णतः विपरीत देखा। उसका हृदय तकलीफ में कैसे नहीं हो सकता था? अतः जब वह अपने स्वभाव को प्रकट कर रहा था और अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर रहा था, तब परमेश्वर ने एक निर्णय लिया। उसने किस प्रकार का निर्णय लिया? मनुष्य के साथ एक वाचा के रूप में बादल में एक धनुष बनाने के लिए (टिप्पणी: वह धनुष जो हम देखते हैं), ऐसी प्रतिज्ञा कि परमेश्वर मानवजाति को जलप्रलय से दोबारा नाश नहीं करेगा। ठीक उसी समय, यह लोगों को यह बताने के लिए भी था कि परमेश्वर ने संसार को किसी समय जलप्रलय से नाश किया था, ताकि मानवजाति हमेशा याद रखे कि परमेश्वर ने ऐसा कार्य क्यों किया था।
क्या इस समय संसार का विनाश कुछ ऐसा था जो परमेश्वर चाहता था? यह निश्चित रूप वह नहीं था जो परमेश्वर चाहता था। संसार के विनाश के बाद हम शायद पृथ्वी के दयनीय दृश्य के एक छोटे से भाग की कल्पना कर सकते हैं, परन्तु हम उस सोच के करीब नहीं आ सकते हैं कि उस समय परमेश्वर की निगाहों में वह तस्वीर कैसी थी। हम कह सकते हैं कि, चाहे यह आज के लोग हों या उस समय के, जब परमेश्वर ने उस दृश्य को देखा तो जो कुछ परमेश्वर उस समय महसूस कर रहा था उसे सोचने या सराहने के योग्य कोई भी नहीं है, संसार की ऐसी तस्वीर जो जलप्रलय के द्वारा इसके विनाश के बाद की थी। मनुष्य की अनाज्ञाकारिता की वजह से परमेश्वर इसे करने के लिए मजबूर था, परन्तु जलप्रलय के द्वारा संसार के विनाश से परमेश्वर के हृदय के द्वारा सहा गया वह दर्द एक वास्तविकता है जिसे कोई नाप एवं सराह नहीं सकता है। इसीलिए परमेश्वर ने मानवजाति के साथ एक वाचा बाँधी, जो लोगों को यह बताने के लिए थी कि वे स्मरण रखें कि परमेश्वर ने किसी समय ऐसा कुछ किया था, और उनसे शपथ खाने के लिए थी कि परमेश्वर कभी इस संसार का इस तरह से दोबारा नाश नहीं करेगा। इस वाचा में हम परमेश्वर के हृदय को देखते हैं—हम देखते हैं कि परमेश्वर का हृदय पीड़ा में था जब उसने मानवता का नाश किया। मनुष्य की भाषा में, जब परमेश्वर ने मानवजाति का नाश किया और मानवजाति को विलुप्त होते हुए देखा, तो उसका हृदय रो रहा था और उससे लहू बह रहा था। क्या यह सबसे अच्छा तरीका नहीं है कि हम इसका वर्णन कर सकें? मानवीय भावनाओं को दर्शाने के लिए इन शब्दों को मनुष्य के द्वारा उपयोग किया जाता है, परन्तु जबकि मनुष्य की भाषा में बहुत कमी है, तो परमेश्वर के एहसासों एवं भावनाओं का वर्णन करने के लिए उनका उपयोग करना मुझे बुरा नहीं लगता है, और न ही यह बहुत ज़्यादा है। कम से कम यह तुम लोगों को उस समय परमेश्वर की मनोदशा क्या थी उसके विषय में एक बहुत ही स्पष्ट, एवं बहुत ही उपयुक्त समझ प्रदान करता है। जब तुम लोग धनुष को दोबारा देखोगे तो अब तुम लोग क्या सोचोगे? कम से कम तुम लोग स्मरण करोगे कि किस प्रकार एक समय परमेश्वर जल-प्रलय के द्वारा संसार के विनाश पर दुःखी था। तुम लोग स्मरण करोगे कि, हालाँकि परमेश्वर ने इस संसार से नफ़रत की और इस मानवता को तुच्छ जाना था, फिर भी जब उसने उन मानव प्राणियों का विनाश किया जिन्हें उसने अपने हाथों से बनाया था, तो उसका हृदय दुख रहा था, उसका हृदय उन्हें छोड़ने के लिए संघर्ष कर रहा था, उसका हृदय नहीं चाह रहा था, उसके हृदय को इसे सहना कठिन महसूस हो रहा था। उसका सुकून सिर्फ नूह के परिवार के आठ लोगों में ही थी। यह नूह का सहयोग था जिसने सभी चीज़ों की सृष्टि करने के उसके अत्यधिक सावधानी से किए गए प्रयासों को सार्थक बनाया था। एक समय जब परमेश्वर कष्ट सह रहा था, तब यह एकमात्र चीज़ थी जो उसकी पीड़ा की क्षतिपूर्ति कर सकती थी। उस बिन्दु से, परमेश्वर ने मानवता की अपनी सारी अपेक्षाओं को नूह के परिवार के ऊपर डाल दिया था, यह आशा करते हुए कि वे उसकी आशीषों के अधीन जीवन बिताएँगे और उसके श्राप के अधीन नहीं, यह आशा करते हुए कि वे परमेश्वर को फिर कभी संसार को जलप्रलय से नाश करते हुए नहीं देखेंगे, और साथ ही यह भी आशा करते हुए भी कि उनका विनाश नहीं किया जाएगा।
यहाँ से हमको परमेश्वर के स्वभाव के किस भाग को समझना चाहिए? परमेश्वर ने मनुष्य को तुच्छ जाना था क्योंकि मनुष्य उसके प्रति शत्रुतापूर्ण था, लेकिन उसके हृदय में, मानवता के लिए उसकी देखभाल, चिंता एवं दया अपरिवर्तनीय बनी रही। यहाँ तक कि जब उसने मानवजाति का नाश किया, उसका हृदय अपरिवर्तनीय बना रहा। जब मानवता परमेश्वर के प्रति एक निश्चित दायरे तक भ्रष्टता एवं अनाज्ञाकारिता से भर गई थी, परमेश्वर को अपने स्वभाव एवं अपने सार के कारण, और अपने सिद्धान्तों के अनुसार इस मानवता का विनाश करना पड़ा था। लेकिन परमेश्वर के सार के कारण, उसने तब भी मानवजाति पर दया की, और यहाँ तक कि वह मानवजाति को छुड़ाने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करना चाहता था ताकि वे निरन्तर जीवित रह सकें। इसके बदले में, मनुष्य ने परमेश्वर का विरोध किया, निरन्तर परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करता रहा, और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने से इंकार किया, अर्थात्, उसके अच्छे इरादों को स्वीकार करने से इंकार किया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर ने उन्हें कैसे बुलाया, उन्हें कैसे स्मरण दिलाया, कैसे उनकी आपूर्ति की, कैसे उनकी सहायता की, या कैसे उनको सहन किया, क्योंकि मनुष्य ने इसे नहीं समझा या इसे नहीं सराहा, न ही उन्होंने कुछ ध्यान दिया। अपनी पीड़ा में, परमेश्वर अब भी मनुष्य को अपनी सर्वाधिक सहनशीलता देना नहीं भूला था, वह मनुष्य के वापस मुड़ने का इन्तज़ार कर रहा था। अपनी सीमा पर पहुँचने के पश्चात्, उसने वह किया जो उसे बिना किसी हिचकिचाहट के करना था। दूसरे शब्दों में, उस घड़ी से वहाँ एक विशेष समय अवधि एवं प्रक्रिया थी जब परमेश्वर ने मानवजाति के विनाश के अपने कार्य की आधिकारिक शुरुआत करने के लिए मानवजाति का विनाश करने की योजना बनाई थी। यह प्रक्रिया मनुष्य को पीछे मुड़ने के योग्य बनाने के उद्देश्य के लिए अस्तित्व में थी, और यह वह आखिरी मौका था जो परमेश्वर ने मनुष्य को दिया था। अतः परमेश्वर ने मानवजाति का विनाश करने से पहले इस अवधि में क्या किया था? परमेश्वर ने प्रचुर मात्रा में स्मरण दिलाने एवं उत्साहवर्धन करने का कार्य किया था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर का हृदय कितनी पीड़ा एवं दुःख में था, उसने मानवता पर अपनी देखभाल, चिंता और अत्यंत दया का अभ्यास करना जारी रखा। हम इससे क्या देखते हैं? बेशक, हम देखते हैं कि मानवजाति के लिए परमेश्वर का प्रेम वास्तविक है और केवल ऐसी चीज़ नहीं है कि वह दिखावा कर रहा है। यह वास्तविक, स्पर्श्गम्य एवं प्रशंसनीय है, जाली, मिलावटी, झूठा या कपटी नहीं है। परमेश्वर कभी किसी छल का उपयोग नहीं करता है या झूठी तस्वीरें नहीं बनाता है कि लोगों को यह दिखाए कि कि वह कितना प्रेमी है। वह लोगों को अपने प्रेमीपन को दिखाने के लिए, या अपने प्रेमीपन एवं पवित्रता की मिथ्या प्रशंसा के लिए झूठी गवाही का उपयोग नहीं करता है। क्या परमेश्वर के स्वभाव के ये पहलु मनुष्य के प्रेम के लायक नहीं हैं? क्या वे आराधना करने के योग्य नहीं हैं? क्या वे हृदय में संजोकर रखने के योग्य नहीं हैं? इस बिन्दु पर, मैं तुम लोगों से पूछना चाहता हूँ: इन शब्दों को सुनने के बाद, क्या तुम लोग सोचते हो कि क्या परमेश्वर की महानता कागज के टुकड़ों पर लिखे गए मात्र शब्द हैं? क्या परमेश्वर का प्रेमीपन केवल खाली शब्द ही हैं? नहीं! बिलकुल भी नही! परमेश्वर की सर्वोच्चता, महानता, पवित्रता, सहनशीलता, प्रेम, एवं इत्यादि—परमेश्वर के स्वभाव एवं सार के इन सब विभिन्न पहलुओं को हर उस समय लागू किया जाता है जब वह अपना कार्य करता है, मनुष्य के प्रति उसकी इच्छा में मूर्त रूप दिया जाता है, और प्रत्येक व्यक्ति पर पूरा एवं प्रतिबिम्बित किया जाता है। इसकी परवाह किए बगैर कि तुमने इसे पहले महसूस किया है या नहीं, परमेश्वर हर संभव तरीके से प्रत्येक व्यक्ति की देखभाल कर रहा है, प्रत्येक व्यक्ति के हृदय को गर्माहट देने, और प्रत्येक व्यक्ति के आत्मा को जगाने के लिए अपने निष्कपट हृदय, बुद्धि एवं विभिन्न तरीकों का उपयोग कर रहा है। यह एक निर्विवादित तथ्य है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यहाँ कितने लोग बैठे हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के पास परमेश्वर की सहनशीलता, धीरज एवं मनोहरता के विषय में अलग अलग अनुभव और उसके प्रति अलग अलग भावनाएँ हैं। परमेश्वर के ये अनुभव और उसकी ये भावनाएँ या स्वीकृतियाँ, संक्षेप में, ये सभी सकरात्मक चीज़ें परमेश्वर की ओर से हैं। अतः परमेश्वर के विषय में प्रत्येक व्यक्ति के अनुभव एवं ज्ञान को मिलाने के द्वारा और इन्हें आज बाइबल के इन अंशों के हमारे पठन से जोड़ने के द्वारा, क्या अब तुम लोगों के पास परमेश्वर की और अधिक वास्तविक एवं उचित समझ है?
……
परमेश्वर ने मानवजाति की सृष्टि की; इसकी परवाह किये बगैर कि उन्हें भ्रष्ट किया गया है या नहीं या वे उसका अनुसरण करते है या नहीं करते, परमेश्वर मनुष्य से अपने प्रियजनों के समान व्यवहार करता है—या जैसा मानव प्राणी कहेंगे, ऐसे लोग जो उसके लिए अतिप्रिय हैं -और उसके खिलौने नहीं हैं। हालाँकि परमेश्वर कहता है कि वह सृष्टिकर्ता है और मनुष्य उसकी सृष्टि है, जो ऐसा सुनाई दे सकता है कि यहाँ पद में थोड़ा अन्तर है, फिर भी वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी परमेश्वर ने मानवजाति के लिए किया है वह इस प्रकार के रिश्ते से कहीं बढ़कर है। परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है, मानवजाति की देखभाल करता है, मानवजाति के लिए चिन्ता दिखाता है, इसके साथ ही साथ लगातार और बिना रुके मानवजाति की आपूर्ति करता है। वह कभी अपने हृदय में यह महसूस नहीं करता है कि यह एक अतिरिक्त कार्य है या कुछ ऐसा है जो ढेर सारे श्रेय के लायक है। न ही वह यह महसूस करता है कि मानवता को बचाना, उनकी आपूर्ति करना, और उन्हें सबकुछ देना, मानवजाति के लिए एक बहुत बड़ा योगदान देना है। अपने स्वयं के तरीके से और अपने स्वयं के सार और जो उसके पास है एवं जो वह है उसके माध्यम से, वह बस खामोशी से एवं चुपचाप मानवजाति के लिए प्रदान करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मानवजाति उससे कितने प्रयोजन एवं कितनी सहायता प्राप्त करती है, क्योंकि परमेश्वर इसके बारे में कभी नहीं सोचता है या न ही श्रेय लेने की कोशिश करता है। यह परमेश्वर के सार के द्वारा निर्धारित होता है, और साथ ही यह परमेश्वर के स्वभाव की बिलकुल सही अभिव्यक्ति भी है। इसी लिए, इसकी परवाह किए बगैर कि यह बाइबल में है या किसी अन्य पुस्तकों में है, हम परमेश्वर को कभी अपने विचारों को व्यक्त करते हुए नहीं पाते हैं, और हम कभी परमेश्वर को इस बात का वर्णन करते हुए या मनुष्यों को यह घोषणा करते हुए नहीं पाते हैं कि वह इन कार्यों को क्यों करता है, या वह मानवजाति की इतनी देखरेख क्यों करता है, जिससे मानवजाति को उसके प्रति आभारी बनाया जाए या उससे उसकी स्तुति कराई जाए। यहाँ तक कि जब उसे कष्ट भी होता है, जब उसका हृदय अत्यंत पीड़ा में होता है, वह मानवजाति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी या मानवजाति के लिए अपनी चिन्ता को कभी नहीं भूलता है, वह पूरे समय इस कष्ट एवं दर्द को चुपचाप अकेला सहता रहता है। इसके विपरीत, परमेश्वर निरन्तर मानवजाति को प्रदान करता है जैसा वह हमेशा से करता आया है। हालाँकि मानवजाति अकसर परमेश्वर की स्तुति करती है या उसकी गवाही देती है, फिर भी इसमें से किसी भी व्यवहार की माँग परमेश्वर के द्वारा नहीं की जाती है। यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर किसी भी अच्छे कार्य के लिए जिसे वह मानवजाति के लिए करता है कभी ऐसा इरादा नहीं करता है कि उसे धन्यवाद से बदल दिया जाए या उसे वापस किया जाए। दूसरी ओर, ऐसे लोग जो परमेश्वर का भय मानते और बुराई से दूर रहते हैं, ऐसे लोग जो सचमुच में परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उसको ध्यान से सुनते हैं और उसके प्रति वफादार हैं, और ऐसे लोग जो उसकी आज्ञा का पालन करते हैं—ये ऐसे लोग हैं जो प्रायः परमेश्वर की आशीषों को प्राप्त करते हैं, और परमेश्वर बिना किसी सन्देह के ऐसी आशिषों को प्रदान करेगा। इसके अतिरिक्त, ऐसी आशीषें जिन्हें लोग परमेश्वर से प्राप्त करते हैं वे अकसर उनकी कल्पना से परे होती हैं, और साथ ही किसी भी ऐसी चीज़ से परे होती हैं जिसे मानव प्राणी उससे बदल सकते हैं जो उन्होंने किया है या उस कीमत से बदल सकते हैं जिसे उन्होंने चुकाया है। जब मानवजाति परमेश्वर की आशीषों का आनन्द ले रही है, तब क्या कोई परवाह करता है कि परमेश्वर क्या कर रहा है? क्या कोई किसी प्रकार की चिन्ता को दर्शाता है कि परमेश्वर कैसा महसूस कर रहा है? क्या कोई परमेश्वर की पीड़ा की सराहना करने की कोशिश करता है? इन प्रश्नों का बिलकुल सही उत्तर है: नहीं! क्या कोई मनुष्य, नूह को मिलाकर, उस दर्द की सराहना कर सकता है जिसे परमेश्वर उस समय महसूस कर रहा था? क्या कोई समझ सकता है कि क्यों परमेश्वर एक ऐसी वाचा ठहराएगा? वे नहीं समझ सकते हैं! मानवजाति परमेश्वर की पीड़ा की सराहना नहीं करती है इसलिए नहीं कि वे परमेश्वर की पीड़ा को नहीं समझते हैं, और परमेश्वर एवं मनुष्य के बीच अन्तर या उनकी हैसियत के बीच अन्तर के कारण नहीं; इसके बजाए, यह इसलिए है क्योंकि मानवजाति परमेश्वर की किसी भावना की परवाह भी नहीं करती है। मानवजाति सोचती है कि परमेश्वर तो आत्मनिर्भर है—परमेश्वर को कोई आवश्यकता नहीं है कि लोग उसकी देखरेख करें, उसे समझें या उस पर विचार करें। परमेश्वर तो परमेश्वर है, अतः उसके पास कोई दर्द नहीं है, कोई भावनाएँ नहीं हैं; वह दुःखी नहीं होगा, वह शोक महसूस नहीं करता है, यहाँ तक कि वह रोता भी नहीं है। परमेश्वर तो परमेश्वर है, इसलिए उसे किसी भावनात्मक अभिव्यक्ति की आवश्यकता नहीं है और उसे किसी भावनात्मक सुकून की आवश्यकता नहीं है। यदि उसे कुछ निश्चित परिस्थितियों के अंतर्गत इनकी आवश्यक होती है, तो वह स्वयं ही इसे सुलझा लेगा और उसे मानवजाति से किसी सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसके विपरीत, यह तो कमज़ोर, एवं अपरिपक्व मनुष्य है जिन्हें परमेश्वर की सांत्वना, प्रयोजन एवं प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है, और यहाँ तक कि परमेश्वर की भी आवश्यकता होती है कि वह उनकी भावनाओं को किसी भी समय एवं किसी भी स्थान पर सांत्वना दे। एक ऐसा विचार मानवजाति के हृदय के भीतर गहराई में छुपा होता है: मनुष्य कमज़ोर प्राणी है; उन्हें परमेश्वर की आवश्यकता होती है कि वह हर तरीके से उनकी देखरेख करे, वे सब प्रकार की देखभाल के हकदार हैं जिन्हें वे परमेश्वर से प्राप्त करते हैं, और उन्हें परमेश्वर से किसी भी चीज़ की माँग करनी चाहिए जिसे वे महसूस करते हैं कि वह उनका होना चाहिए। परमेश्वर बलवान है; उसके पास सबकुछ है, और उसे मानवजाति का अभिभावक और आशीषें प्रदान करने वाला अवश्य होना चाहिए। जबकि वह पहले से ही परमेश्वर है, वह सर्वशक्तिमान है और उसे मानवजाति से कभी किसी भी चीज़ की आवश्यकता नहीं होती है।
चूँकि मनुष्य परमेश्वर के किसी भी प्रकाशन पर ध्यान नहीं देता है, इसलिए उसने कभी परमेश्वर के शोक, पीड़ा, या आनन्द को महसूस नहीं किया है। परन्तु इसके विपरीत, परमेश्वर मनुष्य की सभी अभिव्यक्तियों को अपने हाथ की हथेली के समान जानता है। परमेश्वर सभी समयों एवं सभी स्थानों में प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की आपूर्ति करता है, प्रत्येक मनुष्य के बदलते विचारों का अवलोकन करता है और इस प्रकार उनको सांत्वना एवं प्रोत्साहन देता है, और उन्हें मार्गदर्शन देता है और ज्योतिर्मय करता है। सभी चीजों के सम्बन्ध में वे सभी कार्य जिन्हें परमेश्वर ने मानवजाति पर किया है और पूरी कीमत जो उसने उनके कारण चुकाई है, क्या लोग बाइबल में से या किसी ऐसी चीज़ से एक अंश ढूँढ़ सकते हैं जिसे अब तक परमेश्वर ने कहा है जो साफ साफ कहता हो कि परमेश्वर मनुष्य से किसी चीज़ की माँग करेगा? नहीं! इसके विपरीत, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि किस प्रकार लोग परमेश्वर की सोच को अनदेखा करते हैं, क्योंकि वह अभी भी लगातार मानवजाति की अगुवाई करता है, लगातार मानवजाति की आपूर्ति करता है और उनकी सहायता करता है, कि उन्हें परमेश्वर के मार्गों पर चलने की अनुमति मिले ताकि वे उस खूबसूरत मंज़िल को प्राप्त कर सकें जो उसने उनके लिए तैयार की है। जब परमेश्वर की बात आती है, तो जो उसके पास है एवं जो वह है, उसके अनुग्रह, उसकी दया और उसके सभी प्रतिफलों को बिना किसी शंका के उन लोगों को प्रदान किया जाएगा जो उससे प्रेम एवं उसका अनुसरण करते हैं। किन्तु वह उस पीड़ा को जो उसने सहा है या अपनी मनोदशा को कभी किसी व्यक्ति पर प्रकट नहीं करता है, और वह किसी के विषय में कभी शिकायत नहीं करता कि वह उसके प्रति ध्यान नहीं देता है या उसकी इच्छा नहीं जानता है। वह खामोशी से यह सब सह लेता है, उस दिन का इंतज़ार करता है जब मानवजाति उसको समझने के योग्य हो जाएगी।
"वचन देह में प्रकट होता है" से
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मंगलवार, 16 जुलाई 2019

जलप्रलय के बाद नूह के लिए परमेश्वर की आशीष

(उत्पत्ति 9:1-6) फिर परमेश्वर ने नूह और उसके पुत्रों को आशीष दी और उनसे कहा, कि फूलो-फलो, और बढ़ो, और पृथ्वी में भर जाओ। तुम्हारा डर और भय पृथ्वी के सब पशुओं, और आकाश के सब पक्षियों, और भूमि पर के सब रेंगनेवाले जन्तुओं, और समुद्र की सब मछलियों पर बना रहेगा: वे सब तुम्हारे वश में कर दिए जाते हैं। सब चलनेवाले जन्तु तुम्हारा आहार होंगे; जैसे तुम को हरे हरे छोटे पेड़ दिये थे, वैसा ही अब सब कुछ देता हूँ। पर मांस को प्राण समेत अर्थात् लहू समेत तुम न खाना। और निश्चय मैं तुम्हारे लहू अर्थात् प्राण का बदला लूँगा: सब पशुओं और मनुष्यों, दोनों से मैं उसे लूँगा; मनुष्य के प्राण का बदला मैं एक एक के भाई बन्धु से लूँगा। जो कोई मनुष्य का लहू बहाएगा उसका लहू मनुष्य ही से बहाया जाएगा, क्योंकि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरुप के अनुसार बनाया है।
……
नूह ने परमेश्वर के निर्देशों को स्वीकार किया और जहाज़ बनाया और उन दिनों के दौरान जीवित रहा जब परमेश्वर ने संसार का नाश करने के लिए जलप्रलय का उपयोग किया उसके पश्चात, आठ लोगों का उसका पूरा परिवार जीवित बच गया। नूह के परिवार के आठ लोगों को छोड़कर, सारी मानवजाति का नाश कर दिया गया था, और पृथ्वी पर सभी जीवित प्राणियों का नाश कर दिया गया था। नूह के लिए, परमेश्वर ने उसे आशीषें दीं, और उससे और उसके बेटों से कुछ बातें कहीं। ये बातें वे थीं जिन्हें परमेश्वर उन्हें प्रदान कर रहा था और उसके लिए परमेश्वर की आशीष भी थी। यह वह आशीष एवं प्रतिज्ञा है जिसे परमेश्वर किसी ऐसे व्यक्ति को देता है जो उसे ध्यान से सुन सकता है और उसके निर्देशों को स्वीकार कर सकता था, और साथ ही ऐसा तरीका भी है जिससे परमेश्वर लोगों को प्रतिफल देता है। कहने का तात्पर्य है, इसके बावजूद कि नूह परमेश्वर की दृष्टि में एक सिद्ध पुरुष था या एक धर्मी पुरुष था, और इसके बावजूद कि वह परमेश्वर के बारे में कितना कुछ जानता था, संक्षेप में, नूह और उसके तीन पुत्र सभी ने परमेश्वर के वचनों को सुना था, परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग किया था, और वही किया था जिसे उनसे परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार करने की अपेक्षा की गई थी। परिणामस्वरूप, जलप्रलय के द्वारा संसार के विनाश के बाद उन्होंने मनुष्यों एवं विभिन्न प्रकार के जीवित प्राणियों को पुनः प्राप्त करने में परमेश्वर की सहायता की थी, और परमेश्वर की प्रबंधकीय योजना के अगले चरण में बड़ा योगदान दिया था। वह सब कुछ जो उसने किया था उसके कारण, परमेश्वर ने उसे आशीष दी थी। शायद आज के लोगों के लिए, जो कुछ नूह ने किया था वह उल्लेख करने के भी लायक नहीं है। कुछ लोग सोच सकते हैं: नूह ने कुछ भी नहीं किया था; परमेश्वर ने उसे बचाने के लिए अपना मन बना लिया था, अतः उसे निश्चित रूप से बचाया जाना था। उसके जीवित बचने का श्रेय उसे नहीं जाता है। यह वह है जिसे परमेश्वर घटित करना चाहता था, क्योंकि मनुष्य निष्क्रिय है। लेकिन यह वह नहीं है जो परमेश्वर सोच रहा था। परमेश्वर के लिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई व्यक्ति महान है या मामूली, जब तक वे उसे ध्यान से सुन सकते हैं, उसके निर्देशों और जो कुछ वह सौंपता है उसका पालन कर सकते हैं, और उसके कार्य, उसकी इच्छा एवं उसकी योजना के साथ सहयोग कर सकते हैं, ताकि उसकी इच्छा एवं उसकी योजना को निर्विघ्नता से पूरा किया जा सके, तो ऐसा आचरण उसके द्वारा उत्सव मनाए जाने के योग्य है और उसकी आशीष को प्राप्त करने के योग्य है। परमेश्वर ऐसे लोगों को मूल्यवान जानकर सहेजकर रखता है, और वह अपने लिए उनके कार्यों एवं उनके प्रेम एवं उनके स्नेह को ह्रदय में संजोकर रखता है। यह परमेश्वर की मनोवृत्ति है। तो परमेश्वर ने नूह को आशीष क्यों दी? क्योंकि परमेश्वर इसी तरह से ऐसे कार्यों एवं मनुष्य की आज्ञाकारिता से व्यवहार करता है।

नूह के विषय में परमेश्वर की आशीष के लिहाज से, कुछ लोग कहेंगे: "यदि मनुष्य परमेश्वर को ध्यान से सुनता है और परमेश्वर को संतुष्ट करता है, तो परमेश्वर को मनुष्य को आशीष देना चाहिए। क्या यह स्पष्ट नहीं है?" क्या हम ऐसा कह सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं: "नहीं।" हम ऐसा क्यों नहीं कह सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं: "मनुष्य परमेश्वर की आशीष का आनन्द उठाने के लायक नहीं है।" यह पूर्णतः सही नहीं है। क्योंकि जब कोई व्यक्ति जो कुछ परमेश्वर सौंपता है उसे स्वीकार करता है, तो परमेश्वर के पास न्याय करने के लिए एक मापदंड होता है कि उस व्यक्ति के कार्य अच्छे हैं या बुरे और यह कि उस व्यक्ति ने आज्ञा का पालन किया है या नहीं, और यह कि उस व्यक्ति ने परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट किया है या नहीं और यह कि जो कुछ वे करते हैं वे उपयुक्त हैं या नहीं। परमेश्वर जिसकी परवाह करता है वह किसी व्यक्ति का हृदय है, न कि सतह पर किए गए उनके कार्य। स्थिति ऐसी नहीं है कि परमेश्वर को किसी व्यक्ति को तब तक आशीष देना चाहिए जब तक वे इसे करते हैं, इसके बावजूद कि वे इसे कैसे करते हैं। यह परमेश्वर के बारे में लोगों की ग़लतफ़हमी है। परमेश्वर सिर्फ चीज़ों के अंत के परिणाम को ही नहीं देखता, बल्कि इस पर अधिक जोर देता है कि किसी व्यक्ति का हृदय कैसा है और चीज़ों के विकास के दौरान किसी व्यक्ति की मनोवृत्ति कैसी है, और यह देखता है कि उनके हृदय में आज्ञाकारिता, विचार, एवं परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा है या नहीं। उस समय नूह परमेश्वर के विषय में कितना जानता था? क्या यह उतना था जितने ये सिद्धान्त हैं जिन्हें अब तुम लोग जानते हो? उस सच्चाई के पहलुओं के सम्बन्ध में जैसे परमेश्वर की अवधारणाएँ एवं उसका ज्ञान, क्या उसने उतनी सिंचाई एवं चरवाही पाई थी जितनी तुम लोगों ने पाई है? नहीं, उसने नहीं पाई! लेकिन एक तथ्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता है: चेतना में, मस्तिष्कों में, और यहाँ तक कि आज के लोगों के हृदयों की गहराई में भी, परमेश्वर के विषय में उनकी अवधारणाएँ और उसके प्रति उनकी मनोवृत्ति धुंधली एवं अस्पष्ट है। तुम लोग यहाँ तक कह सकते हो कि लोगों का एक हिस्सा परमेश्वर के अस्तित्व के प्रति एक नकारात्मक मनोवृत्ति को थामे हुए है। लेकिन नूह के हृदय एवं चेतना में, परमेश्वर का अस्तित्व पूर्ण एवं बिना किसी सन्देह के था, और इस प्रकार परमेश्वर के प्रति उसकी आज्ञाकारिता अमिश्रित थी और परीक्षा का सामना कर सकता थी। परमेश्वर के प्रति उसका हृदय शुद्ध एवं खुला हुआ था। उसे परमेश्वर के हर एक वचन का अनुसरण करने हेतु अपने आपको आश्वस्त करने के लिए सिद्धान्तों के बहुत अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं थी, न ही उसे परमेश्वर के अस्तित्व को साबित करने के लिए बहुत सारे तथ्यों की आवश्यकता थी, ताकि जो कुछ परमेश्वर ने सौंपा था वह उसे स्वीकार कर सके और जो कुछ भी करने के लिए परमेश्वर ने उसे अनुमति दी थी वह उसे करने के योग्य सके। यह नूह और आज के लोगों के बीच आवश्यक अन्तर है, और साथ ही यह बिलकुल सही परिभाषा भी है कि परमेश्वर की दृष्टि में एक सिद्ध पुरुष कैसा होता है। जो परमेश्वर चाहता है वह नूह के समान लोग हैं। वह उस प्रकार का व्यक्ति है जिसकी प्रशंसा परमेश्वर करता है, और बिलकुल उसी प्रकार का व्यक्ति है जिसे परमेश्वर आशीष देता है। क्या तुम लोगों ने इससे कोई अद्भुत प्रकाशन प्राप्त किया है? लोग मनुष्यों को बाहर से देखते हैं, जबकि जो कुछ परमेश्वर देखता है वह लोगों के हृदय एवं उनके सार हैं। परमेश्वर किसी को भी अपने प्रति अधूरा-मन या सन्देह रखने की अनुमति नहीं देता है, न ही वह लोगों को किसी रीती से उस पर सन्देह करने या उसकी परीक्षा लेने की इजाज़त देता है। इस प्रकार, हालाँकि आज लोग परमेश्वर के वचन के आमने-सामने हैं, या तुम लोग यह भी कह सकते हो कि परमेश्वर के आमने-सामने हैं, फिर भी किसी चीज़ के कारण जो उनके हृदयों की गहराई में है, उनके भ्रष्ट मूल-तत्व के अस्तित्व के कारण, और उसके प्रति उनकी प्रतिकूल मनोवृत्ति के कारण, परमेश्वर में उनके सच्चे विश्वास से उन्हें अवरोधित किया गया है, और उसके प्रति उनकी आज्ञाकारिता में उन्हें बाधित किया गया है। इस कारण, यह उनके लिए बहुत कठिन है कि वे उसी आशीष को हासिल करें जिसे परमेश्वर ने नूह को प्रदान किया था।
                                                                      "वचन देह में प्रकट होता है" से
अधिकपरमेश्वर के भजन - चुने हुए भजनों को सूची - परमेश्वर प्रेम को ब्यक्त करना

सदोम की भ्रष्टताः मुनष्यों को क्रोधित करने वाली, परमेश्वर के कोप को भड़काने वाली

सर्वप्रथम, आओ हम पवित्र शास्त्र के अनेक अंशों को देखें जो "परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश" की व्याख्या करते हैं। (उत्पत्ति 19...